PMLA में 'बीमार और अशक्त' होना ज़मानत के लिए ऑटोमेटिक पासपोर्ट नहीं, मेडिकल याचिका अपराध की गंभीरता को कम नहीं कर सकती: दिल्ली हाईकोर्ट
दिल्ली हाईकोर्ट ने इस बात पर ज़ोर देते हुए कि पीएमएलए मामलों में "बीमार और अशक्त" होना ज़मानत के लिए स्वतः अनुमति नहीं है, कहा है कि चिकित्सा संबंधी दलील धन शोधन के अपराध की गंभीरता को दरकिनार नहीं कर सकती।
जस्टिस रविंदर डुडेजा ने कहा कि बीमारी के लिए ज़मानत तभी ज़रूरी है जब हिरासत में इलाज स्पष्ट रूप से अपर्याप्त हो।
अदालत ने कहा, "इसलिए, चिकित्सा संबंधी दलील अपराध की गंभीरता, सामाजिक हित और ऐसे मामलों को नियंत्रित करने वाली वैधानिक कठोरता को दरकिनार नहीं कर सकती।"
न्यायाधीश ने प्रवर्तन निदेशालय (ईडी) द्वारा जांच किए जा रहे 27,000 करोड़ रुपये के बैंक धोखाधड़ी मामले में एमटेक समूह के पूर्व अध्यक्ष अरविंद धाम को ज़मानत देने से इनकार करते हुए ये टिप्पणियां कीं।
यह आरोप लगाया गया था कि धाम प्रमुख कंपनियों का अंतिम लाभार्थी मालिक था, 500 से अधिक समूह और मुखौटा संस्थाओं के एक जटिल जाल के माध्यम से नियंत्रण रखता था और धोखाधड़ी वाली योजनाओं को डिज़ाइन और क्रियान्वित करने में केंद्रीय भूमिका निभाता था।
धाम ने ज़मानत मांगते हुए पीएमएलए की धारा 45 के पहले प्रावधान का हवाला देते हुए कहा था कि वह "बीमार और अशक्त" व्यक्ति हैं।
उक्त तर्क को खारिज करते हुए, अदालत ने कहा कि धाम की स्वास्थ्य स्थिति, हालांकि चिंताजनक है, हिरासत में उसका प्रबंधन किया जा सकता है, जहां जेल अधिकारियों का दायित्व है कि वे पर्याप्त उपचार प्रदान करें, जिसमें ज़रूरत पड़ने पर विशेष अस्पतालों में रेफर करना भी शामिल है।
इसके अलावा, न्यायाधीश ने कहा कि प्रवर्तन निदेशालय ने रिकॉर्ड में ऐसी सामग्री पेश की है जिससे पता चलता है कि खातों में हेराफेरी, अचल संपत्तियों का बढ़ा-चढ़ाकर विवरण देना और 500 से ज़्यादा संस्थाओं के ज़रिए धन का लेन-देन करने में धाम की सक्रिय भूमिका थी।
अदालत ने कहा कि ये अलग-थलग या स्वतःस्फूर्त कृत्य नहीं थे, बल्कि वर्षों से जानबूझकर और लगातार चल रहे आपराधिक षड्यंत्र का हिस्सा प्रतीत होते हैं। अदालत ने आगे कहा कि अगर ऐसा आचरण साबित हो जाता है, तो यह आर्थिक अपराध की जटिल प्रकृति का उदाहरण होगा जिसके लिए कड़ी क़ानून प्रवर्तन कार्रवाई की ज़रूरत होगी।
जस्टिस डुडेजा ने यह भी कहा कि अगर ज़मानत दी जाती है, तो अदालत जांच और मुकदमे में हस्तक्षेप की संभावना को नज़रअंदाज़ नहीं कर सकती और इसलिए, धाम की निरंतर हिरासत उचित है।
अदालत ने कहा,
"अर्थव्यवस्था और बैंकिंग क्षेत्र पर पड़ने वाले गंभीर प्रभावों को देखते हुए, ऐसे अपराध जनता के विश्वास को कमज़ोर करते हैं और जमाकर्ताओं व लेनदारों को नुकसान पहुंचाते हैं। ऐसे मामलों में ज़मानत देने में बहुत ज़्यादा ढिलाई बरतने से प्रतिकूल प्रभाव पड़ने का ख़तरा है।"
अदालत ने आगे कहा कि तकनीक और आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस के विकास के साथ, मनी लॉन्ड्रिंग जैसे आर्थिक अपराध देश की वित्तीय व्यवस्था के लिए एक गंभीर ख़तरा बनकर उभरे हैं।
अदालत ने कहा,
"लेन-देन की जटिल और पेचीदा प्रकृति और कई लोगों की संलिप्तता को देखते हुए, ये अपराध जांच एजेंसियों के लिए एक बड़ी चुनौती पेश करते हैं। यह सुनिश्चित करने के लिए एक सावधानीपूर्वक और गहन जांच ज़रूरी है कि निर्दोष लोगों को गलत तरीके से न फंसाया जाए और वास्तविक अपराधियों को न्याय के कटघरे में लाया जाए।"
अदालत ने धाम के इस तर्क को भी खारिज कर दिया कि मुकदमे में देरी के कारण ज़मानत देना उचित है, और कहा कि मामले की जटिलता, लेन-देन की बहुलता और बहुस्तरीय कॉर्पोरेट ढांचे के कारण मुकदमे में लंबी देरी ज़रूरी है।
अदालत ने कहा कि धाम की निरंतर हिरासत स्वतंत्रता का मनमाना हनन नहीं है, बल्कि प्रक्रिया की अखंडता को बनाए रखने के लिए एक आवश्यक उपाय है।
अदालत ने कहा,
"यह भी प्रासंगिक है कि ईडी का मामला केवल संदेह पर आधारित नहीं है, बल्कि व्यापक दस्तावेज़ी साक्ष्य, फोरेंसिक ऑडिट और पीएमएलए की धारा 50 के तहत दर्ज बयानों पर आधारित है। ये सामग्रियां प्रथम दृष्टया आवेदक को कथित धन शोधन योजना में शामिल करती हैं।"
"हालांकि बचाव पक्ष मुकदमे में उनकी स्वीकार्यता और विश्वसनीयता को चुनौती दे सकता है, लेकिन ज़मानत के चरण में उन्हें नज़रअंदाज़ नहीं किया जा सकता। पीएमएलए की धारा 24 के तहत वैधानिक अनुमान अभियुक्त के विरुद्ध है, जिसके तहत उसे अपराध के अनुमान का खंडन करना आवश्यक है। आवेदक ने इस दायित्व का निर्वहन नहीं किया है।"