आदेश 23 नियम 3 सीपीसी | विकृत समझौता डिक्री को वही न्यायालय वापस ले सकता है, इस तरह के डिक्री को अलग मुकदमे में चुनौती देने पर रोक: जेएंडके एंड एल हाईकोर्ट
जम्मू एंड कश्मीर एंड लद्दाख हाईकोर्ट ने बुधवार को कहा कि एक समझौता विलेख दरअसल पक्षों के बीच न्यायालय की डिक्री द्वारा आरोपित एक अनुबंध है और इस प्रकार की डिक्री को केवल उसी न्यायालय से संपर्क कर और उसके समक्ष यह प्रदर्शित करके टाला जा सकता है कि जिस समझौत के आधार पर डिक्री पारित की गई है, वह वैध नहीं है।
जस्टिस संजीव कुमार की पीठ ने उक्त टिप्पणी एक याचिका पर सुनवाई करते हुए की। याचिकाकर्ता ने संविधान के अनुच्छेद 226 के तहत असाधारण रिट क्षेत्राधिकार का आह्वान करते हुए मुंसिफ कोर्ट (अतिरिक्त विशेष मोबाइल मजिस्ट्रेट), बीरवाह द्वारा पारित एक डिक्री ओर जजमेंट को रद्द करने के लिए उत्प्रेषण लेख (Writ Of Certiorari) जारी करने की मांग की थी। याचिकाकर्ता ने आक्षेपित निर्णय और डिक्री को क्रियान्वित करने के लिए निचली अदालत के समक्ष दायर निष्पादन याचिका को रद्द करने की भी मांग की।
रिकॉर्ड को देखने के बाद अदालत ने पाया कि याचिकाकर्ता के खिलाफ प्रतिवादियों द्वारा दायर स्थायी निषेधाज्ञा के लिए एक दीवानी मुकदमा ट्रायल कोर्ट में लंबित था, पार्टियों ने एक समझौता किया...इस समझौता विलेख के आधार पर और दोनों पक्षों के बयान दर्ज करने के बाद, ट्रायल कोर्ट ने 13.11.2019 को एक समझौता डिक्री पारित की थी। इस आदेश को याचिकाकर्ता सहित सभी पक्षों ने स्वीकार कर लिया।
रिकॉर्ड से यह भी पता चला कि अक्टूबर 2021 में, डिक्री पारित होने के लगभग तीन साल बाद, याचिकाकर्ता ने सिविल प्रक्रिया संहिता के आदेश 23 नियम 3 के तहत एक आवेदन दायर करके समझौता विलेख को वापस लेने की प्रार्थना करते हुए ट्रायल कोर्ट का रुख किया। आधार यह था कि प्रतिवादियों ने याचिकाकर्ता से जबरदस्ती समझौता प्राप्त किया था।
निचली अदालत ने आवेदन पर विचार किया और 20 जुलाई, 2022 के आदेश द्वारा उसे खारिज कर दिया गया। ट्रायल कोर्ट द्वारा पारित यह आदेश और लंबित निष्पादन कार्यवाही के प्रश्न को रिट याचिका शामिल किया गया। इसके अतिरिक्त याचिकाकर्ता ने समझौता डिक्री, 13.11.2019 को रद्द करने की भी मांग की।
इस मामले पर निर्णय देते हुए जस्टिस कुमार ने कहा कि मौजूदा याचिका सुनवाई योग्य नहीं है, क्योंकि भारत के संविधान के अनुच्छेद 226 द्वारा निहित इस न्यायालय के असाधारण रिट क्षेत्राधिकार को सिविल न्यायालयों द्वारा पारित न्यायिक आदेशों को चुनौती देने के लिए लागू नहीं किया जा सकता है।
ऐसा कहते हुए बेंच ने राधेश्याम और एक अन्य बनाम छबिनाथ और अन्य (2015) में माननीय सुप्रीम कोर्ट के तीन-जजों की बेंच के फैसले पर भरोसा रखा।
मामले पर लागू कानून पर चर्चा करते हुए पीठ ने कहा कि आदेश 23 के नियम 3 में संलग्न स्पष्टीकरण के मद्देनजर, अनुबंध अधिनियम के तहत एक एग्रीमेंट या समझौता जो शून्य या शून्य करने योग्य है, उसे नियम के अर्थ में "वैध" नहीं माना जाएगा।
कोर्ट ने कहा,
एक समझौता डिक्री जो धोखाधड़ी, जबरदस्ती या गलत बयानी, अनुचित प्रभाव या गलती से दूषित है, उसी न्यायालय द्वारा आदेश 23 के नियम 3 के प्रावधान के तहत वापस ली जा सकती है और इस तरह के डिक्री को चुनौती देने के लिए अलग मुकदमा नियम 3 ए आदेश 23 सीपीसी द्वारा स्पष्ट रूप से वर्जित है।
कानून की उक्त स्थिति पर बल देते हुए पीठ ने आर जानकीअम्मल बनाम एसके कुमारसामी, (2021) में सुप्रीम कोर्ट की टिप्पणियों को दर्ज किया।
प्रतिवादी की इस दलील से निपटते हुए कि याचिकाकर्ता के पास जबरदस्ती के आधार पर समझौता डिक्री को चुनौती देने का उपाय अलग सूट के माध्यम से था, पीठ ने कहा कि समझौता विलेख अनिवार्य रूप से पार्टियों के बीच एक अनुबंध है जो कोर्ट की डिक्री द्वारा आरोपित है।
इस तरह की डिक्री को केवल उसी न्यायालय में जाकर और उसके समक्ष यह प्रदर्शित करके टाला जा सकता है कि समझौता जिसके आधार पर डिक्री पारित की गई है, वह वैध नहीं है और तदनुसार प्रतिवादी द्वारा आग्रह किया गया तर्क अस्थिर हो जाता है।
उक्त कानून को लागू करते हुए पीठ ने कहा कि यह सच है कि आक्षेपित निर्णय और डिक्री अपील योग्य नहीं है और धोखाधड़ी, जबरदस्ती या अनुचित प्रभाव से प्राप्त एक समझौता डिक्री को वापस लेने का उपाय नागरिक संहिता प्रक्रिया के आदेश -23 नियम -3 के तहत प्रदान किया गया है लेकिन जैसा कि ट्रायल कोर्ट ने ठीक ही देखा है, रिट याचिकाकर्ता डिक्री को वापस लेने का मामला बनाने में विफल रहा है।
तदनुसार पीठ ने याचिका खारिज कर दी।
केस टाइटल: अब्दुल मजीद गनई बनाम अब्दुल रहीम भट और अन्य
साइटेशन : 2022 लाइव लॉ (जेकेएल) 155