सरकारी खजाने और नौकरी के नए अवसरों पर असर होगा: कर्नाटक हाईकोर्ट ने कॉलेज डीन की सेवानिवृत्ति आयु बढ़ाने की याचिका खारिज की

Update: 2022-06-08 10:35 GMT

Karnataka High Court

कर्नाटक हाईकोर्ट ने कहा है कि लोक सेवकों की सेवानिवृत्ति की आयु के निर्धारण का राज्य के खजाने के साथ-साथ दूसरों के रोजगार के अवसरों पर सीधा असर पड़ता है। इसके मद्देनजर, इसने एक कॉलेज के पूर्व डीन द्वारा दायर रिट याचिका को खारिज कर दिया, जिसमें उन्होंने अपनी नौकरी को 62 साल की बजाय 65 साल की उम्र तक जारी रखने के लिए राज्य सरकार को निर्देश देने की मांग की थी।

जस्टिस कृष्णा एस दीक्षित और जस्टिस पी कृष्णा भट की खंडपीठ ने कहा,

"हमें बार में बताया गया है कि विभिन्न विश्वविद्यालयों और संघटक और संबद्ध कॉलेजों में हजारों कर्मचारी हैं। यदि मांगी गई प्रार्थना को मान लिया जाता है तो ये सभी कर्मचारी तीन साल की अतिरिक्त अवधि के लिए कार्यालय में बने रहेंगे। और अंततः, नई नियुक्तियों के लिए कोई रिक्तियां नहीं होंगी। यह वांछनीय नहीं है। विश्वविद्यालयों/घटक कॉलेजों में शिक्षकों जैसे लोक सेवकों को किस उम्र में सेवानिवृत्त होना चाहिए, यह विशुद्ध रूप से राज्य कार्यकारिणी के क्षेत्र में है, जो वेतन, परिलब्धियां और अंतिम लाभ का खर्च वहन करती है।"

कोर्ट ने कहा,

"इस तरह के मामलों में, कई वित्तीय और अन्य कारक निर्णय लेने की प्रक्रिया में प्रवेश करते हैं और अदालतें इसमें हस्तक्षेप नहीं कर सकती हैं, ऐसे कारकों का मूल्य न्यायिक रूप से प्रबंधनीय मानकों द्वारा मूल्यांकन योग्य नहीं है ... क्या यह विवेकपूर्ण है पुराने खून को बनाए रखना या ताजे खून को मौका दिया जाए, यह राज्य कार्यकारिणी और विश्वविद्यालयों के विवेक पर छोड़ दिया जाए।"

मामला

डॉ चिदानंद पी मंसूर हनुमानमट्टी स्थित कॉलेज ऑफ एग्र‌िकल्चरल साइंसेज में डीन थे। उन्होंने यून‌िवर्सिटी स्टेच्यूट, 1964 के क्लॉज 30 (8) के खिलाफ हाईकोर्ट का दरवाजा खटखटाया था, जिसके तहत सेवानिवृत्ति की आयु 62 वर्ष निर्धारित की गई है। उन्होंने यूजीसी रेगुलेशन, 2018 और दो नंवबर 2017 के केंद्र सरकार के आदेश के अनुसार 65 वर्ष की आयु प्राप्त करने तक सेवा में बने रहने का निर्देश मांगा था।

मंसूर ने पे रीव्यू कमेटी की 2017 की सिफारिशों के संदर्भ में यूजीसी रेगुलेशन, 2018 पर भी भरोसा किया।

गवर्नमेंट एडवोकेट ने कहा कि यूजीसी रेगुलेशन राज्य विधानों के तहत स्थापित कृषि विश्वविद्यालयों के कर्मचारियों के लिए सेवानिवृत्ति की आयु 65 वर्ष निर्धारित नहीं करते हैं; यूजीसी पे पैकेज में भी इन विश्वविद्यालयों को, यदि वो चाहें तो, उक्त आयु को अपनाने का विकल्प दिया जाता है, और प्रतिवादी-विश्वविद्यालय ने सरकारी आदेश, 28 ‌अक्टूबर 2009 के अनुरूप सेवानिवृत्ति की आयु 62 वर्ष निर्धारित की है।

उन्होंने आगे कहा कि सेवानिवृत्ति की आयु सेवा की एक शर्त है और विश्वविद्यालय के कानूनों के प्रावधानों द्वारा रेगुलेट होती है, जो राज्य अधिनियम के प्रावधानों के तहत प्रख्यापित होते हैं। वास्तव में, यूजीसी के रेगुलेशन सेवानिवृत्ति की आयु के निर्धारण को विश्वविद्यालय की इच्छा पर छोड़ देते हैं और यह कि स्थिति होने के नाते, केंद्रीय कानून और राज्य के कानून के बीच विरोध का सवाल भी नहीं उठता है।

निष्कर्ष

सबसे पहले, अदालत ने कहा कि प्रतिवादी-विश्वविद्यालय की स्थापना कृषि विज्ञान विश्वविद्यालय अधिनियम, 1963 (इसके बाद 'राज्य अधिनियम' के रूप में संदर्भित) की धारा 3 के तहत की गई है।

राज्य अधिनियम की धारा 39 कृषि विज्ञान विश्वविद्यालय के कर्मचारियों की सेवा शर्तों को रेगुलेट करने वाले कानूनों को प्रख्यापित करने का प्रावधान करती है। तदनुसार, क़ानून बनाए जाने और संकल्प पारित होने के बाद, सरकारी आदेश दिनांक 28 अक्टूबर 2009 के अनुसार, 62 वर्ष की आयु, स्वीकार्य रूप से, सेवानिवृत्ति की आयु के रूप में निर्धारित की गई है।

इसके अलावा कोर्ट ने कहा कि यूजीसी की सिफारिश के संदर्भ में, केंद्र सरकार ने 31 दिसंबर 2008 के आदेश के तहत "केंद्रीय विश्वविद्यालयों में शिक्षकों" के लिए छठे केंद्रीय वेतन आयोग की सिफारिश का लाभ बढ़ाया। इन्हीं फायदों में से एक है रिटायरमेंट की बढ़ी हुई उम्र यानी 65 साल। इसलिए, ये लाभ उन राज्य विश्वविद्यालयों के कर्मचारियों तक नहीं पहुंचे जो केंद्रीय विश्वविद्यालयों से अलग हैं। ऐसा ही एक आदेश दो नवंबर 2017 को जारी किया गया था। यह वास्तव में राज्य विश्वविद्यालयों के कर्मचारियों पर लागू नहीं होता है और इसलिए, इस मामले को देखने के लिए एक समिति का गठन किया गया था।

सिफारिश 12 पर समिति ने सेवानिवृत्ति की आयु 62 वर्ष से बढ़ाकर 65 वर्ष करने की सिफारिश की। पीठ ने कहा, "इस तरह की सिफारिश उचित नहीं है और इसलिए अपीलकर्ता / याचिकाकर्ता द्वारा इसका कोई समर्थन नहीं लिया जा सकता है, जैसा कि विद्वान सरकारी अधिवक्ता और पैनल अधिवक्ता द्वारा सही तर्क दिया गया।"

कोर्ट ने इस तर्क को भी खारिज कर दिया कि यूजीसी रेगुलेशन और विश्वविद्यालय कानून एक-दूसरे के विरोध में हैं और इसलिए, केंद्रीय कानून होने के कारण बाद में जो राज्य कानून है, उसे रद्द कर दिया जाएगा।

तद्नुसार कोर्ट ने रिट अपील को खारिज कर दिया। हालांकि, यह स्पष्ट किया कि यह निर्णय विश्वविद्यालय समिति की सिफारिश के रास्ते में नहीं आएगा।

केस टाइटल: डॉ चिदानंद पी मंसूर बनाम यूनियन ऑफ इं‌डिया और अन्य

केस नंबर: WA No 100198/2022

साइटेशन: 2022 लाइव लॉ (कर) 196

निर्णय पढ़ने/डाउनलोड करने के लिए यहां क्लिक करें

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