लापता व्यक्तियों का पता लगाने के लिए हैबियस कार्पस रिट जारी नहीं की जा सकती: उड़ीसा हाईकोर्ट

Update: 2023-09-11 12:14 GMT

उड़ीसा हाईकोर्ट ने दोहराया है कि बंदी प्रत्यक्षीकरण (Habeas Corpus) रिट लापता व्यक्तियों' का पता लगाने के लिए जारी नहीं की जा सकती, क्योंकि किसी विशेष व्यक्ति द्वारा अवैध हिरासत को साबित करना उक्त रिट दायर करने से पहले एक पूर्व शर्त है।

जस्टिस संगम कुमार साहू और जस्टिस सिबो शंकर मिश्रा की खंडपीठ ने अपनी बेटी का पता लगाने के लिए रिट जारी करने की प्रार्थना करने वाली याचिकाकर्ता को राहत देने से इनकार कर दिया।

कोर्ट ने कहा ,

“बंदी प्रत्यक्षीकरण का रिट आकस्मिक और नियमित तरीके से जारी नहीं किया जा सकता। हैबियस कार्पस का रिट फेस्टिनम रेमेडियम है और शक्ति का प्रयोग स्पष्ट मामले में किया जा सकता है। बंदी प्रत्यक्षीकरण रिट जारी करने के लिए अवैध कारावास एक पूर्व शर्त है।"

याचिकाकर्ता की बेटी का लंबे समय से पता नहीं चल रहा था, जिसके लिए उन्होंने एफआईआर दर्ज कराई थी। हालांकि, उन्होंने आरोप लगाया कि एफआईआर दर्ज होने के लगभग एक साल बीत जाने के बाद भी पुलिस ने उनकी बेटी का पता लगाने के लिए कोई प्रभावी कदम नहीं उठाया। इस प्रकार उन्होंने बंदी प्रत्यक्षीकरण रिट जारी करने की मांग करते हुए हाईकोर्ट का दरवाजा खटखटाया।

याचिकाकर्ता की ओर से प्रस्तुत दलील को सुनने के बाद न्यायालय ने पूछा कि बंदी प्रत्यक्षीकरण रिट जारी करने की मांग कैसे स्वीकार्य है, क्योंकि मामला 'लापता व्यक्ति' का मामला प्रतीत होता है।

कोर्ट ने कहा,

“यह दिखाने के लिए कोई सामग्री पेश नहीं की गई कि याचिकाकर्ता की बेटी को किसी ने अवैध रूप से हिरासत में लिया है। यह कहने की जरूरत नहीं है कि बंदी प्रत्यक्षीकरण रिट जारी करने की मांग वाली याचिका पर विचार करने से पहले अदालत को 'अवैध हिरासत' के तथ्य के बारे में संतुष्ट होना होगा।''

इसके बाद न्यायालय ने कानून की स्थापित स्थिति पर सुप्रीम कोर्ट के साथ-साथ विभिन्न हाईकोर्ट द्वारा दिए गए कई निर्णयों का हवाला दिया, जिनमें कहा गया कि लापता व्यक्ति के मामलों में बंदी प्रत्यक्षीकरण की रिट जारी नहीं की जा सकती है।

इसमें भारत संघ बनाम युमनाम आनंद एम. उर्फ ​​बोचा उर्फ ​​कोरा उर्फ ​​सूरज और अन्य मामले में शीर्ष अदालत के फैसले का हवाला दिया गया, जिसमें यह माना गया कि आवेदक को प्रथम दृष्टया 'गैरकानूनी हिरासत' का मामला दिखाना होगा। एक बार जब वह ऐसा कोई कारण दिखाता है तो वह अधिकार के रूप में बंदी प्रत्यक्षीकरण रिट दायर करने का हकदार है।

बेंच ने गृह सचिव (जेल) और अन्य बनाम एच. निलोफर निशा मामले में सुप्रीम कोर्ट के फैसले का भी हवाला दिया, जिसमें कहा गया था कि

“भले ही, दायरा बढ़ गया हो, इस रिट की कुछ सीमाएं हैं और ऐसी सीमा का सबसे बुनियादी यह है कि न्यायालय को बंदी प्रत्यक्षीकरण की कोई भी रिट जारी करने से पहले इस निष्कर्ष पर पहुंचना चाहिए कि बंदी बिना किसी अधिकार के कानून की हिरासत में है।"

न्यायालय ने इस मामले में कहा कि याचिकाकर्ता प्रथम दृष्टया किसी व्यक्ति विशेष द्वारा अपनी बेटी को 'गैरकानूनी हिरासत' में रखने का मामला स्थापित नहीं कर सका, बल्कि उसकी ओर से यह प्रस्तुत किया गया कि उसकी बेटी लापता है।

कोर्ट ने आगे कहा,

"यह किसी भी लापता व्यक्ति के संबंध में जारी नहीं किया जा सकता, खासकर तब जब किसी भी नामित व्यक्ति पर उस व्यक्ति की 'अवैध हिरासत' के लिए जिम्मेदार होने का आरोप नहीं लगाया जाता है, जिसे अदालत के समक्ष पेश करने के लिए रिट जारी करने की मांग की गई है।"

तदनुसार, याचिकाकर्ता को अन्य प्रभावी कानूनी उपाय अपनाने की छूट देते हुए याचिका खारिज कर दी गई।

केस टाइटल : निमानंद बिस्वाल बनाम ओडिशा राज्य एवं अन्य।

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