ज़रूरी तथ्य छिपाने या फिर कोर्ट को गुमराह करने की कोशिश करने वाला मुकदमेबाज़ मेरिट के आधार पर सुनवाई का अधिकार खो देता है: जम्मू कश्मीर हाईकोर्ट

Update: 2025-12-18 04:19 GMT

जम्मू-कश्मीर एंड लद्दाख हाईकोर्ट ने सोमवार (15 दिसंबर) को कहा कि जो मुक़दमेबाज़ कोर्ट में आते समय ज़रूरी तथ्यों को छिपाता है या दबाता है, वह मेरिट के आधार पर सुनवाई का अधिकार खो देता है। साथ ही संविधान के अनुच्छेद 226 के तहत कोई भी न्यायसंगत या विवेकाधीन राहत नहीं मांग सकता।

जस्टिस वसीम सादिक नरगल की सिंगल जज बेंच ने दो संबंधित रिट याचिकाओं को खारिज करते हुए यह टिप्पणी की, जिनमें श्रीनगर के शेख बाग में नज़ूल ज़मीन पर मालिकाना हक देने और पब्लिक प्रेमिसेस एक्ट के तहत शुरू की गई बेदखली की कार्यवाही को चुनौती देने की मांग की गई।

कोर्ट ने कहा,

"यह कोर्ट यह दर्ज करने के लिए मजबूर है कि याचिकाकर्ताओं ने जानबूझकर और सोच-समझकर ज़रूरी तथ्यों को छिपाया है। उनकी पिछली रिट याचिकाएं, OWP नंबर 2336/2018 और OWP नंबर 383/2019, प्रतिवादियों द्वारा अपना जवाब दाखिल करने के तुरंत बाद वापस ले ली गईं। फिर भी इस महत्वपूर्ण तथ्य को मौजूदा कार्यवाही में जानबूझकर छिपाया गया। ऐसा आचरण सिर्फ़ एक चूक नहीं है, बल्कि इस कोर्ट को गुमराह करने और धोखे से अंतरिम राहत पाने की सोची-समझी कोशिश है। जो मुक़दमेबाज़ ज़रूरी तथ्यों को छिपाकर कोर्ट के आदेश हासिल करने की कोशिश करता है, वह सुनवाई का सारा अधिकार खो देता है, अनुच्छेद 226 के तहत न्यायसंगत या विवेकाधीन राहत मांगने की तो बात ही छोड़ दें। यह कोर्ट अपनी प्रक्रिया का इस तरह से खुलेआम दुरुपयोग करने की इजाज़त नहीं दे सकता और याचिकाकर्ताओं का आचरण न केवल याचिका को खारिज करने, बल्कि अनुकरणीय और निवारक लागत लगाने की भी मांग करता है।"

कोर्ट ने कहा कि याचिकाकर्ता सरकारी आदेश संख्या Rev/NDK/248/1981 के तहत स्वामित्व अधिकार दिए गए पट्टेदारों के साथ समानता का दावा करने के हकदार नहीं हैं, क्योंकि वे उक्त आदेश जारी होने की तारीख पर पट्टेदार नहीं हैं। कोर्ट ने असिस्टेंट कमिश्नर नज़ूल द्वारा जारी बेदखली नोटिस को भी यह मानते हुए सही ठहराया कि याचिकाकर्ता अपने पट्टे की अवधि समाप्त होने और नवीनीकरण न कराने के बाद अनाधिकृत कब्जेदार बन गए।

मामले की पृष्ठभूमि

यह विवाद श्रीनगर के शेख बाग में पांच मरला की एक पट्टे पर दी गई संपत्ति से संबंधित था, जिसे मूल रूप से याचिकाकर्ताओं के पूर्वजों को पट्टे पर दिया गया। हालांकि लीज़ 1974 में खत्म हो गई लेकिन बाद में 1982 में इसे रिन्यू किया गया। याचिकाकर्ताओं ने 1981 के सरकारी आदेश के तहत यह तर्क देते हुए मालिकाना हक देने की मांग की कि इसी तरह की स्थिति वाले लीज़धारकों को रियायती दरों पर मालिकाना हक दिया गया था।

हालांकि, 2005 में, जम्मू एंड कश्मीर स्टेट लैंड्स (मालिकाना हक देने) एक्ट, 2001 (रोशनी एक्ट) के तहत याचिकाकर्ताओं के पक्ष में सिर्फ तीन मरला और 269 वर्ग फुट ज़मीन को बहुत ज़्यादा दर पर रेगुलराइज़ किया गया। इससे नाराज़ होकर, याचिकाकर्ताओं ने संविधान के अनुच्छेद 14 के तहत भेदभाव का आरोप लगाया।

मामले के पेंडिंग रहने के दौरान, जम्मू एंड कश्मीर पब्लिक प्रेमिसेस (अनाधिकृत कब्ज़ा करने वालों को बेदखल करना) एक्ट, 1988 के तहत उनके खिलाफ बेदखली की कार्यवाही शुरू की गई, जिसके कारण एक और रिट याचिका दायर करनी पड़ी।

कोर्ट के निष्कर्ष

1981 के सरकारी आदेश के तहत मालिकाना हक का दावा खारिज करते हुए कोर्ट ने कहा कि उक्त आदेश के तहत पात्रता सिर्फ उन्हीं लोगों तक सीमित थी, जो उस समय लीज़धारक हैं। चूंकि याचिकाकर्ताओं की लीज़ 1974 में खत्म हो गई और 1982 में ही रिन्यू हुई, इसलिए वे इसके दायरे से बाहर हैं।

कोर्ट ने आगे कहा कि याचिकाकर्ताओं ने स्वेच्छा से रोशनी एक्ट के तहत आवेदन किया, जो एक अलग और विशिष्ट कानूनी व्यवस्था थी। इसलिए वे 1981 के सरकारी आदेश के तहत लाभार्थियों के साथ समानता की मांग नहीं कर सकते।

महत्वपूर्ण बात यह है कि कोर्ट ने इस बात पर ज़ोर दिया कि रोशनी एक्ट को पहले ही प्रो. एस.के. भल्ला बनाम जम्मू-कश्मीर राज्य मामले में एक डिवीजन बेंच द्वारा शुरू से ही अमान्य घोषित किया जा चुका है। नतीजतन, उक्त एक्ट के तहत रेगुलराइज़ेशन के आधार पर याचिकाकर्ताओं द्वारा दावा किए गए किसी भी मालिकाना हक को कानूनी रूप से गैर-मौजूद माना गया।

बेदखली के मुद्दे पर कोर्ट ने पाया कि 2014 में लीज़ खत्म होने और उसके रिन्यू न होने के बाद याचिकाकर्ता अनाधिकृत कब्ज़ा करने वाले बन गए। पब्लिक प्रेमिसेस एक्ट की धारा 4(1) के तहत जारी किया गया बेदखली नोटिस एस्टेट ऑफिसर की कानूनी क्षमता के भीतर और गैर-कानूनी नहीं था।

कोर्ट ने याचिकाकर्ताओं पर महत्वपूर्ण तथ्यों को जानबूझकर छिपाने के लिए यह देखते हुए कड़ी फटकार लगाई कि उन्होंने पहले राज्य द्वारा जवाब दाखिल करने के बाद दो रिट याचिकाएं दायर की थीं और वापस ले ली थीं, एक ऐसा तथ्य जिसे मौजूदा कार्यवाही में जानबूझकर छिपाया गया था। के.डी. शर्मा बनाम SAIL और दलीप सिंह बनाम उत्तर प्रदेश राज्य सहित सुप्रीम कोर्ट के फैसलों पर भरोसा करते हुए कोर्ट ने कहा कि जो मुक़दमेबाज़ गलत इरादे से रिट कोर्ट में आता है, वह किसी भी न्यायसंगत या विवेकाधीन राहत का अधिकार खो देता है।

मामले को जुर्माना लगाने के लिए सही मानते हुए कोर्ट ने याचिकाकर्ताओं की ज़्यादा उम्र को ध्यान में रखते हुए जुर्माना नहीं लगाया, लेकिन न्यायिक प्रक्रिया के दुरुपयोग के खिलाफ कड़ी चेतावनी जारी की।

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