'POCSO एक्ट की धारा 35 का अनुपालन नहीं करने से आरोपी को जमानत पर रिहा करने का अधिकार नहीं देता' : कर्नाटक हाईकोर्ट
कर्नाटक हाईकोर्ट ने कहा कि यौन अपराधों से बच्चों का संरक्षण (POCSO) अधिनियम की धारा 35 का अनुपालन नहीं करने से आरोपी को डिफ़ॉल्ट जमानत पर रिहा करने का अधिकार नहीं देता है।
POCSO एक्ट की धारा 35 में यह प्रावधान है कि विशेष न्यायालय द्वारा अपराध के संज्ञान लेने के तीस दिनों की अवधि के भीतर बच्चे के साक्ष्य को दर्ज किए जाएगा और यदि इसमें किसी तरह की देरी होती है तो देरी के कारणों को विशेष न्यायालय द्वारा दर्ज किया जाएगा। अधिनियम की धारा 35 इसके अलावा यह भी कहती है कि विशेष अदालत अपराध का संज्ञान लेने की तिथि से एक वर्ष की अवधि के भीतर मुकदमे को यथासंभव पूरा करेगी।
न्यायमूर्ति बीवी नागरत्न और न्यायमूर्ति एमजी उमा की खंडपीठ ने कहा कि,
"यदि विशेष न्यायालय के नियंत्रण से परे कारणों के लिए विशेष अदालत द्वारा संज्ञान लेने तीस दिनों की अवधि के भीतर बच्चे के साक्ष्य को दर्ज नहीं किया जाता है या यदि संज्ञान लेने की तारीख से एक वर्ष की अवधि के भीतर मुकदमा पूरा नहीं होता है तो आरोपी को जमानत पर रिहा नहीं किया जा सकता है।"
पीठ ने आगे कहा कि,
"POCSO अधिनियम की धारा 35 का उद्देश्य यह सुनिश्चित करना है कि पीड़ित बच्चे को जल्द से जल्द मामले की सुनवाई के लिए सुरक्षित किया जाए ताकि वह जल्द से जल्द समाज में पुनर्वासित हो सके और उसका पुनर्वास किया जा सके। उक्त प्रावधान को आरोपी के पक्ष में व्याख्यायित नहीं किया जाना चाहिए। यदि विशेष न्यायालय के नियंत्रण से परे कारणों के लिए विशेष अदालत द्वारा संज्ञान लेने तीस दिनों की अवधि के भीतर बच्चे के साक्ष्य को दर्ज नहीं किया जाता है या यदि संज्ञान लेने की तारीख से एक वर्ष की अवधि के भीतर मुकदमा पूरा नहीं होता है तो आरोपी को अनिवार्य़ रूप से जमानत पर रिहा नहीं किया जा सकता है।"
कोर्ट ने यह भी कहा कि POCSO अधिनियम के तहत पर्याप्त संख्या में अपेक्षित मानव संसाधनों और बुनियादी ढांचे के साथ विशेष न्यायालयों का गठन नहीं किया गया है। ट्रायल कोर्ट के लिए व्यवहारिक रूप से असंभव हो सकता है कि अधिकांश मामलों में उक्त न्यायालय द्वारा संज्ञान की तिथि से एक वर्ष के भीतर ट्रायल का समापन न हो पाया हो, लेकिन यह आरोपी को इस कारण से जमानत लेने का अधिकार नहीं देता है कि POCSO अधिनियम की धारा 35 का गैर-अनुपालन हुआ है।
पीठ ने कहा कि सीआरपीसी की धारा 164 के तहत दर्ज बयान POCSO अधिनियम की धारा 35 के तहत सबूत नहीं माना जा सकता है। इसमें आगे कहा गया कि सीआरपीसी की धारा 164 किसी भी मेट्रोपॉलिटन या न्यायिक मजिस्ट्रेट द्वारा एक जांच के दौरान दर्ज किए गए बयानों की रिकॉर्डिंग से संबंधित है, वहीं यह POCSO अधिनियम की धारा 25 और धारा 26 से संबंधित है। POCSO अधिनियम की 35 बच्चे के बयानों की रिकॉर्डिंग का काम नहीं करता, लेकिन बच्चे के साक्ष्य की रिकॉर्डिंग और मामले का निपटारन करता है।
पीठ ने POCSO अधिनियम की योजना और उद्देश्य पर ध्यान देते हुए से कहा कि,
" POCSO अधिनियम की धारा 42A के प्रावधानों के अनुसार POCSO अधिनियम की धारा 35 और सीआरपीसी के सामान्य प्रावधानों में असंगतता की स्थिति में POCSO की धारा 35 लागू होगी।"
कोर्ट ने कहा कि "हमारे विचार में इन दोनों को एक और समान रूप नहीं किया जा सकता है। जैसा कि पहले ही उल्लेख किया गया है कि सीआरपीसी की धारा 164 के तहत बयान जांच के दौरान या ट्रायल शुरू होने के किसी भी समय दर्ज किया जा सकता है, लेकिन POCSO अधिनियम की धारा 35 के तहत विशेष न्यायालय के समक्ष ट्रायल के दौरान साक्ष्य दर्ज किए गए जा सकते हैं। दोनों को समान नहीं कहा जा सकता है।
संदर्भ के बिंदु
एकल न्यायाधीश की खंडपीठ ने POCSO अधिनियम के तहत गिरफ्तार आरोपी हनुमंथा मोगेवारा की जमानत याचिका को खारिज कर दिया। याचिका में यह तर्क दिया गया कि POCSO अधिनियम की धारा 35 (1) के अनुसार ट्रायल कोर्ट द्वारा अपराध का संज्ञान लेने के तीस दिनों के भीतर बच्चे के साक्ष्य को दर्ज किया जाना था। यदि ऐसा दर्ज नहीं किया जाता है, तो देरी के कारणों को भी उक्त न्यायालय द्वारा दर्ज किया जाना चाहिए। इसके अलावा POCSO अधिनियम की धारा 35 (2) के अनुसार ट्रायल कोर्ट ने अपराधों पर संज्ञान लेने की तिथि से एक वर्ष की अवधि के भीतर ट्रायल पूरा नहीं किया है इसलिए याचिकाकर्ता / आरोपी को जमानत पर रिहा होने का अधिकार है।
कोर्ट ने विनय बनाम कर्नाटक राज्य के मामले में दिए आदेश पर भरोसा जताया।[क्रिमिनल पिटीशन नंबर. 1195/2017 को 13/07/2017 को निपटाया गया]
एकल न्यायाधीश ने विनय बनाम कर्नाटक राज्य के मामले में दिए गए आदेश पर विचार करते हुए कहा कि POCSO अधिनियम की धारा 35 (2) में प्रयुक्त जहां तक संभव हो अभिव्यक्ति होनी चाहिए और इसलिए विनय मामले में न्यायालय के आदेश पर संदेह करते हुए संदर्भ बनाया। अदालत ने कहा कि याचिकाकर्ता / आरोपी नंबर 1 को जमानत पर रिहा करने के लिए कोई मामला नहीं बनाता है और इसलिए याचिका खारिज कर दी गई।
विनय बनाम कर्नाटक राज्य मामले के निर्णय को भविष्य के मामलों के लिए एक मिसाल के तौर पर नहीं लिया जा सकता है।
कोर्ट ने कहा कि विनय बनाम कर्नाटक राज्य क्रिमिनल पिटीशन नंबर. 1195/2017 को 13/07/2017 को निपटाया गया]
मामले में किसी भी आदेश पर कुछ संदेह है। आरोपियों को जमानत देने के संबंध में साक्ष्य दर्ज करने में देरी होने या उस मामले में विशेष न्यायालय द्वारा संज्ञान लेने की तिथि से एक वर्ष की अवधि के भीतर मुकदमा पूरा नहीं होने के आधार पर जमानत नहीं दी जा सकती है। विनय मामले में दिया गया निर्णय अच्छा कानून नहीं है और इसे भविष्य के मामलों के लिए मिसाल के तौर पर नहीं लिया जा सकता है।
कोर्ट ने आगे कहा कि, " हम मानते हैं कि विनय मामले में पारित आदेश को भविष्य के मामलों में न्यायिक मिसाल के रूप में नहीं माना जा सकता है।"