उत्तर प्रदेश सरकार का अध्यादेश अंतर-धार्मिक विवाह के अपराधीकरण के अलावा कुछ भी नहींः इलाहाबाद हाईकोर्ट में याचिकाकर्ता का रिज्वाइंडर
धर्मांतरण के खिलाफ उत्तर प्रदेश सरकार की ओर से पारित विवादास्पद अध्यादेश की संवैधानिक वैधता खिलाफ इलाहाबाद उच्च न्यायालय के समक्ष दायर जनहित याचिका में कहा गया है, "यदि कोई व्यक्ति अपनी पसंद के किसी व्यक्ति से शादी करने के लिए संविधान के अनुच्छेद 25 के तहत प्रदत्त स्वतंत्रता का प्रयोग करता है, और उस प्रक्रिया में, एक साथी विवाह से तुरंत बाद अपना धर्म बदलना चाहता है, तो यह राज्य के लिए चिंता का विषय नहीं होना चाहिए।"
उल्लेखनीय है कि पिछले हफ्ते, सरकार ने यह कहते हुए उक्त अध्यादेश का बचाव किया था कि इसका उद्देश्य गलत बयानी, बल, अनुचित प्रभाव, जबरदस्ती, खरीद-फरोख्त, विवाह आदि द्वारा किए गए गैरकानूनी धर्मांतरण को रोकना है।
सरकार ने एक मुस्लिम व्यक्ति के साथ विवाह के बाद एक हिंदू व्यक्ति द्वारा धर्म परिवर्तन को बलपूर्वक धर्मांतरण के उदाहरण के रूप में पेश किया था, और कहा था कि ऐसे मामले में धर्मांतरण पसंद के कारण नहीं किया जाता है, बल्कि पर्सनल लॉ के हस्तक्षेप के कारण है किया जाता है। ऐसा धर्मांतरण मजबूरी में किया जाता है क्योंकि पर्सनल लॉ ऐसे अंतर-धार्मिक विवाह को अमान्य मानता है।
राज्य के जवाबी हलफनामे पर प्रतिक्रिया देते हुए, याचिकाकर्ताओं में से एक, अधिवक्ता सौरभ कुमार, जिसका प्रतिनिधित्व अधिवक्ता देवेश सक्सेना, शाश्वत आनंद और विशेष राजवंशी ने किया, ने एक लिखित हलफनामा दायर किया है, जिसमें कहा गया है, "उक्त अध्यादेश अंतर-धार्मिक विवाह के अपराधीकरण के लिए कानूनी स्वीकृति के अलावा कुछ भी नहीं है। यह संविधान के अनुच्छेद 21 पर प्रत्यक्ष हमला है, जो व्यक्तिगत स्वतंत्रता और जीवन के अधिकार की गारंटी देता है।"
यह मामला कल यानी 18 जनवरी को मुख्य न्यायाधीश गोविंद माथुर की अगुवाई वाली एक खंडपीठ के समक्ष सुनवाई के लिए सूचीबद्ध किया गया है। अन्य मामले में, इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने पिछले सप्ताह विशेष विवाह अधिनियम के तहत नोटिस के अनिवार्य प्रकाशन को समाप्त करने का फैसला सुनाया, जिससे जोड़ों के लिए बिना किसी भय के विशेष विवाह अधिनियम के तहत विवाह पंजीयन करना आसान हो गया है।
अध्यादेश लव-जिहाद की कॉन्सपिरेसी थियरी को बढ़ावा देता है
उक्त अध्यादेश की प्रस्तावना का हवाला देते हुए, याचिकाकर्ता ने कहा है कि कानून गलत बयानी, बल, अनुचित प्रभाव, जबरदस्ती, खरीद-फरोख्त और धोखाधड़ी के साधनों के साथ किए गए धर्मांतरण और विवाह के बाद धर्मांतरण को एक जैसा मानता है। उन्होंने प्रस्तुत किया कि 'विवाह द्वारा गैरकानूनी धर्मांतरण' निषिद्ध किया गया है।
इसका विरोध करते हुए याचिकाकर्ता ने प्रस्तुत किया, "बलपूर्वक धर्मांतरण के संबंध में राज्य की चिंता समझ में आती है क्योंकि इसमें कई अपराध शामिल हो सकते हैं, जैसे कि गलत कारावास (धारा 342 आईपीसी), धमकी (धारा 506 आईपीसी), अपहरण (धारा 359-369 आईपीसी), हमला (धारा 352 आईपीसी), दैवीय नाराजगी कीधमकी (धारा 508 आईपीसी) आदि। हालांकि तथ्य यह है कि कानून की किताब में पर्याप्त कानून हैं जो अपराध के उन अभियुक्तों को दोषी ठहराने या जबरदस्ती धर्म परिवर्तन से निपटने के लिए पर्याप्त हैं।"
उन्होंने अध्यादेश की धारा 3 के प्रावधान पर भी आपत्ति जताई, जिसमें कहा गया है कि किसी व्यक्ति का अपने पुराने धर्म में "परिवर्तन" गैरकानूनी नहीं है, भले ही यह धोखाधड़ी, बल, खरीद, गलत बयानी से किया गया हो।
याचिकाकर्ता ने कहा, "इस अजीब प्रावधान के माध्यम से, कानून बलपूर्वक धर्मांतरण और सार्वजनिक व्यवस्था के उल्लंघन के अपने ही शातिर सिद्धांतों का खंडन करता है।"
कानून भारतीय महिलाओं के प्रति भेदभावपूर्ण
याचिकाकर्ता ने तर्क दिया कि भले ही तर्क के लिए, यह माना जाता है कि अध्यादेश बलपूर्वक धर्मांतरण के खिलाफ एक कवच है, फिर भी ऐसा कानून भारतीय महिलाओं के लिए "असाधारण रूप से भेदभावपूर्ण" है।
" लव जिहाद की कहानी में हिंदू महिलाएं केवल भोली-भाली पीड़ित हैं....। वयस्क नहीं है, जो अपनी पसंद के अनुसार फैसला करने लिए स्वतंत्र हों, वह अच्छा हो या बुरा। यह एक विचार है, जो सभी पितृसत्तात्मक समाजों को "बहनों और बेटियों" की स्वतंत्रता और यौनिकता पर नियंतत्रण रखने की आवश्यकता को पोषित करता है।"
समुदाय हित और जनता के हितों के बीच भ्रम पैदा करता है
जवाबी हलफनामे में उत्तर प्रदेश सरकार ने कहा था कि 'सामुदायिक हित, उन दो व्यक्तियों के समझौते की तुलना में ज्यादा ऊंचा है, जो विवाह का फैसला करते हैं।'
याचिकाकर्ता ने कहा है कि यह प्रस्ताव संविधान की भावना को उलट देता है और इसका तात्पर्य यह है कि कोई भी दो व्यक्ति अपने विवाह के संबंध में फैसला उस समुदाय की मंजूरी के बिना नहीं कर सकते हैं, जिस समुदाय का वो हिस्सा हैं।
सलामत अंसारी मामले में घोषित कानून की जमीन मजबूत
जवाबी हलफनामे में उत्तर प्रदेश सरकार ने कहा था कि सलामत अंसारी मामले में इलाहाबाद उच्च न्यायालय की एक खंडपीठ के फैसले को अच्छा कानून नहीं माना जा सकता है और इस पर फिर से विचार करने की आवश्यकता है।
इस पर आपत्ति जताते हुए, याचिकाकर्ता ने कहा कि सलामत अंसारी मामले में पारित निर्णय अच्छे कानून का पालन करता है और विभिन्न न्यायिक मिसालों और सुप्रीम कोर्ट के फैसले का समर्थन करता है, और राज्य द्वारा इस निर्णय पर विचार करने की आवश्यकता के लिए कहना गलत है।
सलामत अंसारी में उद्धृत मामले में इस प्रकार हैं:
जस्टिस केएस पुट्टुस्वामी और अन्य बनाम यूनियन ऑफ इंडिया और अन्य, 2017 10 SCC 1 (9-जज बेंच)
शेफिन जहान बनाम असोकन केएन (2018) 16 SCC 368, (3-जज बेंच)
शक्ति वाहिनी बनाम यूनियन ऑफ इंडिया (2018) 7 SCC 192 (3-जज बेंच)
नंद कुमार बनाम केरल राज्य (2018) 16 SCC 602 (डिविजन बेंच)
याचिकाकर्ता ने लविंग बनाम वर्जीनिया के मामले में अमेरिकी सुप्रीम कोर्ट के फैसले पर भरोसा किया है, जिसमें जजों ने 9-0 की सर्वसम्मति से 'अंतर-नस्लीय' विवाह पर प्रतिबंध लगाने वाले कानूनों को खत्म कर दिया था।
अध्यादेश के बाद
उत्तर प्रदेश सरकार ने अपने हलफनामे में दावा किया था कि अध्यादेश को 'लव-जिहाद अध्यादेश' कहना करना गलत है। यह भी दावा किया गया था कि अध्यादेश किसी धर्म विशेष को लक्षित नहीं करता था और यह सभी प्रकार के जबरन धर्मांतरण पर लागू होता था, न कि केवल अंतर- धार्मिक विवाह पर।
याचिकाकर्ता ने हालांकि अदालत में सरकार द्वारा पेश किए गए आंकड़ों की जांच की है।
-अध्यादेश लागू होने के बाद से 86 लोगों को बुक किया है, और उनमें से 79 मुस्लिम हैं।
-सभी 79 पर एक ही आरोप लगाया गया है - कथित रूप से महिला को लुभाने और उन्हें इस्लाम धर्म अपनाने के लिए मजबूर करने का।
-रिकॉर्ड बताते हैं कि उत्तर प्रदेश पुलिस ने 14 मामले दर्ज किए हैं, उनमें 51 गिरफ्तारियां की हैं, जिनमें से 49 जेल में हैं।
-इन 14 मामलों में से 13 में हिंदू महिलाओं को कथित रूप से इस्लाम धर्म स्वीकार करने के लिए दबाव डाला गया है।
-केवल दो मामलों में शिकायतकर्ता खुद महिला है - शेष 12 में शिकायतकर्ता महिला के रिश्तेदार हैं।
- आठ मामलों में, दंपति या तो दोस्त थे या 'रिश्ते' में थे; जबकि एक जोड़ा शादी करने का दावा करता है।
याचिकाकर्ताओं को सुने जाने का अधिकार
उत्तर प्रदेश सरकार ने दावा किया है कि याचिकाकर्ता के पास याचिकाओं को सुने जाने का अधिकार नहीं है।
इसका जवाब देते हुए, यह हलफनामे में प्रस्तुत किया गया है कि न्यायालयों के समक्ष संवैधानिक महत्व के मुद्दों को उठाने के लिए एक एडवोकेट सबसे उपयुक्त है, क्योंकि वे कानून के कारण उत्पन्न स्थिति को गंभीरता से महसूस करने और समझने की स्थिति में हैं।
दलील के लिए हुसैनारा खातून बनाम बिहार राज्य, 1979 AIR SC 1369 पर भरोसा किया गया है, जहां एक अधिवक्ता ने समाचार के आधार बिहार के विभिन्न जेलों में बंद हजारों कैदियों की दुर्दशा पर एक याचिका डाली थी।