क्या पुलिस अभियुक्त के संस्वीकृत बयान (Confessional Statement) के आधार पर FIR दर्ज़ कर सकती है? उसका साक्ष्य के रूप में क्या मूल्य होगा?
"पुलिस किसी भी व्यक्ति (जिसमें अभियुक्त भी शामिल है) द्वारा दी गयी सूचना के आधार पर FIR दर्ज़ कर सकती है, बिना इस बात पर ध्यान दिए कि क्या अभियुक्त द्वारा दिया गया बयान 'संस्वीकृत बयान' (confessional statement) है या नहीं."
दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 154 FIR दर्ज़ करने से सम्बन्ध रखती है हालाँकि यह धारा 'FIR' शब्द का प्रयोग नहीं करती है.
यह धारा कहती है कि संज्ञेय अपराध किये जाने से सम्बंधित प्रत्येक सूचना, थानाधिकारी को अगर मौखिक दी गयी है तो उसे वह स्वयं या अपने निर्देशन में लेखबद्ध करवाएगा और यह सूचना, सूचना देने वाले को पढ़कर सुनाई जाएगी और उस पर उस व्यक्ति के हस्ताक्षर लिए जाएंगे एवं इस सूचना का सार राज्य सरकार के नियमों के अनुसार एक पुस्तक में प्रविष्ट किया जायेगा.
यह धारा आगे कहती है कि थानाधिकारी सूचना देने वाले व्यक्ति के स्टेटस पर ध्यान दिए बिना संज्ञेय अपराध की हर सूचना को दायर कर सकता है.
ललिता कुमारी मामले में सुप्रीम कोर्ट की संवैधानिक पीठ ने कहा है कि अगर दी गयी सूचना में कोई भी संज्ञेय अपराध घटित होने की बात प्रकट होती है तो FIR दायर करना अनिवार्य है.
पुलिस किसी भी व्यक्ति द्वारा दी गयी सूचना के आधार पर FIR दर्ज़ कर सकती है, बिना इस बात पर ध्यान दिए कि क्या अभियुक्त द्वारा दिया गया बयान, 'संस्वीकृत बयान' है या नहीं.
FIR का साक्ष्य महत्व
FIR एक मूल साक्ष्य (substantive evidence) नहीं है. इसका प्रयोग साक्ष्य अधिनियम की धारा १५७ के तहत सूचना देने वाले के बयान की सम्पुष्टि (corroboration) के लिए या धारा १४५ के तहत, अगर सूचना देने वाले को गवाह के तौर पर बुलाया जाता है तो उसके बयान का खंडन करने के लिए किया जा सकता है.
संस्वीकृत FIR का साक्ष्य महत्व
सुप्रीम कोर्ट ने संस्वीकृत FIR के साक्ष्य महत्व के प्रश्न को अगनू नागेसिआ बनाम बिहार राज्य (AIR 1966 SC 119) मामले में परखा है.
उपर्युक्त मामले में अगनू नागेसिआ पर भारतीय दंड सहित की धारा ३०२ के तहत अपनी सम्बन्धी रतनी, उसकी बेटी चामीन, दामाद सोमरा और सोमरा के पुत्र डिलू की हत्या करने का आरोप था.
अभियोग का मामला था कि ११ अगस्त १९६३ को, सुबह ७ और ८ बजे के बीच, अपीलकर्ता ने दुन्गीहरान जंगल क्षेत्र में सोमरा और बाद में केसरी गरहा खेत में चामीन और फिर जमतोली गाँव में रतनी के घर में रतनी और डिलू की हत्या कर दी.
पालकोट पुलिस स्टेशन में खुद अभियुक्त ने FIR दर्ज़ करवाई थी. ऑफिसर इन चार्ज ने सूचना को लेखबद्ध करवाया. फिर रिपोर्ट पर अभियुक्त और सब- इंस्पेक्टर ने अंगूठा लगाया. सब इंस्पेक्टर ने उसे तुरंत गिरफ्तार कर लिया.
अगले दिन अभियुक्त के साथ सब इंस्पेक्टर रतनी के घर गया जहाँ उसने रतनी और डिलू के शव की तरफ इशारा किया और उस स्थान की और भी इशारा किया जहाँ उसने रतनी के बाग में झाड़ियों के पीछे कुल्हाड़ी छुपाई थी. उसके बाद वह सब इंस्पेक्टर और गवाहों को केसरी गरहा खेत में ले गया और उसने खाई में चामिन का मृत शरीर भी दिखा दिया.
अभियुक्त की तरफ से यह कहा गया कि सारा बयान एक पुलिस अधिकारी को दिया गया संस्वीकृति बयान है और साक्ष्य अधिनियम की धारा २५ के अनुसार यह बयान अभियुक्त के विरुद्ध नहीं साबित किया जा सकता. अभियोग ने इस सम्बन्ध में यह कहा कि अपीलकर्ता द्वारा हत्या का खुलासा करने वाला भाग ही संस्वीकृत बयान है, उसके अलावा दिया गया बयान धारा २५ के तहत सुरक्षित नहीं है.
साक्ष्य विधि में संस्वीकृति से सम्बंधित कानून -
भारतीय साक्ष्य अधिनियम 'संस्वीकृति' की परिभाषा नहीं देता है. लम्बे वक़्त से भारतीय न्यायलयों ने स्टीफन डाइजेस्ट फॉर लॉ ऑफ़ एविडेन्स के आर्टिकल २२ के तहत दी गयी 'संस्वीकृति' की परिभाषा को अपनाया है.
उस परिभाषा के मुताबिक संस्वीकृति, किसी अभियुक्त द्वारा किसी भी समय दी गयी एक स्वीकारोक्ति है जो या तो यह कहती है या फिर जिसके आधार पर यह निष्कर्ष निकाला जा सकता है कि उस व्यक्ति ने ही अपराध किया है. इस परिभाषा को जुडिशियल कमिटी ने पक्ला नारायण स्वामी बनाम सम्राट 66 Ind App 66 at p. 81: (AIR 1939 PC 47 at p. 52) मामले में अमान्य कर दिया था. लार्ड अटकिन ने कहा कि- "....... कोई भी बयान जिसमें self exculpatory (स्वयं को बचाने वाले) तत्व शामिल हैं, संस्वीकृति (Confession) नहीं हो सकता है, यदि exculpatory बयान किसी ऐसे तथ्य को लेकर है, जो यदि सत्य हो तो वह कथित अपराध (जिसके सम्बन्ध में संस्वीकृति दी जा रही है) को झुटला दिया जाएगा।". इसके अलावा संस्वीकृत बयान में या तो अपराध की शर्तों की स्वीकारोक्ति होनी चाहिए या फिर हर हाल में मुख्य सभी तथ्य जो अपराध स्थापित करते है उनकी स्वीकारोक्ति होनी चाहिए. एक गंभीर रूप से दोष स्वीकारोक्ति वाला बयान या एक ऐसा बयान जो पूर्ण-रूपेण दोष स्वीकृति करने वाला हो, वह भी अपने आप में संस्वीकृत बयान नहीं होगा जैसे यह स्वीकारोक्ति कि अभियुक्त उस चाकू/रिवॉल्वर का मालिक है जिससे अपराध किया गया या चाकू/रिवॉल्वर अभियुक्त के पास थी और उसके किसी और व्यक्ति के पास होने का कोई आधार नहीं. इस विचार को पलविंदर कौर बनाम पंजाब राज्य 1953 SCR 94 at p. 104; (AIR 1952 SC 354 at p. 357) उत्तर प्रदेश राज्य बनाम देओमन उपाध्याय 1961 (1) SCR 14 at p. 21: (AIR 1960 SC 1125 at pp. 1128-1129) में स्वीकृति मिली. न्यायमूर्ति शाह ने कहा कि संस्वीकृति बयान वह बयान है जहाँ व्यक्ति अपने द्वारा अपराध किये जाने की बात स्वीकारता है या इस सन्दर्भ में संकेत करता है कि अपराध उसने किया है.
संस्वीकृति बयान को एक ऐसे बयान के तौर पर परिभाषित किया जा सकता है जहाँ वह व्यक्ति जिसे किसी अपराध के संदर्भ में चार्ज किया गया है, अपने द्वारा अपराध किये जाने की बात स्वीकारता है"एक बयान जिसमें self exculpatory (स्वयं को बचाने वाले) तत्त्व शामिल हैं, एक संस्वीकृति (Confession) नहीं हो सकता है, यदि exculpatory बयान उस तथ्य से सम्बंधित है, जो यदि सही है, तो कथित अपराध (जिसके सम्बन्ध में संस्वीकृति दी जा रही है) को नकार दिया जाएगा।"
अगर अभियुक्त की स्वीकारोक्ति का प्रयोग उसके विरुद्ध करना है तो सम्पूर्ण बयान साक्ष्य के तौर पर प्रस्तुत किया जाना चाहिए और बयान का कुछ हिस्सा दोषसिद्ध करता है और कुछ दोषमुक्त तो अभियोजक के पास यह स्वतंत्रता नहीं है कि वह सिर्फ वही हिस्सा पेश करे जो दोषसिद्धि करता है या जो अभियोगात्मक है. (देखें- अगनू नागेसिआ बनाम बिहार राज्य (AIR 1966 SC 119), हनुवंत गोविन्द बनाम मध्य प्रदेश राज्य 1952 SCR 1091 at p. 1111: (AIR 1952 SC 343 at p. 350) and 1953 SCR 94: (AIR 1952 SC 354))
अगर संस्वीकृत बयान को साबित करना भारतीय साक्ष्य अधिनियम की धारा २४, २५ और २६ के तहत निषेध है तो सम्पूर्ण संस्वीकृत बयान अपने सभी हिस्सों के साथ, जिसमें वे हिस्से भी शामिल है जो गौण रूप से अभियोगात्मक भी हो, तो वो सम्पूर्ण संस्वीकृत बयान साक्ष्य के तौर पर शामिल नहीं किया जा सकता जब तक कि उसका कुछ हिस्सा धारा २७ के तहत स्वीकार नहीं किया जा सके. धारा २४, २५ और २६ का महत्व बिल्कुल गौण हो जायेगा यदि संस्वीकृत बयान के अभियोगात्मक हिस्से को स्वीकार कर लिया जाये.
कभी-कभी, एक अकेला वाक्य किसी भी तरह से संस्वीकृत बयान न हो. धारा ३०४-अ में चार्ज बने हुए व्यक्ति का मामला लेते है. वह पुलिस अधिकारी को बयान देता है कि "मैं नशे में था: मैं ८० मील प्रति घंटे की रफ़्तार से कार चला रहा था. मैं ८० यार्ड की दूरी पर 'अ' को देख सका था; मैनें हॉर्न नहीं बजाया: मैंने कार को रोकने का कोई प्रयास नहीं किया, कार ने 'अ' को टक्कर मार दी." इस बयान का एक भी वाक्य संस्वीकृति नहीं है. पर पूर्णरूपेण देखने पर बयान धारा 304-अ के तहत अपराध की स्वीकरोक्ति है. हर वाक्य को अलग-अलग मान कर इसे संस्वीकृत बयान न मानते हुए इसे साक्ष्य के तौर पर स्वीकार नहीं किया जा सकता.
पुन: एक उदाहरण लेते है जहाँ पुरे बयान में से एक वाक्य अपराध की स्वीकारोक्ति होता है. 'अ' कहता है कि "मैंने 'ब' को कुल्हाड़ी से मारा और उसे चोट पहुंचाई." और उसके परिणामस्वरुप 'ब' मर गया. 'अ' ने अपराध किया है और उस पर भारतीय दंड संहिता की कई धाराओं के तहत मामला बनता है. अगर वह अपना बयान किसी एक अपवाद के तहत न लाये तो उसका बयान अपराध की स्वीकारोक्ति है. पर बयान के बाकि के हिस्से जैसे प्रेरणा, तैयारी, उकसावे का अभाव, हथियार छुपाना, और उसके बाद के एक्शन, अपराध की संगीनता, अभियुक्त की जानकारी और उसके इरादे, और नकारत्मकताएँ, प्राइवेट डिफेंस, एक्सीडेंट या दूसरे डिफेंस आदि के लागू होने की संभावना को खारिज करते है. अपराध से सम्बंधित दोष साबित करने वाली हर स्वीकारोक्ति संस्वीकृति बयान है.
उपर्युक्त अगनू नागेसिआ मामले में लम्बी चर्चा के बाद कोर्ट ने कहा कि-
"अगर अभियुक्त द्वारा पुलिस को प्रथम दृष्ट्या रिपोर्ट दी जाती है और वह एक संस्वीकृति बयान है तो संस्वीकृति को साबित करना धारा २५ के तहत निषिद्ध है. संस्वीकृति में मात्र अपराध की स्वीकारोक्ति नहीं होती बल्कि संस्वीकृति बयान में अपराध से सम्बंधित दोष साबित करने वाले अन्य तथ्यों की भी स्वीकारोक्ति होती है. संस्वीकृति बयान का कोई हिस्सा स्वीकारणीय नहीं है बस उस हिस्से को छोड़ कर जहाँ धारा २५ का निषेध धारा २७ द्वारा ख़त्म किया गया हो."
क्या सूचना का कोई हिस्सा जिसके आधार पर मामले के सम्बन्ध में कोई प्रकटीकरण (discovery) होता है, वह साक्ष्य अधिनियम की धारा २७ के तहत स्वीकारणीय साक्ष्य है?
अगनू नागेसिआ मामले ने उपर्युक्त सवाल का जवाब दिया है-
धारा २७, अभियुक्त से मिली मात्र उस सूचना पर लागू होती है जो एक पुलिस ऑफिसर की कस्टडी में दी गयी हो. सब इंस्पेक्टर का कहना है कि उसने अभियुक्त को की सूचना देने के बाद गिरफ्तार किया जिससे मामले के सम्बन्ध में प्रकटीकरण हुआ. अत: प्रथम दृष्ट्या जब अभियुक्त ने सूचना दी तब वह पुलिस अधिकारी की कस्टडी में नहीं था जब तक कि यह नहीं कहा जा सके कि वह रचनात्मक रूप से कस्टडी (constructive custody) में था. क्या जब कोई व्यक्ति पुलिस अधिकारी को सीधे ऐसी कोई सूचना देता है जिसका उसके खिलाफ साक्ष्य के तौर पर इस्तेमाल किया जा सकता है तो क्या यह कहा जा सकता है कि उसने धारा २७ के अनुसार स्वयं को पुलिस की कस्टडी में सौंप दिया है?- इस सवाल पर मतभेद है. (1961) 1 SCR 14 : (AIR 1960 SC 1125) में न्यायमूर्ति शाह और न्यायमूर्ति सुब्बा राव के मत को देखे. इस मामले के लिए हम यह मान कर चलते है कि रचनात्मक रूप से अपीलकर्ता पुलिस की कस्टडी में था, अत:FIR में लिखित सूचना जिसके आधार पर शव और कुल्हाड़ी मिली, वह साक्ष्य के तौर पर स्वीकारणीय हैं.
क्या अभियुक्त अपना संस्वीकृति बयान रिकॉर्ड करवाने के लिए सीधे मजिस्ट्रेट के समक्ष पहुँच सकता है?
न्यायमूर्ति के टी थॉमस और आर पी सेठी की पीठ ने महाबीर सिंह बनाम हरियाणा राज्य मामले में इस सवाल पर चर्चा की है.
इस मामले में ह्त्या का अभियुक्त स्वयं हाथ में चाकू लिए सुबह के वक़्त अपना बयान लिखवाने हेतु कोर्ट में घुसा चला आया था.
कोर्ट ने निर्णय दिया कि अभियुक्त स्वयं मजिस्ट्रेट के समक्ष आ सकता है, यह जरुरी नहीं कि उसे पुलिस द्वारा ही पेश किया जाए. पर यह जरुरी है कि किसी मामले के सम्बन्ध में जिसमें अध्याय १२ के तहत तफ्तीश चल रही हो, उसी मामले के सम्बन्ध में इस तरह पेश हुआ जा सकता है. अगर मजिस्ट्रेट को यह नहीं ज्ञात है कि वह व्यक्ति किसी ऐसे मामले से सम्बन्ध रखता है जिसमें अध्याय १२ के तहत तफ्तीश शुरू हो गयी है, तो वह संस्वीकृति बयान नहीं रिकॉर्ड कर सकता. अगर कोई व्यक्ति सीधे ही कोर्ट रूम में घुसा चला आये और मजिस्ट्रेट से माँग करें कि उसका बयान रिकॉर्ड किया जाए क्योंकि उसने एक संज्ञेय अपराध किया है तो मजिस्ट्रेट को पुलिस को सूचित करना चाहिए. फिर पुलिस को अध्याय १२ में दिए गए कदम उठाने होंगे. मजिस्ट्रेट संस्वीकृति बयान रिकॉर्ड कर सकता है, अगर उसके समक्ष यह विश्वास करने के कारण है कि तफ्तीश शुरू हो गयी है और जो व्यक्ति उसके समक्ष संस्वीकृति बयान रिकॉर्ड करवाने के लिए प्रस्तुत हुआ है वह इस मामले से सम्बन्ध रखता है. वरना कोर्ट रूम ऐसी कोई जगह नहीं है जहाँ कोई भी घुसा चला आये और मजिस्ट्रेट से कोई भी बयान जो उसके नज़र में आत्म विभक्ति (self incriminating) युक्त हो, उसे रिकॉर्ड करने को कहे.