SC/ST एक्ट की धारा18 : जब तक कि आरोपी का कृत्य इस विचार से प्रभावित न हो कि पीड़ित SC/ST समुदाय से है तो अग्रिम ज़मानत के प्रतिबंध लागू नहीं होते

Update: 2021-01-07 11:32 GMT

 दिल्ली हाईकोर्ट की एकल न्यायाधीश पीठ ने न्यायमूर्ति अनूप जयराम भंभानी ने अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति (अत्याचार निवारण) अधिनियम, 1989 के तहत गिरफ्तार अभियुक्त को अग्रिम जमानत प्रदान की।

कोर्ट ने कहा कि,

"सीआरपीसी की धारा 438 के तहत अग्रिम जमानत की मांग की गई थी। इस तहत की जमानत पर रोक तभी लगाई जा सकती है, जब SC/ST एक्ट की धारा- 18 के तहत अपराध किया गया हो। इस धारा का मतलब है कि आरोपी जानबूझ कर इसलिए अपराध करता है क्योंकि पीड़ित एससी या एसटी समुदाय का सदस्य है।"

कोर्ट ने एससी/एसटी एक्ट, 1989 के 3 (2) (v) के तहत पीड़िता के साथ बलात्कार करने के आरोपी को अग्रिम जमानत दे दी, जिसमें उसके साथ विवाह करने का झूठा वादा किया गया था।

पृष्ठभूमि

अभियुक्त के खिलाफ IPC की धारा 354D, 376, 506 और अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति (अत्याचार निवारण) अधिनियम, 1989 की धारा- 3(2)(v) के तहत प्राथमिकी दर्ज की गई। यह प्राथमिकी सीआरपीसी की धारा 164 के तहत दर्ज बयान के आधार पर दर्ज की गई थी। आरोपी के खिलाफ प्राथमिक आरोप यह था कि उसने शादी के झूठे बहाने करके बलात्कार किया था और साथ ही उसे पर डांटने और आपराधिक धमकी देने के भी आरोप लगाए गए थे।

SC/ST एक्ट की धारा- 3(2)(v) के तहत जब कोई व्यक्ति किसी एससी या एसटी समुदाय का सदस्य को खिलाफ अपराध करता है तो उस अपराधी को आईपीसी के तहत 10 साल या उससे अधिक की जेल की सजा के साथ दंडित किया जाता है।

यह भी प्रावधान है कि ऐसे मामलों में जुर्माने के साथ सजा को आजीवन कारावास तक बढ़ाया जा सकता है। इस मामले में अभियुक्त ने सीआरपीसी के 438 के तहत एक अग्रिम जमानत की याचिका दायर की थी। ।

सुनवाई से पहले कुछ महत्वपूर्ण बिंदु

उच्च न्यायालय ने अग्रिम जमानत प्रदान करने से संबंधित मामले में निम्नलिखित पहलुओं की

जांच की जैसे-

1. सीआरपीसी की धारा 438 के तहत दायर अग्रिम ज़मानत आवेदन एससी/एसटी एक्ट, 1989 की धारा 18 के तहत दर्ज अपराध में सुनवाई योग्य है?

2. सीआरपीसी की धारा 438 के तहत जमानत याचिका की व्यक्तिगत योग्यता।

3. क्या किसी अभियुक्त के खिलाफ गैर जमानती वारंट जारी होने के बाद उसे अग्रिम जमानत दी जा सकती है?

4. पीवी नरसिम्हा राव बनाम राज्य (सीबीआई) 1996 (दिल्ली हाईकोर्ट) मामलों की प्रासंगिकता जहां अभियुक्तों के खिलाफ जमानती या गैर जमानती वारंट जारी किए गए तो इस स्थिति में अदालत अग्रिम जमानत को प्रतिबंधित करेगी या नहीं।

सीआरपीसी की धारा-438 और एससी/एसटी अधिनियम, 1989 की धारा-18 के मुख्य बिंदु

राज्य के तर्क

राज्य का प्रतिनिधित्व करने वाले सहायक लोक अभियोजक (एपीपी) तरंग श्रीवास्तव ने एससी/एसटी एक्ट की धारा-18 के समक्ष ज़मानत आवेदन पर सुनवाई पर आपत्ति जताई। उक्त प्रावधान के अनुसार, अधिनियम के तहत अपराध करने वाले किसी भी व्यक्ति को सीआरपीसी की धारा-438 के तहत अग्रिम जमानत के लिए आवेदन सुनवााई योग्य नहीं होगा।

उन्होंने कहा कि चूंकि आरोपी पर अधिनियम की धारा 3 (2) (v) और अभियुक्त पर धारा-18 लगाया गया है। इस प्रकार यह कानून की अदालत में बनाए रखने योग्य नहीं है।

एपीपी ने पृथ्वी राज चौहान बनाम यूनियन ऑफ इंडिया और अन्य के मामले (2020) 4 SCC 727 के फैसले पर भरोसा किया, जिसमें शीर्ष अदालत ने कहा था कि ऐसे मामले में सीआरपीसी की धारा 438, एससी एसटी एक्ट के तहत आने वाले मामलों पर ही लागू नहीं होगा, यदि यह साबित हो जाए कि शिकायत में अधिनियम के प्रावधानों की प्रयोज्यता के लिए प्रथम दृष्टया मामला नहीं बनाया गया है।

राज्य के अनुसार, पीड़िता के बयान सीआरपीसी धारा 164 के तहत दर्ज किए गए हैं. इससे अभियुक्त के खिलाफ अधिनियम का 3 (2) (v) का मामला बनता है। उन्होंने आगे कहा कि पृथ्वी राज फैसले में सर्वोच्च न्यायालय ने यह भी देखा कि एससी एसटी एक्ट के मामलों में 438 का उपयोग केवल उन असाधारण मामलों में किया जाना चाहिए जहां अधिनियम के तहत कोई भी प्रथम दृष्टया मामला नहीं बनाया गया है। इसके साथ ही सुप्रीम कोर्ट ने यह भी देखा कि पूर्व-गिरफ्तारी जमानत देने की शक्ति का उदार उपयोग संसद की मंशा को पराजित करेगा।

राज्य ने मंजू देवी बनाम ओंकारजीत सिंह अहलूवालिया और अन्य (2017) में सुप्रीम कोर्ट के फैसले का जिक्र करते हुए कहा कि,

"इस मामले में यह माना गया था कि एक शिकायत झूठी और दुर्भावनापूर्ण है जिसे संज्ञान लेने और प्रक्रिया जारी करने के चरण में नहीं देखा जा सकता है और केवल परीक्षण के समय ही इस पर ध्यान दिया जा सकता है। इसलिए, यह एपीपी द्वारा तर्क दिया गया था कि अवलोकन उस स्तर पर समान रूप से लागू होता है जहां अदालत अग्रिम जमानत की याचिका पर विचार कर रही है और अदालत वर्तमान जमानत आवेदन पर विचार करने के समय आरोपों के गुणों पर गौर नहीं कर सकती है।"

आवेदक के तर्क

एडवोकेट प्रदीप तेओतिया ने आवेदक के लिए पृथ्वी राज चौहान के फैसले पर बहुत अधिक भरोसा किया और तर्क दिया कि वर्तमान मामले में, शिकायत एससी/एसटी अधिनियम के तहत किसी भी प्रथम दृष्टया मामले का खुलासा नहीं होता है, जिसके कारण अधिनियम की धारा 18 नहीं उठता है। आगे यह तर्क दिया गया कि अधिनियम की धारा 3 (2) (v) केवल उन मामलों में लागू होता है जहां यह साबित होता है कि व्यक्ति ने SC / ST समुदाय से संबंधित किसी व्यक्ति के खिलाफ केवल जानबूझकर अपराध किया गया है। ऐसा खुद सर्वोच्च न्यायालय द्वारा दिनेश बनाम राजस्थान राज्य और खुमान सिंह बनाम मप्र राज्य में कहा गया था।

उक्त निर्णयों के मद्देनजर, आवेदक द्वारा यह तर्क दिया गया था कि अभियुक्त के खिलाफ कोई आरोप नहीं है। उसने अभियोजन पक्ष पर केवल इस कारण से यौन उत्पीड़न नहीं किया कि वह SC या ST समुदाय से है। इसके अलावा, यह तर्क दिया गया था किएससीएसटी अधिनियम की धारा 3 (2) (v) के प्रावधान यांत्रिक और मनमाने ढंग से लगाए गए हैं और वर्तमान अग्रिम जमानत याचिका को मंजूरी मिलनी चाहिए।

कोर्ट की व्याख्या

एससी एसटी अधिनियम के प्रावधानों की प्रयोज्यता पर विवाद

कोर्ट ने SC/ST एक्ट की धारा 3 (अधिनियम के तहत अपराधों के लिए दंड), धारा 18 ( सीआरपीसी की धारा 438 ) और धारा 18A (प्राथमिकी के पंजीकरण के लिए प्रारंभिक जांच की आवश्यकता नहीं है या गिरफ्तारी के लिए अनुमोदन) का विश्लेषण किया। पीठ ने मामले में दोनों पक्षों द्वारा उद्धृत मामलों में की गई टिप्पणियों पर भी विचार किया।

पीठ ने कहा कि,

प्रतिभूति की प्रयोज्यता के लिए एससी/एसटी एक्ट की धारा 3 (2) (v) के मुताबिक अपराधी को IPC के तहत किया गया अपराध एससी या एसटी समुदाय के किसी सदस्य के खिलाफ हो और उसे 10 साल या उससे अधिक की जेल की सजा दी गई हो। अदालत ने कहा कि " धारा 3 (2) (v) का यह उद्देश्य या अर्थ नहीं है कि आईपीसी के तहत हर अपराध 10 साल या उससे अधिक की कैद का प्रावधान करताहै, तो उस प्रावधान के अर्थ में यह उस व्यक्ति के खिलाफ प्रतिबद्ध है जो अनुसूचित जाति या अनुसूचित जनजाति का सदस्य है।"

पीठ ने यह भी स्पष्ट किया कि,

"ऐसे मामलों में, बढ़ी हुई सजा को केवल तभी स्वीकार किया जा सकता है, जहां अपराधी की कार्रवाई इस विचार से प्रभावित हो कि पीड़ित अनुसूचित जाति या अनुसूचित जनजाति का सदस्य है।"

जहां तक मामले के तथ्यों का सवाल है, न्यायालय ने कहा कि,

दर्ज प्राथमिकी और आरोपी द्वारा दिए गए बयान से यह सिद्ध नहीं होता है कि सीआरपीसी की धारा 164 के तहत पीड़िता ने जो आरोप लगाया है वह सुनवाई योग्य नहीं है। यह भी सुनिश्वचित नहीं होता है कि उसकी जाति के कारण उसका यौन उत्पीड़न किया गया है और वह 2019 में एक प्रकरण सामने आने के बाद ही आरोप लगाती है जिसमें आरोपी ने उससे शादी करने से इनकार कर दिया था। इसलिए इसमें कोर्ट के मुताबिक कहीं भी यह नहीं दिखता है कि इस अधिनियम के तहत कोई भी अपराध अभियुक्त द्वारा किया गया है।

अग्रिम जमानत आवेदन की योग्यता

अग्रिम जमानत आवेदन के अनुदान पर आवेदक द्वारा निम्नलिखित तर्क दिए गए थे:

1. प्राथमिकी और अभियोजन पक्ष के बयान के से पता चलता है कि वह और आरोपी 2013 से दोस्त थे और यह सात साल का एक लंबा संबंध था।

2. यह 2019 के बाद किया गया था और साल 2020 में एक प्राथमिकी दर्ज की गई थी जो कि दर्शाता है कि गलत इरादे से किया गया था।

3. ऐसा इसलिए क्योंकि यह सात साल लंबे सहमति वाले रिश्ता था और इसलिए IPC की धारा 354D, धारा 376 और धारा 506 को बाहर नहीं किया जा सकता है।

आरोपियों के खिलाफ गैर जमानती वारंट जारी करना और अग्रिम जमानत की याचिका का सवाल

अदालत ने इस तथ्य पर ध्यान दिया कि यद्यपि गैर जमानती वारंट जारी करने को प्रार्थना में चुनौती नहीं दी गई है। लेकिन फिर भी न्यायालय के लिए इस मुद्दे को संबोधित करना महत्वपूर्ण है कि क्या किसी व्यक्ति के खिलाफ गैर जमानती वारंट जारी किया गया है या नहीं। ऐसा करने में, अदालत ने पीवी नरसिम्हा राव बनाम राज्य (सीबीआई) 1996 में दिल्ली उच्च न्यायालय की खंडपीठ के फैसले पर बहुत भरोसा किया।

जिसमें अदालत ने कहा था कि,

"पुलिस द्वारा चार्जशीट दाखिल करना और मजिस्ट्रेट द्वारा वारंट जारी करना, सीआरपीसी की धारा 438 (1) तहत जमानत देने की शक्ति को समाप्त नहीं करता है और दूसरी तरफ उच्च न्यायालय या सत्र न्यायालय के पास धारा 438 (1) के तहत अग्रिम जमानत देने की शक्ति है। कोर्ट अग्रिम जमानत तब दे सकता है जब किसी व्यक्ति का आपराधिक कोर्ट द्वारा मामले का संज्ञान लिया गया हो और बाद में उस अभियुक्त व्यक्ति की गिरफ्तारी का वारंट जारी करने की प्रक्रिया जारी की गई हो। "

इसलिए, अभियुक्त को अग्रिम जमानत की अनुमति देते समय अदालत ने उक्त निर्णय के मद्देनजर कहा कि "इस तथ्य के अनुसार, आवेदक केखिलाफ प्राप्त किए गए सबूत, कोर्ट को सीआरपीसी की धारा 438 के तहत आवेदक को अग्रिम जमानत देने से नहीं रोक सकते हैं।"

पीठ ने यह भी कहा कि,

अग्रिम जमानत देने के मामले में यह अंतर नहीं कर सकता है कि क्या कोई व्यक्ति पुलिस के हाथों गिरफ्तार हुआ है या उसके खिलाफ वारंट जारी किया गया है। कोर्ट ने कहा कि उपरोक्त सभी निर्देश लागू होंगे, भले ही आवेदक को NBWs के खिलाफ गिरफ्तार किया गया हो।"

न्यायालय ने जमानतदार को 50,000 रूपये का निजी बांड जमा पर करने और इतनी ही राशि के जमानतदार पेश करने की सहार्ट पर आरोपी की जमानत स्वीकार की।

केस का नाम: दानिश खान बनाम राज्य (GNCTD)

निर्णय दिनांक: 05.01.2021

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