तलाक की डिक्री पर रोक के दौरान दूसरा विवाह करना : बाद में अपील खारिज होने पर आईपीसी की धारा 494 के तहत कोई अपराध नहीं बनताः केरल हाईकोर्ट

Update: 2021-09-28 07:15 GMT

केरल हाईकोर्ट

केरल हाईकोर्ट ने माना है कि यदि कोई पक्ष उस समय दूसरी शादी कर लेता है, जब पहली शादी के तलाक की डिक्री की अपील लंबित हो, तो वह भारतीय दंड संहिता(आईपीसी) की धारा 494 के तहत द्विविवाह के अपराध का दोषी नहीं होगा, अगर बाद में तलाक की अपील खारिज हो जाती है।

द्विविवाह का आरोप लगाने वाली शिकायत को रद्द करने की मांग करते हुए दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 482 के तहत दायर एक याचिका को अनुमति देते हुए, अदालत ने फैसला सुनाया कि हिंदू विवाह अधिनियम की धारा 15 हिंदू विवाह अधिनियम की धारा 28 को ओवरराइड नहीं करती है, जो अपील का अधिकार प्रदान करती है।

न्यायमूर्ति पी. सोमराजन ने आपराधिक मिश्रित याचिका को अनुमति देते हुए कहा किः

''एक बार जब अपील फैमिली कोर्ट के तलाक की डिक्री की पुष्टि करते हुए खारिज कर दी जाती है, तो यह अधिनियम की धारा 15 के तीसरे अवयव के तहत आ जाएगी, भले ही शादी अपील की प्रस्तुति से पहले या अपील के समापन से पहले की गई हो।''

यह टिप्पणी उस मामले में की गई है,जिसमें एक महिला ने आरोप लगाया था कि तलाक की डिक्री के खिलाफ अपील के लंबित रहने के दौरान उसके पति ने दूसरी शादी कर ली।

तदनुसार उस व्यक्ति/पति के खिलाफ आईपीसी की धारा 494,114 रिड विद 34 के तहत अपराधों के लिए मामला दर्ज किया गया था। इसी शिकायत को रद्द करने की मांग करते हुए इस व्यक्ति ने हाईकोर्ट का दरवाजा खटखटाया।

याचिकाकर्ता ने दूसरी शादी फैमिली कोर्ट द्वारा तलाक की डिक्री देने के बाद की थी, परंतु उस समय एक अपील लंबित थी और कोर्ट ने तलाक की डिक्री पर रोक लगा रखी थी।

अदालत के सामने सवाल यह था कि क्या आईपीसी की धारा 494 और 114 के तहत अपराध उस समय आकर्षित होगा जब पहली शादी के तलाक की डिक्री के बाद लेकिन उसकी अपील के समापन से पहले दूसरी शादी कर ली गई हो?

द्विविवाह के अपराध पर विचार करने के बाद ,न्यायालय ने अपराध का गठन करने के लिए आवश्यक वैधानिक पूर्व-आवश्यकताएं निर्धारित कीः

(1) आरोपी ने पहली शादी का अनुबंध किया हो

(2) उसने दोबारा शादी कर ली हो

(3) पहली शादी अभी जारी हो

(4) पति/पत्नी जीवित होना चाहिए

इसके अतिरिक्त, गोपाल लाल बनाम राजस्थान राज्य (एआईआर 1979 (एससी)713) में दिए गए आदेश के अनुसार, दूसरा विवाह पहले पति या पत्नी के जीवनकाल में होने के कारण अमान्य माना जाना चाहिए।

कोर्ट ने यह भी कहा कि हिंदू विवाह अधिनियम की संशोधित धारा 15 उस चरण से संबंधित है जिसमें एक तलाकशुदा व्यक्ति दूसरी शादी में वैध रूप से प्रवेश कर सकता है।

इसमें कहा गया है कि विवाह भंग की डिक्री के बाद या तो अपील करने का अधिकार नहीं है या यदि ऐसा अधिकार है और अपील प्रस्तुत किए बिना ही अगर अपील करने का समय समाप्त हो गया है या अपील प्रस्तुत की गई है, लेकिन खारिज कर दी गई है, तो विवाह के दोनों पक्षकारों में से कोई भी फिर से विवाह कर सकता है,जो वैध होगा।

तत्काल मामले में, हालांकि पति ने स्थगन आदेश के दौरान ही दूसरी शादी कर ली थी, परंतु बाद में तलाक की डिक्री की पुष्टि करते हुए अपील खारिज कर दी गई थी।

अदालत ने फैसला सुनाया कि ऐसी परिस्थितियों में, विलय का सिद्धांत लागू हो जाएगा और फैमिली कोर्ट की डिक्री अपीलीय डिक्री में विलय हो जाएगी। इसलिए, डिक्री प्रथम अपीलीय डिक्री की तारीख से नहीं, बल्कि फैमिली कोर्ट द्वारा दी गई तलाक की डिक्री की तारीख से लागू होगी।

''अपील में पुष्टि की गई तलाक की डिक्री फैमिली कोर्ट के तलाक की मूल डिक्री की तारीख से प्रभावी होगी और अपीलीय डिक्री फैमिली कोर्ट के तलाक के डिक्री की तारीख पर वापस आ जाएगी।''

कोर्ट ने लीला गुप्ता बनाम लक्ष्मी नारायण और अन्य (एआईआर 1978 एससी 1351) के मामले में सर्वोच्च न्यायालय द्वारा दिए गए निर्णय को भी संदर्भित किया।

यह भी कहा गया कि फैमिली कोर्ट के तलाक के डिक्री की पुष्टि करने वाली अपील खारिज होने के बाद, यह अधिनियम की धारा 15 के तीसरे अवयव के तहत आ जाएगी, भले ही शादी अपील की प्रस्तुति से पहले या अपील के समापन से पहले की गई हो।

अतः ऐसे मामलों में भारतीय दंड संहिता की धारा 494 के तहत अपराध आकर्षित नहीं होगा।

''अपील में तलाक की डिक्री की पुष्टि होने के कारण, पहला विवाह फैमिली कोर्ट की डिक्री की तारीख से भंग हो जाएगा और उसके बाद यह नहीं कहा जा सकता है कि आईपीसी की धारा 494 के उद्देश्य के लिए एक विवाह संबंध या एक जीवित पति या पत्नी मौजूद है।''

याचिका को स्वीकार करते हुए, न्यायालय ने माना कि आईपीसी की धारा 114 के तहत आरोपित अपराध तब आकर्षित नहीं होगा जब आईपीसी की धारा 494 के तहत मुख्य आधार निष्क्रिय और गैर-स्थायी हो जाएगा।

इसलिए, आईपीसी की धारा 494, 114 रिड विद 34 के तहत अपराध के लिए लिया गया संज्ञान कानून की नजर में मान्य नहीं है और इसे रद्द किया जाता है।

याचिकाकर्ता का प्रतिनिधित्व अधिवक्ता पीके प्रिया और मोनसी फ्रांसिस ने किया। प्रतिवादियों की ओर से अधिवक्ता एम.एस. लेथा, रजित और सरकारी वकील नौशाद के.ए. पेश हुए।

केस का शीर्षक- मनोज बनाम केरल राज्य व अन्य

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