कानून के अनुसार न्याय सुनिश्चित करने के लिए हाईकोर्ट का कर्तव्य है कि वह अपने अधिकार क्षेत्र में सटीक रिकॉर्ड बनाए रखे: जम्मू-कश्मीर हाईकोर्ट

Update: 2024-11-16 06:25 GMT

यह दोहराते हुए कि हाईकोर्ट एक रिकॉर्ड न्यायालय के रूप में भारत के संविधान के अनुच्छेद 215 के तहत निर्णयों पर पुनर्विचार करने की अपनी शक्ति प्राप्त करता है, जम्मू-कश्मीर एंड लद्दाख हाईकोर्ट ने अपने अधिकार क्षेत्र में सटीक रिकॉर्ड बनाए रखने के अपने दायित्व और कर्तव्य पर जोर दिया, जिससे यह सुनिश्चित हो सके कि कानून के अनुसार न्याय हो।

अनुच्छेद 215 के तहत परिकल्पित हाईकोर्ट के अधिदेश और दायित्व को स्पष्ट करते हुए जस्टिस जावेद इकबाल वानी ने कहा,

"यहां यह उल्लेख करना उचित होगा कि हाईकोर्ट द्वारा अपने निर्णयों पर पुनर्विचार करने की शक्ति भारत के संविधान के अनुच्छेद 215 से प्राप्त होती है, जो यह प्रावधान करता है कि प्रत्येक हाईकोर्ट अभिलेख न्यायालय होगा। इस प्रकार हाईकोर्ट के पास अपने अभिलेखों को सही करने की अंतर्निहित शक्ति है। कानून के अनुसार अपने अधिकार क्षेत्र में सही अभिलेखों को बनाए रखने का दायित्व, बल्कि कर्तव्य है।"

मामले की पृष्ठभूमि:

न्यायालय 18 अक्टूबर, 2023 को हाईकोर्ट द्वारा पारित निर्णय से उत्पन्न पुनर्विचार याचिका पर सुनवाई कर रहा था। प्रतिवादी डॉ. आबिद हुसैन ने शुरू में अपने पक्ष में 2008 के ट्रायल कोर्ट के फैसले को लागू करने के लिए निष्पादन याचिका दायर की थी। इस फैसले ने उनकी सेवा से बर्खास्तगी रद्द की और परिणामी लाभों के साथ बहाली का निर्देश दिया था।

निष्पादन न्यायालय ने 2021 में निष्पादन याचिका खारिज की। इसके बाद हाईकोर्ट ने इस बर्खास्तगी को उलट दिया, निष्पादन न्यायालय को प्रवर्तन के साथ आगे बढ़ने का निर्देश दिया।

याचिकाकर्ताओं केंद्र शासित प्रदेश जम्मू और कश्मीर तथा अन्य ने तत्काल पुनर्विचार याचिका दायर की, जिसमें तर्क दिया गया कि प्रतिवादी की रिटायरमें और आयु के कारण डिक्री अब निष्पादन योग्य नहीं है, जिसे कथित तौर पर पिछले निर्णय में अनदेखा किया गया।

कोर्ट की टिप्पणियां:

तर्कों की जांच करने पर जस्टिस वानी ने सिविल प्रक्रिया संहिता के आदेश XLVII के तहत पुनर्विचार के सीमित दायरे पर जोर देते हुए पुनर्विचार याचिका खारिज की। न्यायालय ने इस बात पर प्रकाश डाला कि पुनर्विचार तंत्र को छद्म अपील के रूप में इस्तेमाल नहीं किया जा सकता।

कोर्ट ने टिप्पणी की,

"मामले के इस दृष्टिकोण में भी यह सुरक्षित रूप से कहा जा सकता है कि यहां निर्णय ऋणी याचिकाकर्ताओं द्वारा 16 अक्टूबर 2008 के निर्णय और डिक्री के निष्पादन में देरी के अलावा तत्काल समीक्षा याचिका दायर करने का शायद ही कोई औचित्य हो सकता है।"

भारत के संविधान के अनुच्छेद 215 का हवाला देते हुए कोर्ट ने पुष्टि की कि हाईकोर्ट को अपने निर्णयों की समीक्षा करने का अधिकार रिकॉर्ड न्यायालय के रूप में इसकी स्थिति से उपजा है। न्यायालय ने स्पष्ट किया कि यह संवैधानिक प्रावधान हाईकोर्ट को अपने अभिलेखों को सुधारने की अंतर्निहित शक्तियां प्रदान करता है तथा यह सुनिश्चित करने के लिए एक संगत दायित्व यहां तक कि एक कर्तव्य भी प्रदान करता है कि उसके अभिलेख सटीक हों तथा कानून के अनुसार बनाए रखे जाएं।

निष्पादन में देरी की ओर इशारा करते हुए न्यायालय ने टिप्पणी की,

"यह ध्यान रखना महत्वपूर्ण है कि उपरोक्त निर्णय तथा डिक्री पारित होने के बाद से 16 वर्ष से अधिक समय बीत चुका है तथा यहां डिक्री धारक प्रतिवादी को अभी तक इसका लाभ नहीं मिला है। यदि निर्णय ऋणी याचिकाकर्ताओं ने प्रासंगिक समय पर निर्णय तथा डिक्री का निष्पादन किया होता तो वर्तमान पुनर्विचार याचिका में अब जो स्थिति उत्पन्न हुई है, वह उत्पन्न नहीं होती।"

यह देखते हुए कि याचिकाकर्ताओं ने सुप्रीम कोर्ट के समक्ष विशेष अनुमति याचिका दायर करने पर अपने वकील से पहले ही परामर्श कर लिया, जिसे अव्यवहारिक माना गया था। न्यायालय ने निष्कर्ष निकाला कि पुनर्विचार याचिका में सद्भावनापूर्ण आधारों का अभाव प्रतीत होता है। इसी के मद्देनजर न्यायालय ने समीक्षा याचिका को खारिज कर दिया।

केस टाइटल: जम्मू-कश्मीर राज्य बनाम आबिद हुसैन

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