कुतुब मीनार विवाद: दिल्ली कोर्ट ने आगरा से गुरुग्राम तक गंगा और यमुना के बीच की सारी जमीन के मालिकाना हक का दावा करने वाले हस्तक्षेप पर आदेश सुरक्षित रखा

Update: 2022-09-13 08:43 GMT

दिल्ली की एक कोर्ट ने कुतुब मीनार परिसर में कथित मंदिरों के जीर्णोद्धार के लिए दायर अपीलों संबंधी एक हस्तक्षेप याचिका पर सोमवार को आदेश सुरक्षित रख लिया। कुंवर महेंद्र ध्वज प्रसाद सिंह नामक शख्स की ओर से दायर आवेदन में गंगा और यमुना नदियों के बीच आगरा मेरठ, अलीगढ़, बुलंदशहर और गुड़गांव के क्षेत्रों पर अधिकार की मांग की गई है।

अतिरिक्त जिला जज दिनेश कुमार शनिवार 17 सितंबर को शाम 4 बजे आदेश पारित करेंगे।

अदालत ने हस्तक्षेपकर्ता की ओर से पेश एडवोकेट मनोहर लाल शर्मा, भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण (एएसआई) की ओर से पेश एडवोकेट सुभाष गुप्ता और अपीलकर्ता की ओर से पेश वकील को सुनने के बाद आदेश सुरक्षित रख लिया।

एएसआई ने तर्क दिया है कि हस्तक्षेप आवेदन इस कारण से खारिज करने योग्य है कि सिंह ने विशेष रूप से अपील में किसी भी अधिकार का दावा नहीं किया है और उनके पास पक्षकार होने का कोई अधिकार नहीं है।

एएसआई ने तर्क दिया कि सिंह ने कई राज्यों में फैले विशाल क्षेत्रों के अधिकारों का दावा किया था, हालांकि, वह पिछले 150 वर्षों से किसी अदालत के समक्ष कोई मुद्दा उठाए बिना बेकार बैठे थे।

एएसआई ने दावा किया कि पिछले साल, दिल्ली हाईकोर्ट ने सुल्ताना बेगम नामक महिला द्वारा दायर इसी प्रकार की एक याचिका को खारिज किया था, जिसमें लाल किले पर कब्जे की मांग की गई थी। याची ने खुद को अंतिम मुगल सम्राट बहादुर शाह जफर द्वितीय के परपोते की विधवा बताया था। अदालत का दरवाजा खटखटाने में अत्यधिक देरी होने के आधार पर उसकी याचिका खारिज कर दी गई।

अभियोग आवेदन

आवेदक ने कहा कि हस्तक्षेपकर्ता बेसवान परिवार का कर्ता है। वह राजा रोहिणी रमन ध्वज प्रसाद सिंह का उत्तराधिकारी है, जिनकी मृत्यु 1950 में हुई थी। आवेदन के अनुसार, बेसवान परिवार मूल रूप से राजा नंद राम के वंशज जाट हैं। उनकी 1695 में मृत्यु हुई थी।

आवेदन में प्रस्तुत किया गया था कि 1947 में ब्रिटिश भारत और अन्य प्रांत स्वतंत्र हो गए थे। तब राजा रोहिणी रमन ध्वज प्रसाद सिंह बेसवान अविभाज्य राज्य के शासक थे, जिसमें बेसवान एस्टेट, हाथरस एस्टेट, मुसरान एस्टेट और वृंदाबन एस्टेट शामिल थे। यह मेरठ से आगरा तक फैला था।

1950 में राजा रोहिणी रमन ध्वज की मृत्यु के बाद, संपत्ति उनके कानूनी वारिसों यानी 4 बेटों और दो विधवाओं (आवेदक सहित) को विरासत में मिली थी। 1695 के बाद से पैतृक भूमि और संपत्ति बेसवान परिवार में ही रही है।

आवेदक ने दावा किया कि 1947 में भारत की आजादी के बाद, भारत सरकार ने बेसवान अविभाज्य राज्य बेसवान के साथ ना कोई विलय समझौता किया और ना कोई संधि की। यह दावा किया गया है कि कोई अधिग्रहण प्रक्रिया भी नहीं हुई थी, इसलिए बेसवान अविभाज्य राज्य आज की तारीख में बेसवान परिवार के पास ही है।

आवेदक ने कहा है, "केंद्र सरकार, दिल्ली सरकार और उत्तर प्रदेश सरकार ने कानून की उचित प्रक्रिया के बिना आवेदक के कानूनी अधिकारों का अतिक्रमण किया है...।"  

तदनुसार, यह तर्क दिया गया कि दक्षिणी दिल्ली के अंतर्गत आने वाला क्षेत्र आवेदक के कानूनी अधिकारों के अंतर्गत है। विवाद का केंद्र कुतुबमीनार उक्त अधिकार क्षेत्र में स्थित है। यह माना गया कि इस मामले में कोई भी निर्णय आवेदक के कानूनी अधिकारों को नुकसान पहुंचाएगा।

मुख्य मुकदमा

मूल मुकदमे में, वादी ने आरोप लगाया था कि लगभग 27 हिंदू और जैन मंदिरों को उजाड़ कर मस्जिद का निर्माण किया गया है। हालांकि सिविल जज ने यह देखते हुए वाद को खारिज कर दिया था कि वाद पर पूजा स्थल अधिनियम 1991 के प्रावधानों के तहत रोक है, और कार्रवाई के कारण का खुलासा न करने के कारण सिविल प्रक्रिया संहिता के आदेश 7 नियम 11 (ए) के तहत याचिका को खारिज कर दिया था।

सिविल जज ने यह भी कहा था कि अतीत की गलतियां मौजूदा शांति को भंग करने का आधार नहीं हो सकती हैं और अगर इसकी अनुमति दी जाती है, तो संविधान के ताने-बाने, धर्मनिरपेक्ष चरित्र को नुकसान होगा।

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