अनुशासनात्मक प्राधिकारी की पूर्व स्वीकृति के बिना आरोपपत्र शुरू से ही अमान्य, बाद में इसकी पुष्टि नहीं की जा सकती: दिल्ली हाईकोर्ट

Update: 2025-10-26 17:07 GMT

जस्टिस नवीन चावला और जस्टिस मधु जैन की दिल्ली हाईकोर्ट की खंडपीठ ने कहा कि केंद्रीय सिविल सेवा (CCA) नियम, 1965 के नियम 14(3) के तहत सक्षम अनुशासनात्मक प्राधिकारी की पूर्व स्वीकृति के बिना जारी किया गया आरोपपत्र शुरू से ही अमान्य है, कानून में अस्तित्वहीन है। इसके अलावा, इसे बाद में पुष्टि द्वारा मान्य नहीं किया जा सकता।

पृष्ठभूमि तथ्य

रक्षा मंत्रालय में संयुक्त निदेशक के विरुद्ध कदाचार के आरोपों पर केंद्रीय सिविल सेवा (आचरण) नियम, 1964 के नियम 3(1)(iii) का उल्लंघन करने के आरोप में आरोपपत्र जारी किया गया। यह कार्रवाई उसी निदेशालय में चपरासी द्वारा दर्ज कराई गई शिकायत के आधार पर शुरू की गई। उसने निदेशक पर अपनी बेटी और बहू के साथ अनुचित यौन व्यवहार करने का आरोप लगाया।

जांच के बाद आरोप सिद्ध हो गया। अनुशासनात्मक प्राधिकारी ने पहला दंडात्मक आदेश पारित किया और वेतन वृद्धि रोकने की अनुमति दी। निदेशक ने इस आदेश को केंद्रीय प्रशासनिक न्यायाधिकरण (CAT) में चुनौती दी। न्यायाधिकरण ने दंडात्मक आदेश रद्द कर दिया और मामले को अनुशासनात्मक प्राधिकारी के पास वापस भेज दिया, जिसके परिणामस्वरूप दूसरा दंडात्मक आदेश पारित हुआ। प्राधिकरण ने संयुक्त निदेशक से उप निदेशक के पद में कटौती करके और भी कठोर दंड दिया, जिसे निदेशक ने फिर से चुनौती दी।

बाद में निदेशक को सूचना के अधिकार (RTI) आवेदन से पता चला कि मूल आरोपपत्र में सक्षम अनुशासनात्मक प्राधिकारी, अर्थात् रक्षा राज्य मंत्री, की अनिवार्य पूर्व स्वीकृति का अभाव था। न्यायाधिकरण ने निष्कर्ष निकाला कि आरोपपत्र शुरू से ही कानूनी रूप से अमान्य था।

इससे व्यथित होकर भारत संघ ने एक रिट याचिका के माध्यम से दिल्ली हाईकोर्ट में न्यायाधिकरण के निर्णय को चुनौती दी।

यूओआई द्वारा प्रस्तुत किया गया कि निदेशक को सितंबर, 2019 में अनुमोदन के अभाव के बारे में जानकारी मिली। हालांकि, उन्होंने पहले यह दलील नहीं दी। यह भी तर्क दिया गया कि अनुशासनात्मक कार्यवाही शुरू करने के लिए मामले का एक विस्तृत नोट अनुशासनात्मक प्राधिकारी की स्वीकृति के लिए प्रस्तुत किया गया, जिसे विधिवत स्वीकृत कर दिया गया। यह तर्क दिया गया कि आरोपपत्र के प्रारूप और विषय-वस्तु को स्वीकृति प्राप्त थी। इसलिए उस पर निचले अधिकारी द्वारा 'राष्ट्रपति के आदेशानुसार और उनके नाम से' टिप्पणी के साथ हस्ताक्षर किए गए।

यूओआई ने भारत सरकार के गृह मंत्रालय के 16.04.1969 के ज्ञापन का हवाला देते हुए कहा कि जिन मामलों में अनुशासनात्मक प्राधिकारी माननीय राष्ट्रपति हैं, एक बार जब वे कार्यवाही शुरू करने की स्वीकृति दे देते हैं तो औपचारिक आदेश जारी करने के लिए फ़ाइल को दोबारा दिखाने की कोई आवश्यकता नहीं है।

दूसरी ओर, निदेशक द्वारा यह तर्क दिया गया कि आरोपपत्र में एक भ्रामक टिप्पणी है, जिसमें कहा गया कि यह 'राष्ट्रपति के आदेशानुसार और उनके नाम से' है। यह तर्क दिया गया कि आरटीआई से पता चला है कि आरोपपत्र में सक्षम प्राधिकारी की अनिवार्य स्वीकृति का अभाव है, जो सीसीएस (सीसीए) नियम, 1965 के नियम 14(3) और 14(5) का उल्लंघन है।

निदेशक द्वारा यह भी तर्क दिया गया कि यह भारत संघ द्वारा जानकारी छिपाने का मामला है, इसलिए एस्टोपल और रचनात्मक पुनर्न्यायिकता के सिद्धांत लागू नहीं होंगे। उड़ीसा राज्य एवं अन्य बनाम ब्रुन्दाबन शर्मा एवं अन्य में सुप्रीम कोर्ट के निर्णयों का हवाला देते हुए यह तर्क दिया गया कि किसी भी स्तर पर कार्यवाही में शून्य आदेश की वैधता पर प्रश्न उठाया जा सकता है।

न्यायालय के निष्कर्ष

न्यायालय ने कहा कि 2002 के प्रमाणीकरण नियम केवल यह निर्दिष्ट करते हैं कि राष्ट्रपति की ओर से कौन आदेश पर हस्ताक्षर कर सकता है और यह सीसीएस (सीसीए) नियम, 1965 के नियम 14(3) का उल्लंघन नहीं करता। बी.वी. गोपीनाथ और सनी अब्राहम बनाम भारत संघ एवं अन्य के निर्णय पर भरोसा करते हुए न्यायालय ने इस बात पर ज़ोर दिया कि केवल अनुशासनात्मक प्राधिकारी ही आरोपपत्र को स्वीकृत और जारी कर सकता है। कार्यवाही शुरू करने की स्वीकृति और आरोपपत्र जारी करने की स्वीकृति अलग-अलग चरण हैं और दोनों का पालन किया जाना चाहिए।

यह स्पष्ट किया गया कि नियम 14(3) में "कारण तैयार करने" का अर्थ है कि अनुशासनात्मक प्राधिकारी किसी अधीनस्थ को आरोपपत्र तैयार करने का निर्देश दे सकता है। हालांकि, अनुशासनात्मक प्राधिकारी को ही अंतिम स्वीकृति देनी होगी। न्यायालय ने माना कि आरोपपत्र रक्षा राज्य मंत्री, जो सक्षम प्राधिकारी है, उसकी स्वीकृति के बिना जारी किया गया। इसलिए कानून की नज़र में आरोपपत्र अस्तित्वहीन था।

यह भी माना गया कि जो आरोपपत्र कानूनन अस्तित्व में नहीं है, उसे बाद में कार्योत्तर अनुमोदन द्वारा अनुमोदित नहीं किया जा सकता। यह माना गया कि ज्ञापन वैधानिक नियमों को दरकिनार नहीं कर सकते। अमान्य आरोपपत्र पर की गई कोई भी कार्यवाही स्वतः ही समाप्त हो जाती है।

अशोक लीलैंड लिमिटेड बनाम तमिलनाडु राज्य एवं अन्य के मामले का भी इस बात की पुष्टि के लिए सहारा लिया गया कि अधिकार क्षेत्र के बिना दिए गए आदेश अमान्य हैं और उन्हें एस्टोपल या रेस ज्यूडिकाटा जैसे प्रक्रियात्मक सिद्धांतों द्वारा समर्थित नहीं किया जा सकता।

चूंकि आरोपपत्र में उचित प्राधिकार का अभाव था, इसलिए न्यायाधिकरण के निर्णय में कोई त्रुटि नहीं पाई गई। उपरोक्त टिप्पणियों के साथ भारत संघ द्वारा दायर रिट याचिका को न्यायालय ने खारिज कर दिया।

Case Name : Union of India Through Secretary & Ors. vs. S K Jasra

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