राज्य को मानहानि के मामलों में साधारण नागरिक की तरह आवेगात्मक नहीं होना चाहिएः मद्रास हाईकोर्ट ने रद्द किए एन राम और अन्य के खिलाफ दायर मानहानि के मामले
प्रेस की स्वतंत्रता के महत्व को रेखांकित करते हुए एक महत्वपूर्ण फैसले में मद्रास हाईकोर्ट ने बुधवार को संपादक-पत्रकार एन राम,एडिटर-इन-चीफ, दि हिंदू, सिद्धार्थ वरदराजन, नक्कीरन गोपाल आदि के खिलाफ दायर आपराधिक शिकायतों को खारिज कर दिया। इन सभी के खिलाफ 2012 में तमिलनाडु के तत्कालीन मुख्यमंत्री जे जयललिता के खिलाफ कुछ रिपोर्टों के मामले में "राज्य के खिलाफ आपराधिक मानहानि" का आरोप लगाते हुए शिकायत दर्ज की गई थी।
शिकायत में कहा गया था कि रिपोर्ट राज्य सरकार के एक पदाधिकारी की मानहानि के बराबर है। लोक अभियोजक ने दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 199 (2) के तहत सत्र न्यायालय के समक्ष शिकायतें दायर की थीं। धारा 199 (2) सीआरपीसी भारतीय दंड संहिता की धारा 499/500 के तहत राज्य / संवैधानिक पदाधिकारियों के खिलाफ मानहानि के अपराधों के लिए एक विशेष प्रक्रिया का निर्धारण करती है।
मौजूदा मामले में लोक अभियोजक ने राज्य की ओर से सत्र न्यायालय शिकायत दायर की थी। सामान्य रूप से मजिस्ट्रेट कोर्ट के समक्ष सामान्य मानहानि के मुकदमे दायर किए जाते हैं। हाईकोर्ट में दायर रिट याचिकाओं में उन सरकारी आदेशों की संवैधानिक वैधता को चुनौती दी गई थी, जिनके तहत सरकारी अभियोजक को रिपोर्टों के संबंध में धारा 199 (2) सीआरपीसी के तहत शिकायत दर्ज करने की मंजूरी दी गई।
जस्टिस अब्दुल कुद्धोज की पीठ ने कहा कि राज्य के लिए, निजी पक्षों की तुलना में, नागरिकों के खिलाफ आपराधिक मानहानि शुरू करने की उच्च मानदंड हैं।
कोर्ट ने 152-पृष्ठ के फैसले में कहा, "आपराधिक मानहानि कानून आवश्यक मामलों में एक प्रशंसनीय कानून है, लोक सेवक/संवैधानिक पदाधिकारी अपने प्रतिद्वंद्वी के खिलाफ राज्य के जरिए इसका इस्तेमाल अपनी खुन्नस के लिए नहीं कर सकते। लोक सेवकों/ संवैधानिक पदाधिकारियों को आलोचना का सामना करने में सक्षम होना चाहिए। ....राज्य आपराधिक मानहानि के मामलों का उपयोग लोकतंत्र को कुचलने नहीं कर सकता है।"
कोर्ट ने कहा कि राज्य को आलोचना के मामलों में उच्च सहिष्णुता का प्रदर्शन करना चाहिए, और मुकदमे शुरु करने के लिए "आवेगात्मक" नहीं हो सकता है।
"राज्य को मानहानि के मामलों में एक आम नागरिक की तरह आवेगी नहीं होना चाहिए और लोकतंत्र को कुचलने के लिए धारा 199 (2) सीआरपीसी को लागू नहीं करना चाहिए। केवल उन्हीं मामलों में जहां पर्याप्त सामग्री हो और जब धारा 199 (2) सीआरपीसी के तहत अभियोजन अपरिहार्य है, उक्त प्रक्रिया को लागू किया जा सकता है।"
राज्य की तुलना "अभिभावक" से करते हुए कोर्ट ने कहा, "जहां तक मानहानि कानून का संबंध है, राज्य सभी नागरिकों के लिए अभिभावक की तरह है। अभिभावकों के लिए अपने बच्चों की ओर से अपमान का सामना करना सामान्य है। अपमान के बावजूद, माता-पिता अपने बच्चों को आसानी से नहीं छोड़ते। दुर्लभ मामलों में ही ऐसा होता है जब बच्चों का चरित्र और व्यवहार गैरकानूनी हो जाता है, और माता-पिता ने उन्हें छोड़ देते हैं।
हाईकोर्ट ने अपने आदेश में जस्टिस दीपक गुप्ता, पूर्व जज, सुप्रीम कोर्ट, और जस्टिस डीवाई चंद्रचूड़, जज, सुप्रीम कोर्ट के हालिया भाषणों का हवाला भी दिया था, जिसमें उन्होंने लोकतंत्र में असंतोष के महत्व पर रोशनी डाली थी और विरोध की आवजों को कुचलने के लिए आपराधिक कानूनों का इस्तेमाल की बढ़ती प्रवृत्ति की आलोचना की थी।
कोर्ट ने डॉ सुब्रमण्यम स्वामी बनाम यूनियन ऑफ इंडिया मामले में सुप्रीम कोर्ट द्वारा आपराधिक मानहानि के उपयोग के लिए तय सिद्धांतों का उल्लेख किया। याचिकाकर्ताओं ने भारतीय दंड संहिता की धारा 499/500 की संवैधानिक वैधता को भी चुनौती दी थी, हालांकि हाईकोर्ट ने उस पहलू पर विचार नहीं किया, क्योंकि 2016 में सुब्रमण्यम स्वामी मामले में सुप्रीम कोर्ट इसकी वैधता पर विचार कर चुका था।
दो हफ्ते पहले, मद्रास हाईकोर्ट ने इकोनॉमिक टाइम्स के एक संपादक और रिपोर्टर के खिलाफ आपराधिक मानहानि की कार्यवाही को रद्द कर दिया था और कहा था कि मात्र रिपोर्टिंग में गलतियां मानहानि का आधार नहीं हो सकती हैं।
धारा 199 (2) के तहत सत्र न्यायालय द्वारा जांच का स्तर
आंकड़ों की जांच करने के बाद कोर्ट ने कहा कि वर्ष 2012 से 2020 तक विभिन्न सत्र न्यायालयों में 226 मामले लंबित है। सत्ता में कोई भी राजनीतिक दल रहा हो, धारा 199 (2) सीआरपीसी के तहत मामले दर्ज किए गए हैं। अदालत ने कहा कि धारा 199 (2) सीआरपीसी के तहत शिकायतों के यांत्रिक दाखिले के कारण, कभी-कभी सत्र न्यायालयों में मुकदमो की भरमार हो जाती है।
इस पृष्ठभूमि में, कोर्ट ने सत्र न्यायाधीशों को याद दिलाया कि उन्हें राज्य द्वारा दायर आपराधिक मानहानि की शिकायतों के संबंध में उच्च स्तर की जांच करनी चाहिए।
लोक अभियोजक पोस्ट ऑफिस की तरह काम नहीं कर सकते
न्यायालय ने कहा कि लोक अभियोजक को राज्य के निर्देशों पर शिकायत दर्ज करने के लिए "डाकघर" की तरह काम नहीं करना चाहिए, और शिकायत दर्ज करने से पहले स्वतंत्र रूप से आरोपों की जांच करनी चाहिए।
मानहानि के तत्व गायब हैं
न्यायालय ने उल्लेख किया कि धारा 199 (2) सीआरपीसी के तहत सरकारी वकील के जरिए मुकदमा चलाने के लिए आवश्यक मुख्य तत्व अर्थात् "राज्य की मानहानी" ही गायब होता है। सभी मामलों में, सरकारी वकील को मुकदमे की स्वीकृति प्रदान करते समय, संबंधित अनुमोदन आदेश इस मसले पर पूरी तरह चुप रहता है कि क्या राज्य को लोकसेवक / संवैधानिक पदाधिकारी उसके सार्वजनिक कार्यों के निर्वहन के दौरान के कथित मानहानि के आधार पर बदनाम किया गया है।
मीडिया को आत्म-नियमन करना चाहिए
कोर्ट ने मीडिया को आत्म-नियमन का महत्व समझाते हुए कहा-
"हमारे राष्ट्र ने हमेशा मीडिया की भूमिका का सम्मान किया है। उनकी स्वतंत्रता और सच्ची रिपोर्टिंग को सर्वोच्च सम्मान दिया गया है। लेकिन बीते कई वर्षों से मीडिया सहित लोकतंत्र के हर क्षेत्र में क्षरण हो रहा है। अगर इसे जल्द से जल्द खत्म नहीं की गई तो यह आग की तरह फैल जाएगाी, जिससे हमारे लोकतंत्र को भारी नुकसान होगा। "
केस का विवरण
टाइटल: थिरु एन राम, एडिटर-इन-चीफ, "द हिंदू" बनाम यूनियन ऑफ इंडिया और जुड़े मामले
कोरम: जस्टिस अब्दुल कुद्धोज
प्रतिनिधित्व: वरिष्ठ अधिवक्ता पीएस रमन, आई। सुब्रमण्यन, अधिवक्ता पीटी पेरुमल, प्रशांत राजगोपाल, एस. एलम्भारती, एम स्नेहा, पी कुमारेसन, बीके गिरिश नीलकांतन ( याचिकाकर्ताओं के लिए)।
मदन गोपाल राव, केंद्र सरकार की ओर से, एसआर राजगोपालन, अतिरिक्त महाधिवक्ता, साथ में अधिवक्ता के रविकुमार।
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