'सनातन धर्म' शाश्वत कर्तव्यों का एक समूह, जबकि फिलहाल ऐसा विचार सामने आ रहा है कि यह जातिवाद और अस्पृश्यता को बढ़ावा देने वाला: मद्रास हाईकोर्ट
मद्रास हाईकोर्ट ने शुक्रवार को कहा कि "सनातन धर्म" शाश्वत कर्तव्यों का एक समूह है, जिसमें राष्ट्र के प्रति कर्तव्य, राजा के प्रति कर्तव्य, माता-पिता और गुरुओं के प्रति कर्तव्य आदि शामिल हैं और उस संदर्भ में, सनातन धर्म के विरोध का अर्थ ये होगा कि ये सभी कर्तव्य नष्ट होने योग्य थे।
कोर्ट ने कहा,
"आम तौर पर सनातन धर्म को 'शाश्वत कर्तव्यों' के एक समूह के रूप में समझा जाता है, और इसे एक विशिष्ट साहित्य में नहीं खोजा जा सकता है....इसमें राष्ट्र के प्रति कर्तव्य, राजा के प्रति कर्तव्य, राजा का अपनी प्रजा के प्रति कर्तव्य, अपने माता-पिता और गुरुओं के प्रति कर्तव्य, गरीबों की देखभाल और कई अन्य कर्तव्य शामिल हैं।”
मामला
थिरु वी का गवर्नमेंट आर्ट्स कॉलेज के प्रिंसिपल की ओर से एक सर्कूलर जारी किया गया था, जिसमें कॉलेज की छात्राओं से तमिलनाडु के पूर्व मुख्यमंत्री अन्नादुराई की जयंती के अवसर पर "सनातन का विरोध" विषय पर अपने विचार साझा करने का अनुरोध किया गया था। सर्कूलर को हाईकोर्ट में चुनौती दी गई थी, जिस पर सुनवाई करते हुए जस्टिस एन शेषशायी ने यह टिप्पणी की।
उन्होंने कहा,“यदि विवादित परिपत्र में चुने गए विषय का अब इन कर्तव्यों के स्तर पर परीक्षण किया जाता है, तो इसका मतलब यह होगा कि ये सभी कर्तव्य नष्ट होने योग्य हैं। क्या एक नागरिक को अपने देश से प्यार नहीं करना चाहिए? क्या उसका अपने राष्ट्र की सेवा करना कर्तव्य नहीं है? क्या माता-पिता की देखभाल नहीं की जानी चाहिए? जो कुछ चल रहा है, उसके प्रति वास्तविक चिंता के साथ, यह न्यायालय इस पर विचार करने से खुद को रोक नहीं सका।''
अदालत ने कहा कि वर्तमान में यह विचार सामने आ रहा है कि सनातन धर्म जातिवाद और अस्पृश्यता को बढ़ावा देने वाला है। अदालत ने इस बात पर जोर दिया कि अस्पृश्यता, जिसे संविधान के अनुच्छेद 15 के तहत समाप्त कर दिया गया है, को सनातन धर्म के भीतर या बाहर भी बर्दाश्त नहीं किया जाना चाहिए।
कोर्ट ने कहा,
"समान नागरिकों के देश में अस्पृश्यता को बर्दाश्त नहीं किया जा सकता है, और भले ही इसे 'सनातन धर्म' के सिद्धांतों के भीतर कहीं न कहीं अनुमति के रूप में देखा जाता है, फिर भी इसके लिए जगह नहीं हो सकती है, क्योंकि संविधान के अनुच्छेद 17 में अस्पृश्यता को खत्म करने की घोषणा की गई है...इसलिए, सनातन धर्म के भीतर या बाहर, अस्पृश्यता अब संवैधानिक नहीं हो सकती है, हालांकि दुख की बात है कि यह अभी भी मौजूद है।''
अदालत ने कहा कि हालांकि संविधान का अनुच्छेद 19(1)(ए) अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का मौलिक अधिकार देता है, लेकिन यह रेखांकित करना महत्वपूर्ण है कि किसी को पर्याप्त रूप से सूचित किया जाए क्योंकि जो बोला जा रहा है, वह एक वैल्यू जोड़ता है। यह कहते हुए कि स्वतंत्र भाषण पूर्ण अधिकार नहीं है, अदालत ने कहा कि जब स्वतंत्र भाषण धर्म से संबंधित है, तो यह सुनिश्चित करना आवश्यक है कि कोई भी आहत न हो।
“हर धर्म आस्था पर आधारित है, और आस्था स्वभावतः अतार्किकता को समायोजित करती है। इसलिए, जब धर्म से संबंधित मामलों में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का प्रयोग किया जाता है, तो यह सुनिश्चित करना आवश्यक है कि कोई भी आहत न हो। दूसरे शब्दों में, स्वतंत्र भाषण हेट स्पीच नहीं हो सकती, जैसा कि माननीय सुप्रीम कोर्ट ने आगाह किया है। स्वतंत्र भाषण के उपयोगकर्ताओं को अपने अधिकार का प्रयोग करते समय इन पहलुओं को नजरअंदाज नहीं करना चाहिए। अगर इसे नजरअंदाज किया गया, तो किसी भी बहस की दिशा पटरी से उतर जाएगी और इसके पीछे का उद्देश्य महत्व खो देगा।”
अदालत ने यह भी कहा कि स्वतंत्र भाषण का उपयोग निष्पक्ष, स्वस्थ बहस को प्रोत्साहित करने और संविधान के लोकाचार और मूल्यों को भूले बिना समाज को आगे बढ़ने में मदद करने के लिए किया जाना चाहिए।
चूंकि मौजूदा मामले में विवादित सर्कुलर पहले ही वापस ले लिया जा चुका है, इसलिए अदालत ने कॉलेज से कहा कि वह छात्रों को अस्पृश्यता की बुराइयों पर विचार कराए और बताए कि समाज के नागरिक होने के नाते वे कैसे अस्पृश्यता को खत्म कर सकते हैं।
उल्लेखनीय है कि तमिलनाडु के मंत्री उदयनिधि स्टालिन की ओर से 'सनातन धर्म' के खिलाफ की गई टिप्पणियों के कारण हुए हालिया विवाद की पृष्ठभूमि में कोर्ट की टिप्पणियां महत्वपूर्ण हैं।