वक्फ बोर्ड समिति के माध्यम से संपत्ति को 'निजी' घोषित करने के प्रशासक के आदेश को वापस नहीं ले सकता: कर्नाटक हाईकोर्ट
कर्नाटक हाईकोर्ट ने हाल ही में कर्नाटक राज्य वक्फ बोर्ड द्वारा पारित आदेश रद्द किया, जिसमें वर्ष 1976 में बोर्ड के तत्कालीन प्रशासक द्वारा पारित आदेश पर पुनर्विचार करने और उसे वापस लेने के लिए एक विधि समिति का गठन किया गया था। इसमें कहा गया कि बेंगलुरु के कुम्बरपेटे क्षेत्र में स्थित संपत्ति का एक हिस्सा निजी संपत्ति है, न कि वक्फ संपत्ति।
जस्टिस एम जी एस कमल की एकल पीठ ने जाबिर अली खान उर्फ शुजा नामक व्यक्ति द्वारा दायर याचिका स्वीकार की, जिसने विधि समिति के गठन पर सवाल उठाया था। इसने बोर्ड को वक्फ अधिनियम के तहत कार्यवाही शुरू करके कर्नाटक वक्फ न्यायाधिकरण का रुख करने का निर्देश दिया।
अदालत ने कहा,
"कर्नाटक राज्य वक्फ बोर्ड ने प्रशासक द्वारा पारित आदेश रद्द करने के लिए वर्तमान विधि समिति का गठन किया है, जो "एक बार वक्फ बनने के बाद हमेशा वक्फ ही रहता है" के सिद्धांतों के आधार पर है, न कि किसी धोखाधड़ी, गलत बयानी या गुमराह करने के आरोप पर।"
इसमें आगे कहा गया,
"यह मानते हुए कि यदि प्रशासक द्वारा पारित आदेश अमान्य और आरंभ से ही शून्य है तो जब तक कि उसे सक्षम न्यायालय के आदेश द्वारा निरस्त नहीं कर दिया जाता, तब तक वह प्रभावी रहेगा।"
याचिकाकर्ता ने संबंधित संपत्ति के मूल स्वामी का वंशज होने का दावा किया।
यह प्रस्तुत किया गया कि 07.06.1965 को तत्कालीन मैसूर राज्य वक्फ बोर्ड द्वारा वक्फ अधिनियम, 1954 की धारा 5(2) के तहत अधिसूचना जारी की गई, जिसमें उक्त संपत्ति को वक्फ संपत्ति के रूप में सूचीबद्ध किया गया।
इसके बाद प्रशासक ने 26.11.1976 को आदेश पारित किया, जिसमें संपत्ति को याचिकाकर्ता के पूर्वज की निजी संपत्ति घोषित किया गया। इसके अनुसरण में कर्नाटक राज्य वक्फ बोर्ड द्वारा 05.03.1977 की अधिसूचना जारी की गई, जिसमें उक्त संपत्ति को वक्फ की सूची से हटा दिया गया।
हालांकि, 2020 में बोर्ड ने याचिकाकर्ता को अतिचारी करार दिया और दावा किया कि संपत्ति अवैध रूप से उसके नाम पर बनाई गई थी। इसके बाद एक विधि समिति गठित की गई, जिसने संपत्ति को वक्फ संपत्ति घोषित कर दिया।
याचिकाकर्ता ने तर्क दिया कि मामले की जांच के लिए विधि समिति का गठन अवैध और कानून के विपरीत है। साथ ही बोर्ड की बैठक में ऐसी राय व्यक्त करने वाले उन्हीं सदस्यों को मामले की जांच का काम सौंपा गया। उन्होंने प्रस्तुत किया कि ऐसी प्रक्रियाएं प्राकृतिक न्याय के सिद्धांतों के विपरीत हैं और पक्षपात से भरी हुई हैं।
यह भी दावा किया गया कि अधिनियम की धारा 18 के तहत संपत्ति के चरित्र को निर्धारित करने की इस प्रकृति की शक्ति किसी विधि समिति को नहीं सौंपी जा सकती है, इसे वक्फ अधिनियम, 1995 की धारा 6 और 7 के प्रावधानों के तहत ट्रिब्यूनल के समक्ष निपटाया जाना चाहिए।
बोर्ड ने याचिका का विरोध किया और अधिनियम की धारा 32(2)(एच) का हवाला दिया। प्रस्तुत किया कि वक्फ बोर्ड पर अपनी खोई हुई संपत्तियों को वापस पाने का दायित्व है। खोई हुई संपत्तियों को वापस पाने के लिए जांच और आवश्यक कार्रवाई के उद्देश्य से विधि समिति के गठन को उचित ठहराने के लिए अधिनियम की धारा 52 और कर्नाटक वक्फ विनियम, 2010 का भी संदर्भ दिया गया।
निष्कर्ष:
पीठ ने 26.11.1976 को कर्नाटक वक्फ बोर्ड के तत्कालीन प्रशासक द्वारा पारित आदेश पर गौर किया। वर्तमान विधि समिति के गठन तक उक्त आदेश को चुनौती नहीं दी गई।
इसके बाद पीठ ने कहा,
“बेशक, प्रासंगिक अवधि में तत्कालीन वक्फ अधिनियम, 1954 के तहत कोई बोर्ड गठित नहीं किया गया। कर्नाटक राज्य वक्फ बोर्ड अपने प्रशासक के माध्यम से राज्य के प्रबंधन और नियंत्रण में था। यह कहने की आवश्यकता नहीं है कि वक्फ अधिनियम के तहत वक्फ संस्थानों के मामलों से संबंधित बोर्ड के कार्यों का निर्वहन करने के लिए प्रशासक को शक्ति और अधिकार दिया गया।”
न्यायालय ने कहा कि यदि प्रशासक द्वारा की गई किसी कार्रवाई या पारित आदेश को उलटने या निरस्त करने की आवश्यकता है तो ऐसा कानून के ज्ञात तरीके से और अधिनियम के प्रासंगिक प्रावधानों के तहत किया जाना चाहिए।
“प्रशासक द्वारा पारित आदेश बोर्ड द्वारा पारित आदेश के समान है। इस प्रकार पारित कोई भी आदेश कानून के तहत दिए गए अनुसार अपील या पुनर्विचार या संशोधन के लिए उत्तरदायी है। जब तक वक्फ अधिनियम के तहत कोई विशिष्ट प्रावधान नहीं दिया जाता है, तब तक आदेश पारित करने वाला प्राधिकरण, चाहे वह बोर्ड हो या इस मामले में प्रशासक, अपने स्वयं के आदेश को वापस नहीं ले सकता या उसकी समीक्षा नहीं कर सकता। वक्फ अधिनियम, 1995 की योजना के तहत कर्नाटक राज्य वक्फ बोर्ड के पास ऐसी किसी शक्ति या अधिकार क्षेत्र के बारे में कुछ भी नहीं बताया गया, जो उसे अपने स्वयं के आदेश को वापस लेने या उसकी समीक्षा करने में सक्षम बनाता हो।”
न्यायालय ने कहा कि जो प्राधिकरण किसी विशिष्ट प्रावधान के अभाव में अपने अर्ध न्यायिक अधिकार क्षेत्र का प्रयोग करते हुए विषयों के अधिकारों का निर्धारण करने वाला आदेश पारित करता है, वह अपने आदेश को वापस ले सकता है या उसकी समीक्षा तभी कर सकता है, जब ऐसा आदेश धोखाधड़ी, गलत बयानी या प्राधिकरण को गुमराह करके प्राप्त किया गया हो।
कोर्ट ने कहा,
“इसलिए प्रशासक का आदेश रद्द करने के लिए विधि समिति गठित करने वाली प्रतिवादी-राज्य वक्फ बोर्ड द्वारा दिनांक 12.03.2020 की कार्यवाही वक्फ अधिनियम के प्रावधानों के दायरे से बाहर है। प्रतिवादी-राज्य वक्फ बोर्ड के वकील द्वारा वक्फ अधिनियम 1995 की धारा 18, 32 (2) (एच), 52 और 107 के प्रावधानों पर भरोसा करना मामले के तथ्यों और परिस्थितियों के तहत बेकार है।”
याचिका स्वीकार करते हुए अदालत ने कहा,
“चूंकि इस याचिका में किए गए दावे और प्रतिद्वंद्वी दावे संपत्ति की प्रकृति के बारे में सवाल की जड़ तक जाएंगे, इसलिए अधिनियम की धारा 18 के तहत सौंपी गई शक्ति की आड़ में विधि समिति द्वारा कार्यवाही जारी रखना, अधिनियम की धारा 6 और 7 के तहत निहित व्यक्त प्रावधानों के मद्देनजर समर्थन नहीं किया जा सकता।”
केस टाइटल: जाबिर अली खान उर्फ शुजा और कर्नाटक राज्य वक्फ बोर्ड एवं अन्य