बिना वारंट तलाशी लेना निजता के अधिकार का उल्लंघन, बॉम्बे हाईकोर्ट ने राज्य पर लगाया जुर्माना

Update: 2019-12-05 06:57 GMT

बॉम्बे हाईकोर्ट ने पिछले सप्ताह फैसला सुनाते हुए कहा है कि बिना वारंट के तलाशी करना राइट टू प्राइवेसी यानि निजता के अधिकार का उल्लंघन है। अदालत ने राज्य सरकार पर 25,000 रुपये का जुर्माना भी लगाया है जो इस तरह की अवैध तलाशी के लिए पीड़ित याचिकाकर्ता को दिया जाएगा।

औरंगाबाद पीठ के न्यायमूर्ति टी.वी नलवडे और न्यायमूर्ति एस.एम गवने की खंडपीठ पेशे से एक ड्राइवर ज्ञानेश्वर टोडमल द्वारा दायर एक आपराधिक रिट याचिका पर सुनवाई कर रही थी।

पुलिस ने की थी बिना वारंट तलाशी

इस मामले में घटना 5- 6 मई, 2018 की रात को लगभग 2 बजे हुई थी। याचिकाकर्ता के घर की तलाशी नवासा पुलिस, जिला अहमदनगर द्वारा ली गई थी। याचिकाकर्ता के अनुसार, पुलिस ने इस तरह की तलाशी लेने के लिए सर्च वारंट हासिल नहीं किया था और आखिरकार उसके घर से कुछ भी आपत्तिजनक बरामद नहीं हुआ।

याचिकाकर्ता ने दावा किया कि तलाशी के दौरान, विठ्ठल गायकवाड़ नामक एक कांस्टेबल ने उसके घर में एक देशी निर्मित पिस्तौल रखने की कोशिश की थी, लेकिन याचिकाकर्ता की सतर्कता के कारण वह ऐसा नहीं कर पाया। याचिकाकर्ता ने यह भी दलील दी कि कि उसके घर से बाहर निकलते समय पुलिस अधिकारियों ने उसे धमकी देते हुए कहा था कि वे उसे झूठे अपराध में फंसा देंगे। यह तर्क दिया गया कि पुलिस का यह कृत्य उसकी निजता का उल्लंघन है और साथ में भारत के संविधान के अनुच्छेद 21 के तहत मिले उसके मौलिक अधिकारों का उल्लंघन भी था।

याचिकाकर्ता ने बताया कि उसने 7 मई, 2018 को संबंधित तहसीलदार के समक्ष पुलिस के उक्त अवैध कृत्य के बारे में शिकायत दर्ज की थी, लेकिन कोई कार्रवाई नहीं की गई। उक्त शिकायत 10 मई, 2018 को जिला पुलिस अधीक्षक को भी दी गई थी और शिकायत की प्रति राज्य मानवाधिकार आयोग को भेजी गई थी, लेकिन प्रतिवादियों के खिलाफ कोई कार्रवाई नहीं की गई।

यद्यपि याचिकाकर्ता ने 2018 में एक रिट याचिका दायर की थी। मामले की कार्यवाही के दौरान जिला पुलिस अधीक्षक, अहमदनगर के एक पत्र को अदालत में दिखाया गया। इस पत्र के अनुसार मामले की जांच करने के लिए उप-मंडल पुलिस अधिकारी नियुक्त किया गया था। इस प्रकार, वरिष्ठ पुलिस अधिकारियों द्वारा उठाए गए कदमों के मद्देनजर, याचिका का निस्तारण कर दिया गया था।

पुलिस अधीक्षक अहमदनगर ने वर्तमान याचिका के जवाब में एक हलफनामा दायर किया। उन्होंने बताया कि 2014 से लेकर अब तक उस क्षेत्र के कई अन्य व्यक्तियों के खिलाफ 16 अपराध दर्ज किए जा चुके हैं, क्योंकि उनके कब्जे में शस्त्र पाए गए थे। ऐसी परिस्थिति के कारण इस बात की संभावना थी कि उस स्थानीय क्षेत्र के व्यक्तियों के पास हथियार हैं और वे गैरकानूनी गतिविधियों में शामिल हैं, इसलिए पुलिस ने गुप्त सूचना के आधार पर कार्रवाई की थी।

निर्णय

न्यायालय ने कहा-

''सीआरपीसी की धारा 166 के प्रावधान से पता चलता है कि एक थाने के प्रभारी पुलिस अधिकारी को तलाशी-वारंट जारी करने के लिए किसी अन्य वारंट की आवश्यकता हो सकती है जब तलाशी की जाने वाली जगह दूसरे पुलिस स्टेशन के अधिकार क्षेत्र में स्थित हो। इस न्यायालय का मानना है कि सीआरपीसी की धारा 165 और 166 के प्रावधान वर्तमान मामले में लागू होते हैं।''

इसके बाद, सर्वोच्च न्यायालय के एक फैसले पर भरोसा करते हुए, पीठ ने कहा-

''राज्य बनाम रहमान (एआईआर 1960 एससी 210) के रूप में रिपोर्ट किए गए मामले में, शीर्ष न्यायालय द्वारा निर्धारित किया गया था कि तलाशी एक प्रक्रिया है जो चरित्र के रूप में अत्यधिक मनमानी वाली है, इस शक्ति के प्रयोग के लिए कड़ी वैधानिक शर्तें लगाई गई हैं। सीआरपीसी की धारा 165 के प्रावधान इसलिए बनाए गए हैं ताकि तात्कालिकता की स्थिति में पुलिस को तलाशी लेने के लिए सक्षम बनाया जा सके। वहीं जब ऐसी स्थिति हो कि मजिस्ट्रेट से सर्च वारंट हासिल करने के लिए लंबी प्रक्रिया का पालन करने की अनुमति न हो।''

शीर्ष अदालत ने पूर्वोक्त मामले में कहा था कि चूंकि सीआरपीसी की धारा 165 (1) का प्रावधान अनिवार्य प्रकृति का है, इसलिए इसका सख्ती से पालन किया जाना चाहिए। इस प्रकार, एक घर में प्रवेश करने से पहले, जांच अधिकारी को उन चीजों को साफ तौर पर लिखना होगा जिनके लिए तलाशी ली जानी है और साथ ही उसके विश्वास के वह आधार भी, जिनके कारण उसको लगता है कि यह चीजें उस घर में मिलेंगी जिसकी तलाशी ली जानी है।

कोर्ट ने पुलिस को यह दिखाने का अवसर भी दिया कि उस रात पुलिस को कुछ गुप्त सूचनाएं मिली थीं, जिसके आधार पर रात 2 बजे तलाशी ली गई थी।

हालांकि, कोर्ट ने कहा कि-

''हालांकि, जानकारी मिलने पर, मुखबिर के नाम का खुलासा नहीं किया जाना चाहिए, परंतु पुलिस के लिए यह आवश्यक है कि वह प्राप्त सूचनाओं का रिकॉर्ड बनाए। ऐसी जानकारी की प्रविष्टि स्टेशन की डायरी में की जानी चाहिए, जिसमें संज्ञेय अपराध का मामला शामिल हो। जब कार्रवाई के लिए पुलिस अधिकारी निकले, तब भी उन्हें स्टेशन डायरी में अपनी इस कार्रवाई या कदम के बारे में एक प्रविष्टि करने की आवश्यकता थी।

वर्तमान मामले में याचिकाकर्ता द्वारा पेश रिकॉर्ड से पता चलता है कि अधिकांश प्रतिवादियों को उस रात अलग-अलग स्थानों पर अलग-अलग काम का जिम्मा दिया गया था। वे सभी इस कार्रवाई के लिए उस रात एक साथ आए थे, लेकिन गुप्त सूचना और सीआरपीसी की धारा 165 के प्रावधान के अनुपालन के संदर्भ में कोई लिखित प्रविष्टि नहीं है।''

इस प्रकार, अदालत ने घोषित किया कि पुलिस कार्रवाई अवैध थी-

''इस अदालत को यह कहने में कोई संकोच नहीं है कि इस तरह की अवैध कार्रवाई के लिए राज्य याचिकाकर्ता को मुआवजे का भुगतान करने के लिए उत्तरदायी है। पुलिस की यह कार्रवाई न केवल गोपनीयता या निजता का उल्लंघन थी, बल्कि इस कार्रवाई ने पूरे परिवार को बदनाम कर दिया।''

पीठ ने यह भी कहा कि अभियोजन पक्ष का तर्क यह नहीं दर्शा पाया कि याचिकाकर्ता के खिलाफ की गई कार्रवाई को कैसे उचित ठहराया जा सकता है।

''अगर पहले दुर्घटनाओं के कारण याचिकाकर्ता के खिलाफ कुछ अपराध दर्ज किए गए थे तो इसके आधार पर यह नहीं कहा जा सकता है या माना जा सकता है कि याचिकाकर्ता की आपराधिक पृष्ठभूमि थी जबकि उसका पेशा चालक या ड्राइवर का था। कई बार, एक चालक को इस तरह के अभियोजन का सामना करना पड़ता है।''

इस प्रकार, अदालत ने सरकार का निर्देश दिया कि याचिकाकर्ता को मुआवजे के रूप में दिए जाने वाले 25,000 रुपये जमा कराएं। साथ ही, राज्य को इस बात की अनुमति या स्वतंत्रता दी है कि वह चाहे तो प्रतिवादी पुलिस अधिकारियों से मुआवजे की राशि वसूल सकती है।  

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