वर्तमान प्रणाली के साथ तकनीकी का परस्पर जुड़ाव होना चाहिए; ठोस जिरह को छोड़ विभिन्न प्रक्रियाएं को अभासी माध्यमों से किया जा सकता हैः जस्टिस सूर्यकांत
तमिलनाडु की डॉ अंबेडकर लॉ यूनिवर्सिटी (TNDALU) की ओर से आयोजित एक ऑनलाइन सेमिनार, जिसका विषय- "न्याय की उपलब्धता और न्यायिक सुधार- समकालीन परिप्रेक्ष्य" था, में सुप्रीम कोर्ट के जज, जस्टिस सूर्यकांत ने कहा कि आभासी न्यायालयों को वास्तविक न्यायालयों के अस्थायी प्रतिस्थापन के रूप में नहीं देखना चाहिए, बल्कि तकनीक वर्तमान प्रणाली के साथ जोड़ा जाना चाहिए।
जस्टिस कांत ने कहा कि वास्तविक न्यायालयों के साथ-साथ आभासी न्यायालयों का मिश्रित प्रयोग 'कथित डॉकेट विस्फोट' को हल करने के लिए आदर्श होगा।
उन्होंने कहा, "आभासी न्यायालयों को वास्तविक न्यायालयों के अस्थायी प्रतिस्थापन के रूप में नहीं देखा जाना चाहिए। तकनीकी को वर्तमान प्रणाली के साथ जोड़ा जाना चाहिए। ठोस जिरहों को छोड़कर विभिन्न प्रक्रियाओं को आभासी साधनों के जरिए किया जा सकता है।"
उन विभिन्न पहलुओं पर चर्चा करते हुए, जहां तकनीकी न्याय उपलब्ध करा सकने में मदद कर सकती है, कांत जे ने कहा कि तकनीकी का उपयोग करके क्रिमिनल ट्रायल के विभिन्न चरणों का संचालन किया जा सकता है।
जस्टिस कांत ने कहा, "विशेष न्यायाधिकरण और संवैधानिक अदालतें सुनवाई के लिए विशिष्ट समय तय सकती हैं, इससे उन लोगों की समस्याओं का समाधान किया जा सकता है, जो अदालतों तक नहीं आ सकते हैं।"
जस्टिस कांत ने कहा कि कुछ प्रक्रियाओं में तकनीक का सही उपयोग समय और पैसा बचाने में मदद करेगा, दक्षता में वृद्धि होगी और इस प्रकार, लंबित मामलों को कम करने में मदद मिलेगी। उन्होंने जोर देते हुए कहा कि न्याय की उपब्धता भारतीय संविधान का एक प्रमुख गुण है, जिसे किसी भी कीमत पर नजरअंदाज नहीं किया जा सकता है।
न्याय की उपलब्धता के संबंध में न्यायिक सक्रियता पर जस्टिस कांत ने कहा कि यह एक जटिल मुद्दा है, जिसमें लगातार सुधार की आवश्यकता है। उन्होंने कहा, "यह एक जटिल मुद्दा है, जिसे जादू की छड़ी से हल नहीं किया जा सकता है। ऐसे समय होते हैं, जब कोई मामला हमारे सामने होता है, और हम खुद को रोक नहीं पाते।"
उन्होंने कहा कि जजों को आत्मनिरीक्षण करना चाहिए और किसी मामले का फैसला करते समय बड़ी तस्वीर को देखना चाहिए। "अदृश्य लोगों" के अधिकारों पर विचार किया जाना चाहिए, जो मामले के पक्षकार नहीं हैं, लेकिन जिनके अधिकार मामले के परिणाम के साथ जुड़े हुए हैं, और जजों को विवेक के साथ निर्णय लेना चाहिए। "क्या मैं किसी तीसरे पक्ष से अन्याय कर रहा हूं?" यह जजों के लिए प्रश्न है, जिस पर वह विचार करें।
जस्टिस कांत ने एक मामले का उदाहरण दिया, जिसमें उन्होंने अध्यक्षता की थी। उस मामले में, उन्होंने कहा, उन्होंने यह ध्यान में रखा कि 4 नाबालिग लड़कियों के अधिकार, जो अदालत के समक्ष उपस्थित नहीं थी, उनके परिणाम से भी प्रभावित होंगी। लगभग 5 वर्षों तक चले मामले में नाबालिग लड़कियों के पक्ष में एक अनुकूल आदेश देने के बाद, उन्होंने टिप्पणी की कि "मैं अब खुश हूं कि वे लड़कियां खुश हैं..."
जस्टिस कांत ने कहा कि "न्यायपालिका का मानवीयकरण आवश्यक है। जब आपको एक जज के रूप में अपने कर्तव्यों की याद होती है, तो पर्याप्त न्याय हो सकता है। उच्च न्यायालयों को यह याद रखना चाहिए कि वे संवैधानिक न्यायालय भी हैं।"
पैनल में अन्य वक्ताओं में मद्रास हाईकोर्ट के जस्टिस एमएम सुंदरेश, वरिष्ठ अधिवक्ता वी गिरी और TNDALU के कुलपति प्रोफेसर टीएस शास्त्री शामिल थे।
जस्टिस सुंदरेश ने कानूनी सहायता प्राप्त करने के मुद्दे पर बात की और कहा कि एक अभियुक्त को, प्रक्रिया के प्रारंभिक चरणों में, उसके अधिकारों से अवगत कराया जाना चाहिए, विशेष रूप से कानूनी सहायता के अधिकार के बारे में। उन्होंने लीगल एड पैनलों में काम करने वाले वकीलों की गुणवत्ता बढ़ाने की भी बात की। उन्होंने कहा, "ये कानूनी सहायता की बेहतर गुणवत्ता सुनिश्चित करने की दिशा में यह पहला कदम हैं।"
जस्टिस सुंदरेश ने कहा कि उन स्थानों पर, जहां साक्षरता का स्तर कम है, वहां कम सिविल मामले दायर किए जाते हैं। ये ऐसे स्थान हैं, जहां उचित कानूनी सहायता का प्रावधान, न्याय की उपलब्धता बढ़ाने में मदद कर सकता है।
प्रो शास्त्री ने प्रारंभिक स्तर से कानून के छात्रों में न्याय की गुणवत्तापूर्ण उपलब्धता के मूल्यों को विकसित करने के महत्व पर बात की। उन्होंने कहा कि भविष्य के वकीलों को पेशे के व्यावहारिक ज्ञान से लैस करने के लिए संपूर्ण कानूनी शिक्षा प्रणाली को पुनर्जीवित करने की आवश्यकता है।
सिलेबस में बदलाव की मांग करते हुए, उन्होंने कहा कि "कानून के छात्रों के लिए पाठ्यक्रम को संशोधित किया जाना चाहिए ... वर्तमान पाठ्यक्रम संरचना न्यायिक कामकाज के व्यावहारिक पहलुओं में मदद नहीं करती। व्यावहारिक प्रशिक्षण पर ध्यान केंद्रित करना होगा।"
प्रो शास्त्री ने कहा कि न्याय की उपलब्धता का अर्थ केवल मामलों को दायर करने तक नहीं है, बल्कि त्वरित न्याय है। उन्होंने कहा कि ऐसे 75% से अधिक लंबित मामले हैं, जो एक वर्ष से अधिक समय से लंबित हैं, उन्होंने न्याय की उपलब्धता सुनिश्चित करने के लिए संरचनात्मक परिवर्तन की आवश्यकता पर बल दिया।
सीनियर एडवोकेट वी गिरि ने उपलब्ध न्याय की गुणवत्ता में सुधार के लिए न्यायाधिकरणों की भूमिका पर बात की। उन्होंने कहा कि न्यायाधिकरणों को अदालतों पर दबाव कम करने के लिए बनाया गया है, हालांकि ठोस संवैधानिक सवालों पर उनकी राय अंतिम नहीं होगी।
सीनियर एडवोकेट गिरि ने विवादों के अधिक कुशल समाधान के लिए तकनीकी के उपयोग का प्रयोग करने का समर्थन किया। उन्होंने कहा कि तकनीकी के अधिक उपयोग से, वैकल्पिक विवाद समाधान तंत्र बहुत कम लागत में प्रक्रिया को गति देने में मदद कर सकता है।