छत्तीसगढ़ हाईकोर्ट का फैसला, जीवन के अधिकार का ही एक पहलू है जनन का अधिकार, गर्भपात पर नाबालिग की सहमति आवश्यक
छत्तीसगढ़ हाईकोर्ट ने माना है कि नाबालिग लड़की का जनन का अधिकार या जीवन निर्माण का अधिकार, अनुच्छेद 21 के तहत दिए गए जीवन के अधिकार का एक पहलू है, इसलिए नाबालिग की सहमति के बगैर उसके गर्भपात की अनुमति नहीं दी जा सकती है।
जस्टिस संजय के अग्रवाल की एकल पीठ ने नाबालिग के पिता की याचिका खारिज़ कर दी, जिसमें उसने अपनी बेटी का गर्भपात करवाने की अनुमति मांगी थी। कोर्ट को दिए बयान में बेटी ने गर्भपात के लिए सहमति नहीं दी थी, जिसके बाद कोर्ट ने कहा सहमति के बिना गर्भपात का आदेश नहीं दिया जा सकता है। छत्तीसगढ़ हाईकोर्ट में दाखिल रिट पीटिशन (Cr.) No.164 of 2020 के तहत कोर्ट के समक्ष सवाल था कि क्या नाबालिग बेटी का पिता उसकी सहमति के बगैर उसका गर्भपात करवा सकता है?
कोर्ट को यह भी परीक्षण करना था कि अनुच्छेद 21 के तहत दिए गए नाबालिग बेटी के जीवन के अधिकार में जनन का अधिकार या जीवन निर्माण का अधिकार भी शामिल है?
याचिकाकर्ता ने अपनी याचिका में कहा था कि उसकी 17 वर्षीय बेटी के साथ उसी के गांव के निवासी हरिगोपाल बैरागी ने दुष्कर्म किया, जिसके बाद वह गर्भवती हो गई। आरोपी के खिलाफ आईपीसी की धारा 363, 366, 376(2) और पोक्सो एक्ट 2012 की धारा 5(l) और 5(j)(ii) के तहत मुकदमा दर्ज किया गया है। मामले में चार्जशीट दाखिल हो चुकी है और मुकदमा ट्रायल कोर्ट में लंबित है।
याचिकाकर्ता ने कहा कि उसकी बेटी की उम्र 17 वर्ष, 8 माह, 10 दिन है। वह नाबालिग है, इसलिए कोर्ट राज्य सरकार और उसके अधिकारियों को उसकी नाबालिग बेटी का यथाशीघ्र गर्भपात करने का निर्देश दे।
कोर्ट ने गर्भपात के मसले पर लड़की इच्छा जानने के लिए याचिकाकर्ता के वकील को यह सुनिश्चित करने का निर्देश दिया था कि क्या याचिकाकर्ता की बेटी गर्भपात के लिए तैयार है। उन्हें इस सबंध एक हलफनामा दायर करने को कहा गया था। लड़की चूंकि 27 सप्ताह, दो दिन की गर्भवती थी, इसलिए कोर्ट ने स्टेट काउंसल को भी लड़की का बयान लेने को कहा।
याचिकाकर्ता की ओर से 14 मार्च 2020 को दायर हलफनामे में कहा गया कि बेटी गर्भपात कराने के लिए तैयार है। जबकि पुलिस उप निरीक्षक अनिता आयाम को दिए बयान में लड़की ने गर्भपात कराने से इनकार कर दिया।
लड़की ने अपने बयान में कहा, "गांव-घर में बदनामी के डर से मेरे माता-पिता मेरा गर्भपात करवाना चाहते हैं। मैं अपने पेट में पल रहे बच्चे को अपनाना चाहती हूं, मैं अपना गर्भपात नहीं कराना चाहती।"
यचिकाकर्ता की ओर से पेश वकील अनीश तिवारी ने दलील दी, "चूंकि याचिकाकर्ता की बेटी नाबालिग है, इसलिए मेडिकल टर्मिनेशन ऑफ प्रेग्नेंसी एक्ट, 1971 की धारा 3(4)(a) के तहत याचिकाकर्ता, अभिभावक होने के कारण, नाबालिग की ओर से सहमति देने में सक्षम हैं, और चूंकि नाबालिग दुष्कर्म पीड़ित है, इसलिए उसकी सुरक्षा के लिए गर्भपात आवश्यक है।"
जवाब में राज्य सरकार की ओर से पेश उप महाधिवक्ता मतीन सिद्दकी ने कहा, "लड़की की मेडिकल रिपोर्ट के अनुसार वह अभी मात्र 17 वर्ष 8 माह और 10 दिन की है, और उसका गर्भ 27 सप्ताह, 2 दिन का है, इसलिए चिकित्सकीय दृष्टिकोण से इस अवस्था में गर्भपात बिलकुल सुरक्षित नहीं है, और नाबालिग की सेहत के लिए नुकसानदेह है।"
न्यायमित्र मनोज परांजपे ने कहा कि लड़की नाबालिग है, फिर भी मेडिकल टर्मिनेशन ऑफ प्रेग्नेंसी एक्ट, 1971 की धारा 3(4)(a) के तहत गर्भपात के लिए उसकी सहमति आवश्यक है।
जस्टिस अग्रवाल ने अपने फैसले में कहा, "मेडिकल टर्मिनेशन ऑफ प्रेग्नेंसी एक्ट, 1971 की धारा 3 की उपधारा (2) का एक्सप्लेनेशन 1 में स्पष्ट है कि यदि महिला कथित रूप से दुष्कर्म के कारण गर्भवती हुई है तो ऐसे गर्भ के कारण हुई गर्भवती के मानसिक आघात का कारण माना जाए।
उन्होंने कहा, "मेडिकल टर्मिनेशन ऑफ प्रेग्नेंसी एक्ट, 1971 की पूरी योजना यह स्पष्ट करती है कि इस कानून की धारा 3 की उपधारा (4) (a)और (b)के प्रावधानों का प्रयोग गर्भवती महिला ही कर सकती है, हालांकि, यदि वह नाबालिग है तो ऐसी स्थिति में चिकित्साकर्मी, जिन्हें गर्भपात के लिए संपर्क किया गया है, उन्हें नाबालिग के अभिभावक की भी लिखित सहमति लेनी चाहिए।"
जस्टिस अग्रवाल ने कहा, "हालांकि वीकृष्णन बनाम जी राजन @ माडिपु राजन और अन्य के मामले में मद्रास हाईकोर्ट की एक डीविजन बेंच ने कहा था कि 1971 अधिनियम की धारा 3 की उपधारा (4) (a) को, यदि महिला 18 वर्ष से कम आयु की है तो, बिना उसकी सहमति के कभी नहीं समझा जाता है।"
"इस संबंध में, सुचिता श्रीवास्तव और अन्य बनाम चंडीगढ़ प्रशासन के मामले में सुप्रीम कोर्ट ने माना है कि एक महिला का जनन का चुनाव भी 'व्यक्तिगत स्वतंत्रता' का एक आयाम है, जैसा कि संविधान के अनुच्छेद 21 के तहत समझा जाता है।"
कोर्ट ने कहा कि नाबालिग की सहमति के महत्व/ आवश्यकता के मुद्दे को अंतर्राष्ट्रीय सम्मेलनों और भारतीय कानून के तहत बच्चों को दिए गए अधिकारों के आलोक में समझा जाना चाहिए।
कोर्ट ने कहा कि ब्रिटिश कानून में गर्भपात के मामले में माता-पिता और प्राकृतिक अभिभावकों की राय को गौण माना गया है और यदि नाबालिग परिणामों का समझने में सक्षम है तो उसकी राय को ही महत्वपूर्ण माना जाता है। अमेरिकी कानून में परिपक्वता के अनुसार नाबालिग के अधिकारों पर ध्यान देता है। डेन्फोर्थ केस (49 L.Ed.2d 788), में कहा गया था कि, (1) परिपक्व नाबालिगों को गर्भपात के मामलों में माता-पिता को शामिल किए बिना निर्णय लेने का अधिकार है।
जस्टिस अग्रवाल ने मारीमुथु बनाम दी इंस्पेक्टर ऑफ पुलिस व अन्य के मामले में मद्रास हाईकोर्ट के फैसले का उद्धृत किया जिसमें कोर्ट ने कहा था,"जीवन के अधिकार को ध्यान में रखते हुए, जिसमें जनन का अधिकार, गरिमा का अधिकार, स्वायत्तता का अधिकार और शारीरिक अखंडता का अधिकार भी शामिल है, पीड़ित लड़की की सहमति के बिना गर्भपात नहीं कराया जा सकता है।"
उपरोक्त दलीलों के बाद जस्टिस अग्रवाल ने अपने फैसले में कहा, "जीवन के अधिकार में जनन या जीवन निर्माण का अधिकार भी शामिल है।...यह स्पष्ट है कि लड़की नाबालिग है (17 वर्ष 8 महीने 10 दिन), हालांकि वह पर्याप्त रूप से परिपक्व है और अपने फैसले लेने ओर उन फैसलों के नतीजों को समझने में भी सक्षम है।
गर्भपात के मसले पर उसकी असहमति और चिकित्सकों की यह राय की 27 हफ्ते से ज्यादा का भ्रूण होने के कारण वह गर्भावस्था के उन्नत चरण में हैं, चिकित्सकीय सलाह के मुताबिक, इस स्तर पर गर्भपात से उसकी जान को खतरा हो सकता है... जनन/ जीवन निर्माण के उसके अधिकार के मद्देनजर, जो कि अनुच्छेद 21 के तहत गारंटीकृत जीवन के अधिकार का एक पहलू है, यह अदालत गर्भपात का निर्देश देने की इच्छुक नहीं है। ...इसलिए पिता की अर्जी को खारिज किया जाता है।"
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