बिना किसी उचित आधार के न्यायाधीशों को बदनाम करने की इजाजत नहीं दी जा सकती : दिल्ली हाईकोर्ट ने लॉयर्स बॉडी पर 50,000 रुपए का जुर्माना लगाया
दिल्ली हाईकोर्ट ने जस्टिस (रिटायर्ड) केएस अहलूवालिया की रेलवे क्लेम ट्रिब्यूनल के अध्यक्ष के रूप में फिर से नियुक्ति को चुनौती देने वाली याचिका को 50,000 रुपए का जुर्माना लगाकर खारिज करते हुए कहा कि बिना किसी उचित आधार के न्यायाधीशों को बदनाम करने के किसी भी प्रयास की अनुमति नहीं दी जा सकती।
जस्टिस प्रतिभा एम सिंह ने रेल दावा बार एसोसिएशन, लखनऊ द्वारा दायर याचिका को खारिज कर दिया और साथ ही 50 हज़ार रुपए का जुर्माना भी लगाया। याचिका में रेलवे क्लेम ट्रिब्यूनल में अध्यक्ष, उपाध्यक्ष (न्यायिक), उपाध्यक्ष (तकनीकी), सदस्य (न्यायिक) और सदस्य (तकनीकी) की नियुक्ति के लिए एक निष्पक्ष और पारदर्शी चयन प्रक्रिया निर्धारित करने के लिए केंद्र सरकार को निर्देश देने की मांग की गई थी।
अदालत ने देखा कि वकीलों के संघ की ओर से याचिका में संपूर्ण प्रयास "विधिवत गठित ट्रिब्यूनल के खिलाफ आक्षेप लगाने" के लिए है।
अदालत ने कहा,
"अदालत में प्रस्तुतियां और दलीलों की प्रकृति को देखते हुए रिट याचिका खारिज की जाती है। यह स्पष्ट किया जाता है कि बिना किसी उचित आधार के न्यायाधीशों को बदनाम करने के किसी भी प्रयास की अनुमति नहीं दी जा सकती, चाहे वह संवैधानिक न्यायालयों के न्यायाधीश हों, निचली अदालतें हों या अर्ध-न्यायिक निकायों की अध्यक्षता करने वाले न्यायाधीश हों।"
याचिकाकर्ता ने प्रस्तुत किया कि जस्टिस (सेवानिवृत्त) केएस अहलूवालिया पुनर्नियुक्ति के योग्य नहीं हैं और नियुक्ति प्रक्रिया में उचित प्रक्रिया का पालन नहीं किया गया है।
यह तर्क दिया गया कि पूर्व अध्यक्ष की सेवानिवृत्ति पर एक चयन समिति गठित की गई और एक सूची तैयार की गई जिसमें जस्टिस अजीत सिंह का चयन किया गया और नियुक्ति की पेशकश की गई। हालांकि, नियुक्ति को अस्वीकार करने के बाद आवेदन करने वाले अन्य व्यक्तियों के बजाय जस्टिस अहलूवालिया (सेवानिवृत्त) को पद की पेशकश की गई।
दूसरी ओर भारत संघ ने अपनी प्रतिक्रिया में कहा कि सुप्रीम कोर्ट के न्यायाधीश की अध्यक्षता में गठित सर्च कम सेलेक्शन कमेटी ने अध्यक्ष के पद पर नियुक्ति के लिए योग्य व्यक्तियों की खोज करने का निर्णय लिया और एक रूपरेखा तैयार की, जिसमें विभिन्न उच्च न्यायालयों के छह न्यायाधीश सूची में शामिल थे। तब सरकार को दो न्यायाधीशों के एक पैनल का सुझाव दिया गया जिसमें जस्टिस अहलूवालिया (सेवानिवृत्त) का नाम भी शामिल था, जिसे स्वीकार कर लिया गया और अधिसूचित कर दिया गया।
याचिकाकर्ता ने इस पर प्रस्तुत किया कि समिति ने 60-70 से अधिक पात्र व्यक्तियों के होने के बावजूद पांच योग्य उम्मीदवारों को "चुना"। इसने आरोप लगाया कि पूरी कवायद "गड़बड़ और स्पष्ट रूप से पक्षपात और भाई-भतीजावाद की बू" थी क्योंकि जस्टिस (सेवानिवृत्त) केएस अहलूवालिया सुप्रीम कोर्ट के एक सिटिंग जज के समधी हैं।
इसके अलावा याचिकाकर्ता ने कहा कि जिस तरह से समिति ने "खोज" की, वह "खोज शब्द के चेहरे पर एक तमाचा है और सभी मानदंडों और सिद्धांतों को हवा में फेंकने के समान है।"
जस्टिस सिंह ने कहा इस प्रस्तुति पर आपत्ति जताई और कहा रिजॉइंडर में "सनसनीखेज की बू आती है" और पूरी तरह से "अशोभनीय भाषा" का उपयोग किया गया है। अदालत ने देखा कि प्रत्युत्तर में इस्तेमाल की गई भाषा स्पष्ट रूप से दर्शाती है कि इसका इरादा केवल निराधार और निंदनीय आरोप लगाने का है।
अदालत ने कहा,
"याचिकाकर्ता द्वारा तथ्यों या कानून के सत्यापन के बिना बेबुनियाद आरोप लगाए गए हैं। ऐसा प्रतीत होता है कि इरादा कानून की सीमाओं के भीतर आधार बढ़ाने के बजाय कुछ अकथनीय कारणों से विभिन्न व्यक्तियों को बदनाम करना है। जवाबी हलफनामे में बताई गई पूरी प्रक्रिया से पता चलता है कि सभी आवश्यक सुरक्षा उपायों का पालन किया गया है और नियुक्ति प्रक्रिया लागू अधिनियम और नियमों के अनुसार की गई है।”
अदालत ने कहा कि नियुक्ति की प्रक्रिया को भारत संघ ने अपने जवाबी हलफनामे में समझाया है और याचिका में उठाया गया कोई भी आधार पुनर्नियुक्ति को रद्द करने के लिए नहीं बनाया गया है।
अदालत ने कहा,
"इस मामले के समग्र तथ्यों और परिस्थितियों में, यह स्पष्ट है कि याचिका और याचिकाकर्ता द्वारा दायर याचिका और कुछ नहीं बल्कि रेलवे क्लेम ट्रिब्यूनल के वर्तमान अध्यक्ष की गरिमा को कम करने और रेलवे के कामकाज में बाधा डालने का प्रयास है।"
कोर्ट ने याचिका खारिज करने के साथ साथ याचिकाकर्ता को चार सप्ताह की अवधि के भीतर दिल्ली हाईकोर्ट कानूनी सेवा समिति में 50 हज़ार रुपए का भुगतान (जुर्माने के रूप में) करने का आदेश दिया ।
केस टाइटल : रेल दावा बार एसोसिएशन, लखनऊ बनाम भारत संघ और अन्य।
आदेश पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें