गंभीर अपराधों में जब साक्ष्य अभियुक्त को अपराध से जोड़ते हों तो ट्रायल में देरी अपने आप में ज़मानत का आधार नहीं हो सकती: दिल्ली हाईकोर्ट
दिल्ली हाईकोर्ट ने कहा कि अभियुक्त के शीघ्र मुकदमे का अधिकार, हालांकि पवित्र है, मगर उन मामलों में कम नहीं किया जा सकता, जहां अभियुक्त के विरुद्ध दोष सिद्ध होने के पर्याप्त साक्ष्य मौजूद हों।
जस्टिस रविंदर दुदेजा ने कहा,
"मुकदमे में देरी, हालांकि खेदजनक है, अपने आप में गंभीर और जघन्य अपराधों से जुड़े मामलों में ज़मानत का आधार नहीं है। खासकर जहां साक्ष्य अभियुक्त को अपराध से जोड़ते हों।"
पीठ एक "भाड़े के हत्यारे" द्वारा दायर ज़मानत याचिका पर विचार कर रही थी। उसके बारे में कहा गया कि उसने पीड़िता को बहला-फुसलाकर एक सुनसान जगह पर ले जाकर गोली मार दी। यह हत्या गांव की रंजिश के कारण हुई थी।
ज़मानत की मांग करते हुए याचिकाकर्ता ने तर्क दिया कि वह 2017 से हिरासत में है और मुकदमे की सुनवाई पूरी हुए बिना छह साल से ज़्यादा समय तक जेल में रहा है।
यह तर्क दिया गया कि संविधान के अनुच्छेद 21 के तहत याचिकाकर्ता के त्वरित सुनवाई के अधिकार का उल्लंघन हुआ है। लंबे समय तक कारावास अपने आप में याचिकाकर्ता को ज़मानत पर रिहा करने का आधार है।
राज्य ने इस आधार पर ज़मानत का विरोध किया कि उसके पास एक ठोस चश्मदीद गवाह है, जिसके साक्ष्य की पुष्टि अभियुक्त के कब्जे से बरामद हथियारों से होती है।
हाईकोर्ट ने कहा कि यह मामला जानबूझकर, पूर्व नियोजित और निर्मम हत्या से जुड़ा है, जिसे षडयंत्र को आगे बढ़ाने के लिए अंजाम दिया गया।
उसका मत है कि ज़मानत एक नियम है और जेल एक अपवाद। हालांकि, अपराध की प्रकृति और गंभीरता, अभियुक्त की भूमिका और जघन्य अपराधों के आरोपी अभियुक्त को रिहा करने का सामाजिक प्रभाव ऐसे प्रासंगिक विचार हैं, जिनकी अनदेखी नहीं की जा सकती।
अदालत ने यह कहते हुए याचिका खारिज की,
"शीघ्र सुनवाई का अधिकार अनुच्छेद 21 के तहत मूल्यवान संवैधानिक संरक्षण होने के बावजूद, इस हद तक नहीं बढ़ाया जा सकता कि यह अभियुक्त के विरुद्ध मौजूद अपराध की भारी परिस्थितियों पर हावी हो जाए।"