जम्मू-कश्मीर हाईकोर्ट ने पक्षकारों के बीच समझौते पर दर्ज एफआईआर नियमित रूप से रद्द करने के खिलाफ चेतावनी दी, समाज पर व्यापक प्रभाव का हवाला दिया

Update: 2024-07-12 09:51 GMT

जम्मू-कश्मीर एंड लद्दाख हाईकोर्ट ने चेतावनी दी कि किसी जांच के परिणामस्वरूप दर्ज एफआईआर और उसके बाद आरोप-पत्र को दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 482 के तहत केवल इसलिए नियमित रूप से रद्द नहीं किया जा सकता कि पक्षों ने अपने मतभेद सुलझा लिए हैं।

सतर्कता की चेतावनी देते हुए जस्टिस मोहम्मद यूसुफ वानी ने तर्क दिया,

“यदि शिकायतकर्ताओं और अभियुक्तों की इच्छा पर एफआईआर और जांच से उत्पन्न आपराधिक मामलों को रद्द करने की अनुमति दी जाती है तो आपराधिक न्याय प्रणाली कारण बन सकती है और बड़े पैमाने पर समाज को इसके परिणाम भुगतने होंगे।”

जस्टिस वानी ने ये टिप्पणियां उस मामले में कीं है, जिसमें याचिकाकर्ता-पति राजिंदर कुमार और अन्य ने धारा 498-ए IPC के तहत दर्ज एफआईआर रद्द करने की मांग की थी। यह एफआईआर प्रतिवादी-पत्नी रितु अग्रवाल द्वारा जम्मू-कश्मीर महिला घरेलू हिंसा रोकथाम अधिनियम 2010 की धारा 12 के तहत दर्ज की गई शिकायत से उत्पन्न हुई थी।

याचिकाकर्ताओं ने तर्क दिया कि यह एफआईआर पक्षों के बीच चल रहे वैवाहिक विवाद के कारण दुश्मनी से प्रेरित झूठी शिकायत का परिणाम थी।

रितु अग्रवाल अपने पिता के साथ अदालत में पेश हुईं और पुष्टि की कि उन्होंने याचिकाकर्ताओं के साथ वैवाहिक विवाद को सुलझा लिया और फैमिली कोर्ट जम्मू से आपसी सहमति से तलाक की डिक्री प्राप्त कर ली है। उन्होंने अनुरोध किया कि एफआईआर को रद्द कर दिया जाए क्योंकि सभी मुद्दे सुलझ गए हैं।

न्यायालय ने बी.एस. जोशी बनाम हरियाणा राज्य में सुप्रीम कोर्ट के उदाहरण का संदर्भ दिया, जहां विवाह के विघटन के लिए आपसी समझौते के बाद एफआईआर रद्द करने की अनुमति दी गई।

अपराधों के शमन के संबंध में न्यायालय की अंतर्निहित शक्तियों पर विचार-विमर्श करते हुए जस्टिस वानी ने स्पष्ट किया कि पुरानी और नई दोनों दंड प्रक्रिया संहिताएं अपराधों के शमन को प्रतिबंधित करती हैं लेकिन असाधारण परिस्थितियों में एफआईआर रद्द करने के लिए धारा 482 के तहत हाईकोर्ट की शक्तियों को सीमित नहीं करती हैं।

पीठ ने कहा,

"नए कोड यानी भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता, 2023 (BNSS) की धारा 359 के अनुरूप 1973 के कोड की धारा 320 के प्रावधान एफआईआर और आपराधिक कार्यवाही रद्द करने के संबंध में नए कोड (BNSS) की धारा 528 के अनुरूप कोड की धारा 482 के तहत इस न्यायालय की शक्तियों को प्रतिबंधित नहीं करते हैं बल्कि सीमित करते हैं और बड़े पैमाने पर समाज के लिए बाधित करते हैं, जो आपराधिक न्याय वितरण प्रणाली का वास्तविक लाभार्थी है।"

जस्टिस वानी ने इस बात पर भी प्रकाश डाला कि एफआईआर और उसके बाद की आपराधिक कार्यवाही केवल इसलिए नियमित रूप से रद्द नहीं की जानी चाहिए, क्योंकि पक्षकारों ने अपने विवादों को सुलझा लिया। उन्होंने आपराधिक न्याय प्रणाली और सामाजिक हितों को संभावित नुकसान का हवाला दिया।

गोपाकुमार बी. नायर बनाम सीबीआई (2014) का हवाला देते हुए अदालत ने दोहराया,

“पक्षकारों के बीच समझौते के बाद धारा 482 सीआरपीसी के तहत गैर-शमनीय अपराध रद्द करना धारा 320 का उल्लंघन नहीं होगा, लेकिन ऐसी शक्ति का प्रयोग सावधानी और सतर्कता के साथ किया जाना चाहिए। यह प्रत्येक मामले के तथ्यों पर निर्भर करेगा।”

अंततः विशिष्ट तथ्यों और पक्षों के बीच सौहार्दपूर्ण समाधान पर विचार करते हुए अदालत ने याचिका को अनुमति दी और जांच कार्यवाही के साथ एफआईआर रद्द कर दी।

केस टाइटल- राजिंदर कुमार और अन्य बनाम जम्मू-कश्मीर केंद्र शासित प्रदेश

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