'हाईकोर्ट की विवेकाधीन शक्ति को सीमित नहीं किया जा सकता': केरल हाईकोर्ट एडवोकेट्स एसोसिएशन ने सुप्रीम कोर्ट से कहा

Update: 2025-11-12 10:05 GMT

केरल हाईकोर्ट एडवोकेट्स एसोसिएशन (KHCAA) ने सुप्रीम कोर्ट के समक्ष यह तर्क दिया है कि हाईकोर्ट को पहली बार में ही अग्रिम जमानत (Anticipatory Bail) याचिकाओं को सुनने का जो विवेकाधिकार प्राप्त है, उसे किसी भी प्रकार से सीमित नहीं किया जा सकता। एसोसिएशन ने कहा कि हाईकोर्ट की अधिकारिता पर किसी भी तरह की पाबंदी लगाना न्यायिक अतिक्रमण (Judicial Overreach) होगा, जो विधायी मंशा (Legislative Intent) और संविधान के अनुच्छेद 21 के तहत प्रदत्त व्यक्तिगत स्वतंत्रता के अधिकार का उल्लंघन करता है। एसोसिएशन ने खुद को उस मामले में पक्षकार बनाने की अर्जी दी है, जिसमें सुप्रीम कोर्ट यह तय कर रहा है कि क्या अभियुक्त को अग्रिम जमानत के लिए पहले सेशंस कोर्ट में जाना अनिवार्य है।

यह मुद्दा Mohammed Rasal C v. State of Kerala मामले से जुड़ा है, जिसमें जस्टिस विक्रम नाथ और जस्टिस संदीप मेहता की खंडपीठ ने केरल हाईकोर्ट के सीधे तौर पर अग्रिम जमानत याचिकाएं सुनने की प्रथा पर असहमति जताई थी। खंडपीठ ने कहा था कि भले ही धारा 438 CrPC (अब धारा 482 BNSS) हाईकोर्ट और सेशंस कोर्ट दोनों को समान (Concurrent) अधिकार देती है, पर सामान्य परिस्थितियों में अभियुक्त को पहले सेशंस कोर्ट में जाना चाहिए और केवल असाधारण परिस्थितियों में ही हाईकोर्ट से सीधे राहत मांगी जानी चाहिए। अदालत ने इस मामले में वरिष्ठ अधिवक्ता सिद्धार्थ लूथरा को अमाइकस क्यूरी (Amicus Curiae) नियुक्त किया था, जिन्होंने अपनी रिपोर्ट में सुझाव दिया कि हाईकोर्ट केवल चार विशेष परिस्थितियों में ही सीधे अग्रिम जमानत याचिकाओं को सुन सकता है।

KHCAA ने अपने तर्क में कहा कि धारा 482(1) BNSS और धारा 438(1) CrPC दोनों ही अदालतों — हाईकोर्ट और सेशंस कोर्ट — को समान अधिकार देती हैं और कानून में कहीं भी यह नहीं लिखा है कि अभियुक्त को पहले सेशंस कोर्ट में जाकर ही हाईकोर्ट में याचिका दाखिल करनी होगी। एसोसिएशन ने कहा कि विधायिका ने जानबूझकर दोनों अदालतों को समान अधिकार देने का प्रावधान किया है और 'या (or)' शब्द का प्रयोग यह स्पष्ट करता है कि आरोपी को यह विकल्प है कि वह अपनी याचिका किसी भी अदालत में दायर कर सकता है। KHCAA ने सुप्रीम कोर्ट के गुर्बक्श सिंह सिब्बिया बनाम पंजाब राज्य (1980) फैसले का हवाला देते हुए कहा कि धारा 438 CrPC में जो सीमाएं नहीं हैं, उन्हें न्यायिक व्याख्या के माध्यम से नहीं जोड़ा जा सकता।

एसोसिएशन ने कहा कि सुप्रीम कोर्ट के दो हालिया आदेश इस मुद्दे पर परस्पर विरोधी हैं। Manjeet Singh v. State of Uttar Pradesh (2025) में कहा गया कि अभियुक्त को अग्रिम जमानत के लिए पहले सेशंस कोर्ट जाने की आवश्यकता नहीं है, जबकि Jagdeo Prasad v. State of Bihar (2025) में सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि हाईकोर्ट को सीधे अग्रिम जमानत याचिकाएं स्वीकार नहीं करनी चाहिए और अभियुक्तों को पहले सेशंस कोर्ट जाने का निर्देश दिया जाना चाहिए। KHCAA ने आगे कहा कि यह मुद्दा पहले भी केरल हाईकोर्ट में 2003 में उस्मान बनाम S.I. of Police और Balan v. State of Kerala मामलों में उठाया जा चुका है। डिवीजन बेंच ने अपने फैसले में कहा था कि धारा 438 CrPC किसी भी तरह की पाबंदी नहीं लगाती और आरोपी को यह अधिकार देती है कि वह सेशंस कोर्ट या हाईकोर्ट, किसी में भी याचिका दाखिल कर सकता है।

KHCAA ने यह भी कहा कि सुप्रीम कोर्ट द्वारा दिया गया यह तर्क कि सेशंस कोर्ट स्थानीय परिस्थितियों और दस्तावेज़ों की उपलब्धता को बेहतर समझते हैं, केरल की स्थिति पर लागू नहीं होता क्योंकि केरल हाईकोर्ट में एक उन्नत डिजिटल केस मैनेजमेंट सिस्टम है, जिसके ज़रिए अदालत सीधे पुलिस स्टेशनों और अधीनस्थ अदालतों से केस डायरी और रिकॉर्ड ऑनलाइन मंगवा सकती है। इसलिए हाईकोर्ट द्वारा पहली बार में ही अग्रिम जमानत याचिका सुनने में कोई व्यावहारिक बाधा नहीं है।

सुनवाई के अंत में सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि यह एक महत्वपूर्ण संवैधानिक प्रश्न है और इसे तीन न्यायाधीशों की पीठ के समक्ष भेजा जाएगा। अब इस मामले की अगली सुनवाई निर्धारित तिथि पर होगी, जिसमें सुप्रीम कोर्ट यह स्पष्ट करेगा कि क्या हाईकोर्ट को पहली बार में ही अग्रिम जमानत याचिकाएं सुनने का अधिकार सीमित किया जा सकता है या नहीं।

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