सुप्रीम कोर्ट ने रिटरयर्ड जजों की सेवानिवृत्ति के बाद की नियुक्तियों के लिए दो साल के कूलिंग ऑफ पीरियड की मांग वाली जनहित याचिका खारिज की
सुप्रीम कोर्ट ने बुधवार को एक जनहित याचिका को खारिज कर दिया, जिसमें मांग की गई थी कि संवैधानिक अदालत के किसी भी रिटायर्ड जज को राजनीतिक नियुक्ति स्वीकार करने से पहले दो साल की 'कूलिंग ऑफ' अवधि से गुजरना पड़े।
उल्लेखनीय है कि सुप्रीम कोर्ट का यह फैसला, उन आलोचनाओं के मद्देनजर महत्वपूर्ण है, जिनमें कहा जा रहा है कि रिटायर्ड जज सेवानिवृत्ति के बाद चैन की नौकरी स्वीकार कर रहे हैं।
जस्टिस संजय किशन कौल और जस्टिस सुधांशु धूलिया की पीठ बॉम्बे लॉयर्स एसोसिएशन की ओर से "न्यायपालिका की स्वतंत्रता, कानून के शासन और तर्कसंगतता के सिद्धांतों को बनाए रखने" के साथ-साथ "लोकतांत्रिक सिद्धांत और भारतीय संविधान के मूल उद्देश्य को बचाने" के उद्देश्य से दायर याचिका पर सुनवाई कर रही थी।
याचिकाकर्ता ने आरोप लगाया कि जजों द्वारा रिटायरमेंट के बाद कार्यपालिका से राजनीतिक नियुक्तियां स्वीकार करना अनुच्छेद 14, 19 और 21 के तहत निहित मौलिक अधिकारों का उल्लंघन है।
वकीलों के संगठन की ओर से पेश हुए वकील अहमद आब्दी ने पीठ से कहा कि लोगों के मन में यह गलत धारणा कि रिटायरमेंट के बाद सरकार से किसी भी प्रकार की नियुक्त स्वीकार करने वाला जज अपने न्यायिक कार्यकाल के दौरान निर्णयों में पक्षपाती रहा है, बनने से रोकने के लिए इस प्रथा को विनियमित किया जाना चाहिए।
यह पूछे जाने पर कि क्या एसोसिएशन का इरादा इस निषेध को ट्रिब्यूनल और अन्य पदों पर सेवानिवृत्त न्यायाधीशों की नियुक्ति के मामले में लागू करने का है, आब्दी ने तुरंत स्पष्ट किया कि उनकी याचिका केवल "राजनीतिक पदों तक ही सीमित है, जो कार्यपालिका के विवेक पर निर्भर है।"
आब्दी ने कहा,
"कार्यपालिका की ओर से की जाने वाली राजनीतिक पेशकशें मुद्दा हैं। अदालतों में बहुत सारे संवेदनशील मामले आते हैं। इन संवेदनशील मामलों पर निर्णय लेने के बाद, यदि जज अपने रिटायरमेंट के बाद सरकार से नियुक्ति स्वीकार करते हैं, तो जनता पर क्या प्रभाव पड़ता है ? यह मेरा सवाल है। यह हमारी अंतरात्मा को चुभ रहा है क्योंकि हम दिन-ब-दिन इसका सामना करते हैं। हर कोई इस पर सवाल उठा रहा है। हमने यह जनहित याचिका दायर करने के लिए मजबूर महसूस किया क्योंकि हम भी एक तरह से न्यायपालिका का हिस्सा हैं। कूलिंग ऑफ पीरियड होना चाहिए। कई मुख्य न्यायाधीशों ने यह कहा है। यहां तक कि विधि आयोग ने भी..."
इस बिंदु पर जस्टिस कौल ने तीखा जवाब दिया, "तब सरकार को एक कानून बनाने दें।"
उन्होंने कहा कि अदालत एक नया कानून बनाने के लिए संसद को आदेश जारी करने के लिए अपने अनुच्छेद 32 की शक्तियों का इस्तेमाल नहीं कर सकती है। जज ने याचिका में सेवानिवृत्त जज एस अब्दुल नजीर के विशेष उल्लेख पर भी आपत्ति जताई। इस साल की शुरुआत में सेवानिवृत्ति के एक महीने के भीतर ही उन्हें आंध्र प्रदेश का राज्यपाल नियुक्त किया गया था।
वादी के 'सार्वजनिक हित' पर सवाल उठाते हुए जस्टिस कौल ने कहा, "आप नहीं चाहते कि कोई विशेष व्यक्ति राज्यपाल बने। इसलिए आपने यह याचिका दायर की है। आपने यह एक मामला उठाया है।"
आब्दी ने कहा कि याचिका का उद्देश्य एक मामले को अलग करना नहीं था, बल्कि सुप्रीम कोर्ट और हाईकोर्ट के रिटायर्ड जजों के लिए उनके न्यायिक कार्यालय छोड़ने के बाद राजनीतिक नियुक्तियों को स्वीकार करने के लिए दिशानिर्देशों का एक सामान्य सेट बनाना था।
वकील ने अदालत से एक निर्देश जारी करने का अनुरोध किया कि जब तक इस विषय पर कोई कानून नहीं बन जाता, तब तक सरकार सेवानिवृत्ति के बाद राजनीतिक नियुक्तियां स्वीकार करने वाले जजों के लिए दो साल की 'कूलिंग ऑफ' अवधि की शर्त निर्धारित करे।
हालांकि, पीठ जनहित याचिका पर विचार करने से इनकार करने पर अड़ी रही।
जस्टिस कौल ने अपने आदेश में कहा, "लोकसभा के लिए चुनाव, राज्यसभा के लिए नामांकन...इन सब में हम शामिल नहीं हो सकते।"
उन्होंने कहा,
"यह मुद्दा कि क्या एक सेवानिवृत्त जज को कोई पद स्वीकार करना चाहिए, संबंधित जज की बेहतर समझ पर छोड़ देना चाहिए, या एक कानून बनाना होगा, जो संविधान के अनुच्छेद 32 के तहत इस अदालत के निर्देशों का विषय नहीं हो सकता है। याचिका खारिज की जाती है।"
केस डिटेलः बॉम्बे लॉयर्स एसोसिएशन बनाम यूनियन ऑफ इंडिया | डायरी नंबर 23007/2023