मुस्लिम कानून के तहत दूसरी शादी मान्य है, परंतु इसे पहली पत्नी के खिलाफ क्रूरता माना जा सकता है : कर्नाटक हाईकोर्ट
एक महत्वपूर्ण निर्णय में, कर्नाटक हाईकोर्ट की कालाबुरागी पीठ ने कहा है कि भले ही मुस्लिम पति द्वारा दूसरी शादी करना कानूनन वैध है, लेकिन यह अक्सर पहली पत्नी के लिए ''बड़ी क्रूरता'' का कारण बनती है और तलाक के लिए उसके दावे को सही ठहराती है।
न्यायमूर्ति कृष्णा एस दीक्षित और न्यायमूर्ति पी कृष्णा भट की खंडपीठ ने स्पष्ट किया है कि क्रूरता एक बहुत ही व्यक्तिपरक अवधारणा है और इसका गठन करने वाला आचरण ''अनिश्चित रूप से परिवर्तनशील'' है।
पीठ ने कहा कि
''केवल इसलिए कि एक कार्य वैध है, यह विवाहित जीवन में न्यायसंगत नहीं बन जाता है, उदाहरण के लिए, निश्चित रूप से अपवादों को छोड़कर सभी के लिए धूम्रपान और शराब गैरकानूनी नहीं है, खर्राटे भरना भी नहीं,लेकिन फिर भी कुछ परिस्थितियों में यह एक संवेदनशील पति या पत्नी के प्रति क्रूरता बन जाते हैं। उसी सादृश्य के आधार ,भले ही एक मुस्लिम द्वारा दूसरी शादी करना कानूनन वैध हो सकता है, लेकिन यह अक्सर पहली पत्नी के प्रति बड़ी क्रूरता का कारण बन जाती है और उसके तलाक मांगने के दावे को सही ठहराती है।''
कोर्ट ने यह टिप्पणी एक मुस्लिम पति की तरफ से दायर अपील पर फैसला सुनाते हुए की हैं। यह अपील फैमिली कोर्ट के फैसले के खिलाफ दायर की गई थी।
फैमिली कोर्ट ने क्रूरता के आधार पर पहली पत्नी के साथ उसकी शादी को भंग करने का आदेश दिया था।
फैमिली कोर्ट के आदेश को बरकरार रखते हुए हाईकोर्ट ने मुंशी बाजलोर रूहेम बनाम शमसुरनिसा बेगम, 11 एमआईए 551 मामले में एक प्रिवी काउंसिल द्वारा दिए गए फैसले पर भरोसा किया। इस फैसले के तहत माना गया था किः
''आज के समय में,यह दायित्व दूसरी शादी करने वाले पति पर होता है कि वह यह समझाए और बताए कि कैसे दूसरी शादी करने से उसकी पहली पत्नी का कोई अपमान नहीं होगा या उसके प्रति कोई क्रूरता नहीं होगी। अगर वह इस तरह का कोई स्पष्ट स्पष्टीकरण नहीं दे पाता है ,तो अदालत आधुनिक परिस्थितियों के तहत यह मान लेगी कि पति द्वारा दूसरी शादी करने से पहली पत्नी के प्रति क्रूरता हुई है। ऐसे में न्यायालय द्वारा पहली पत्नी को उसकी मर्जी के खिलाफ ऐसे पति के साथ रहने पर मजबूर करना न्याय के विरूद्ध होगा।''
इस मामले में अपीलकर्ता-पति ने दलील दी थी कि उसने अपने माता-पिता के दबाव में दूसरी शादी की थी। हालांकि, हाईकोर्ट ने प्रिवी काउंसिल के फैसले को देखने के बाद कहा कि-
''अपीलकर्ता अपनी इस दलील को साबित करने में विफल रहा है कि मौजूदा वैवाहिक जीवन में उसने दूसरी महिला को प्रवेश देते समय अपनी प्रतिवादी-पत्नी की सहमति ली थी। यह सामान्य सी बात है कि, अक्सर महिलाएं अपने धर्म और सामाजिक-आर्थिक परिस्थितियों की परवाह किए बिना, अपने पति की दूसरी शादी करने के निर्णय के घृणा करती हैं। इसलिए सहमति के सबूत काफी पुख्ता होने चाहिए,परंतु इस मामले में ऐसे सबूतों की अनुपस्थिति देखी गई है।''
'इतवारी बनाम असगरी, एआईआर 1960, इलाहाबाद 684' मामले में इलाहाबाद हाईकोर्ट द्वारा दिए गए फैसले का भी संदर्भ दिया गया था। इस फैसले में कोर्ट ने माना था कि एक पति अपनी पहली पत्नी को इस बात के लिए मजबूर नहीं कर सकता है कि वह अपने पति को दूसरी पत्नी के साथ साझा कर लें।
फैमिली कोर्ट के आदेश को उचित ठहराने के लिए एक अन्य आधार यह भी दिया गया है कि पहली पत्नी को उसके ससुराल वालों ने प्रताड़ित किया था। वहीं रिकाॅर्ड पर ऐसा कुछ भी पेश नहीं किया गया,जिससे यह साबित हो सकें कि पति ने अपने परिजनों को ऐसा करने से रोकने की कोशिश की थी।
न्यायालय ने कहा कि
'' हर पति का यह आवश्यक कर्तव्य होता है कि वह हर परिस्थिति में अपनी पत्नी की रक्षा करें। अपीलकर्ता ने न तो यह बताया कि उसने अपने माता-पिता की प्रताड़ना से अपनी पत्नी को बचाने के लिए क्या काम किया था और न ही ऐसा कुछ वह साबित कर पाया। अपीलकर्ता का यह तर्क कि उसके माता-पिता बहुत प्रभावशाली और शक्तिशाली हैं,एक असहाय पत्नी को प्रताड़ित करने की अनुमति देने के लिए बहुत कमजोर हैं।''
कोर्ट ने यह भी कहा कि,''विवाह जैसा पवित्र रिश्ता पति-पत्नी के आपसी सहयोग और सुरक्षा के आधार पर टिका होता है। अगर पति अपनी पत्नी को अपने ही हिंसक माता-पिता से बचाने में विफल रहता है, तो ऐसी परिस्थिति में पत्नी का विश्वास खत्म होने लग जाता है। ऐसे में वह संयुग्मन अधिकारों की बहाली का विरोध करने की हकदार बन जाती है,ताकि उसके साथ ऐसा बुरा व्यवहार जारी न रखा जा सकें।''
मामले का विवरण-
केस का शीर्षक-यूसुफ पटेल बनाम रामजनबी
केस नंबर-एमएफए नंबर 201154/2018
कोरम-जस्टिस कृष्णा एस दीक्षित और जस्टिस पी कृष्णा भट