‘जीवनसाथी की लाइलाज मानसिक बीमारी के कारण गैरजिम्मेदाराना, हिंसक व्यवहार जीवन को नरक बना देता है’: पंजाब एंड हरियाणा हाईकोर्ट ने पति की तलाक याचिका को अनुमति दी
पंजाब एंड हरियाणा हाईकोर्ट ने हाल ही में एक व्यक्ति की तलाक की याचिका को स्वीकार करते हुए कहा है कि जब एक पति या पत्नी को एक ऐसी लाइलाज मानसिक बीमारी होती है, जो ‘‘गैर जिम्मेदाराना और हिंसक व्यवहार की ओर ले जाती है, तो यह निश्चित रूप से पीड़ित पति या पत्नी के जीवन को एक जीवित नरक बना देती है।’’
ट्रायल कोर्ट के निष्कर्षों को खारिज करते हुए (जिसने तलाक के लिए पति की याचिका को खारिज कर दिया था) जस्टिस रितु बाहरी और जस्टिस दीपक गुप्ता की खंडपीठ ने कहा कि ट्रायल कोर्ट उसकी पत्नी के मानसिक स्वास्थ्य पर चिकित्सा साक्ष्य की सराहना करने में विफल रहा है।
अदालत ने कहा,
‘‘पीडब्ल्यू-3 और पीडब्ल्यू-5 दोनों डॉक्टरों ने स्पष्ट रूप से कहा है कि प्रतिवादी की मनोवैज्ञानिक समस्या हालांकि इलाज योग्य थी लेकिन साध्य नहीं है। इससे पता चलता है कि उक्त मानसिक बीमारी / समस्या प्रतिवादी के साथ जीवन भर बनी रहेगी और उसे इससे छुटकारा नहीं मिलेगा। याचिकाकर्ता अपने पूरे विवाह के दौरान सांत्वना की तलाश नहीं करेगा। यह कोई ऐसी बीमारी नहीं है, जिसमें इलाज के बाद समय बीतने के साथ प्रतिवादी ठीक हो जाएगी। याचिकाकर्ता और उसके परिजनों के खिलाफ प्रतिवादी के इस तरह के एक तर्कहीन और अनुचित आचरण की निरंतरता उसके दांपत्य संबंध के दौरान निश्चित रूप से याचिकाकर्ता के लिए अत्यधिक पीड़ा और दर्द का एक निरंतर स्रोत बन जाएगी।’’
यह भी कहा कि चिकित्सकीय साक्ष्य ने पति के इस बयान का समर्थन किया है कि उसकी पत्नी मानसिक बीमारी से पीड़ित है और इस तरह उसका व्यवहार उसके और उसके परिवार के प्रति अच्छा नहीं था और बच्चे के जन्म के बाद उसका व्यवहार और अधिक हिंसक हो गया।
अदालत ने कहा,
‘‘प्रतिवादी ने वैवाहिक दायित्वों को निभाने से इनकार कर दिया। उसने बच्चे की देखभाल करना भी बंद कर दिया। प्रतिवादी ने भी यह स्वीकार किया है कि वह अवसाद से पीड़ित है। हालांकि, उसने कहा कि याचिकाकर्ता और उसके परिवार के सदस्यों ने उसके साथ क्रूर व्यवहार किया है क्योंकि वह उसे ज्यादा दहेज लाने और उसके पिता की संपत्ति में हिस्सा लेने के लिए मजबूर कर रहे थे और इसी क्रूर व्यवहार के कारण उसे मानसिक अवसाद हो गया। अन्यथा उसे कोई मानसिक बीमारी नहीं है। उसने यह भी स्वीकार किया कि अवसाद के कारण वह इलाज कराती रही है। प्रतिवादी की ओर से यह स्वीकारोक्ति भी याचिकाकर्ता के आरोपों का समर्थन करने के लिए एक लंबा रास्ता तय कर चुकी है।’’
अतिरिक्त जिला न्यायाधीश अमृतसर ने पहले भी हिंदू विवाह अधिनियम, 1955 की धारा 13 (1) (i-a) के तहत क्रूरता के कथित आधार पर शादी को भंग करने के लिए पति की तरफ से दायर याचिका को खारिज कर दिया था।
याचिकाकर्ता के अनुसार, उसकी शादी 2011 में हुई थी और शादी के लगभग चार महीने बाद उसने देखा कि उसकी पत्नी का व्यवहार ‘‘सामान्य नहीं था।’’ उसने आरोप लगाया कि बच्चे के जन्म के बाद उसका व्यवहार ‘अधिक उग्र’ होने लगा। उसने प्रस्तुत किया कि उसने खुद को और परिवार के अन्य सदस्यों को मारने की धमकी भी दी। वहीं उसे और उसके परिवार के सदस्यों को झूठे आपराधिक मामलों में फंसाने की धमकी भी दी थी।
यह कहते हुए कि वह एक लाइलाज मानसिक बीमारी से पीड़ित है, पति ने तर्क दिया कि उसने उसे शारीरिक संबंध बनाने की अनुमति भी नहीं दी और जब भी वह उसके लिए आगे बढ़ता, वह पुलिस की धमकी देती थी। उसने नाबालिग बच्चे की भी देखभाल नहीं की।
अदालत के समक्ष यह भी तर्क दिया गया कि,
‘‘प्रतिवादी द्वारा दी गई मानसिक प्रताड़ना इस हद तक है कि वह आत्महत्या करने के बारे में सोचने लगा, लेकिन बच्चे की खातिर वह ऐसा नहीं कर सका। याचिकाकर्ता और उसके परिवार के सदस्य प्रतिवादी के कारण बेहद मानसिक तनाव से गुजर रहे हैं।’’
इसलिए, याचिकाकर्ता ने निचली अदालत के आक्षेपित आदेश को इस आधार पर चुनौती दी थी कि डॉक्टरों के विशेषज्ञ साक्ष्य से यह साबित होता है कि उनकी पत्नी असाध्य मानसिक बीमारी से पीड़ित है और उस पर अदालत द्वारा विचार नहीं किया गया था।
उनके सभी आरोपों से इनकार करते हुए, प्रतिवादी ने कहा कि दहेज की मांग के संबंध में याचिकाकर्ता द्वारा उसे परेशान और अपमानित किया गया था।
खंडपीठ ने कहा कि ट्रायल कोर्ट ने पाया है कि प्रतिवादी-पत्नी यह स्थापित करने में विफल रही है कि याचिकाकर्ता और उसके परिवार के सदस्यों ने कभी दहेज की मांग पर या उसके पिता की संपत्ति से हिस्सा लेने के लिए उसके साथ क्रूरता की थी। ट्रायल कोर्ट ने यह भी कहा था कि वह यह साबित करने में विफल रही है कि उसके पति और उसके परिवार के सदस्यों ने उसके दहेज के सामान का गलत इस्तेमाल किया।
पीठ ने कहा,‘‘इन निष्कर्षों के सामने, प्रतिवादी का यह कथन कि उसके साथ हुई क्रूरता के कारण, वह मानसिक अवसाद में चली गई है, झूठा प्रतीत होता है। यह याचिकाकर्ता के इस बयान को सही दर्शाता है कि प्रतिवादी मानसिक बीमारी से पीड़ित है। उपरोक्त साक्ष्यों के मद्देनजर, यह देखा गया है कि प्रतिवादी द्वारा किए गए वैवाहिक कदाचार के बारे में लगाए गए आरोपों के संबंध में याचिकाकर्ता के खिलाफ फैसला सुनाते हुए निचली अदालत ने गलती की है।’’
अदालत ने कहा कि याचिकाकर्ता ने पहले भी तलाक की याचिका दायर की थी, लेकिन अपने वैवाहिक जीवन को दूसरा मौका देने के लिए, उसने प्रतिवादी के साथ इस मामले में समझौता किया, इस तथ्य के बावजूद कि उसने उसके और उसके परिवार के सदस्यों के खिलाफ एक आपराधिक मामला दायर कर दिया था।
अदालत ने कहा,‘‘याचिकाकर्ता ने विशेष रूप से गवाही दी है कि समझौते के बाद प्रतिवादी का व्यवहार नहीं बदला और उसने अपने बुरे व्यवहार को जारी रखा। दोषी जीवनसाथी द्वारा बुरे व्यवहार की निरंतरता, जिसे एक बार दूसरे जीवनसाथी द्वारा इस वादे और आश्वासन पर माफ कर दिया गया था कि ऐसा व्यवहार दोहराया नहीं जाएगा, क्षमा का मामला नहीं बनेगा। प्रतिवादी ने अपने बयान में स्वीकार किया है कि वर्तमान तलाक याचिका दायर करने के बाद, उसने याचिकाकर्ता-पति के खिलाफ दहेज की मांग का एक आपराधिक मामला दायर किया है। यह फिर से याचिकाकर्ता के खिलाफ प्रतिवादी की ओर से क्रूरता का एक कार्य है।’’
‘क्रूरता’ के आधार पर तलाक की याचिका को स्वीकार करते हुए, अदालत ने कहा कि मुकदमेबाजी के दौरान पक्षों के बीच सात साल का लंबा अलगाव यह दर्शाता है कि पक्षकारों के बीच विवाह एक डेडवुड बन गया है और पक्षकारों के बीच आई कड़वाहट के कारण मरम्मत से परे है।
पीठ ने कहा,‘‘शादी पहले ही पक्षकारों के बीच मर चुकी है, जिसे अदालत के फैसले से पुनर्जीवित नहीं किया जा सकता है। इतना लंबा अलगाव पक्षकारों के बीच एक न भरने वाली दूरी पैदा करने के लिए बाध्य है और जोड़े के लिए मानसिक क्रूरता का एक निरंतर स्रोत होगा। पक्षकारों को वैवाहिक जीवन जीने के लिए बाध्य करने का कोई उद्देश्य प्रतीत नहीं होता है। इस तरह के एक अव्यावहारिक विवाह के संरक्षण का परिणाम, जो लंबे समय से प्रभावी नहीं रहा है, पक्षकारों के लिए बहुत बड़े दुख का स्रोत बनना तय है।’’
केस टाइटल- अजय मेहरा बनाम गौरी
साइटेशन-एफएओ-एम-193-2018 (ओ-एम)
कोरम- जस्टिस रितु बाहरी और जस्टिस दीपक गुप्ता
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