गैर-अनुसूचित जाति के व्यक्तियों द्वारा फर्जी जाति प्रमाण पत्र प्राप्त करना एससी/एसटी अधिनियम की धारा 3(1)(x) के तहत अपराध नहीं: कर्नाटक हाईकोर्ट
कर्नाटक हाईकोर्ट ने व्यवस्था दी है कि यदि अनुसूचित जाति/अनुसूचित जनजाति से संबंध न रखने वाले व्यक्ति फर्जी जाति प्रमाण पत्र प्राप्त करते हैं, तो उन पर अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति (अत्याचार की रोकथाम) अधिनियम की धारा 3(1)(x) के तहत मुकदमा नहीं चलाया जा सकता है।
न्यायमूर्ति श्रीनिवास हरीश कुमार की एकल पीठ ने दो आरोपित यमुना और विजया को आरोपमुक्त करते हुए कहा,
''यदि वैसे व्यक्ति द्वारा गलत सूचना के आधार पर फर्जी प्रमाण पत्र हासिल कर लिया जाता है जो अनुसूचित जाति/अनुसूचित जनजाति से संबंधित नहीं होते हैं, तो इसका मतलब यह नहीं है कि लोक सेवक उस सदस्य के खिलाफ कार्रवाई करने के लिए प्रेरित हो।"
इसमें कहा गया,
"आरोप पत्र में उक्त प्रावधान को लागू नहीं किया जा सकता है, भले ही तर्क के लिए यह मान लिया जाए कि झूठी जानकारी देकर प्रमाण पत्र प्राप्त किए गए हैं। इस दृष्टि से याचिकाकर्ताओं के खिलाफ आरोप पत्र दाखिल करना अवांछित था।"
केस पृष्ठभूमि:
याचिकाकर्ताओं पर उक्त अपराध के लिए इस आरोप पर मुकदमा चलाया गया था कि उन्होंने खुद को मराठी जाति का सदस्य होने की बात प्रदर्शित करने को लेकर झूठे जाति प्रमाण पत्र पेश किए, जो अनुसूचित जनजाति की श्रेणी में आता है।
इस अपराध के लिए अधिनियम की धारा 3(1)(x) के तहत आरोप पत्र दायर किया गया था। याचिकाकर्ताओं ने सीआरपीसी की धारा 227 के तहत आवेदन दायर कर आरोप मुक्त किये जाने की मांग की। निचली अदालत ने दिनांक 22.8.2012 को जारी अपने आदेश द्वारा उनके आवेदनों को खारिज कर दिया था और इसलिए ये पुनरीक्षण याचिकाएं दायर की गयी थीं।
याचिकाकर्ताओं की दलील
याचिकाकर्ताओं के लिए एडवोकेट नटराज बल्लाल और एडवोकेट सुयोग हेरेले ने दलील दी कि जाति प्रमाण पत्र 1977 और 1983 में जारी किए गए थे। जब ये जाति प्रमाण पत्र जारी किए गए थे, तब अधिनियम अस्तित्व में नहीं था, इसे वर्ष 1989 में लागू किया गया था। इस प्रकार यह उस समय अपराध नहीं था, जब जाति प्रमाण पत्र जारी किए गए थे।
दूसरे यह भी दलील दी गयी कि यह मान भी लिया जाए कि याचिकाकर्ताओं द्वारा प्रमाण पत्र गलत तरीके से प्राप्त किए गए हैं, तो भी अधिनियम की धारा 3(1)(ix) के प्रावधान आकर्षित नहीं होते हैं।
इसमें कहा गया था,
"यह दिखाने के लिए कुछ भी नहीं है कि एक लोक सेवक को झूठी जानकारी देकर, याचिकाकर्ताओं का इरादा उस लोक सेवक को अनुसूचित जाति या अनुसूचित जनजाति के सदस्य को नाराज़ करने के लिए प्रेरित करना था।"
अभियोजन पक्ष ने किया याचिका का विरोध
एडवोकेट विश्व मूर्ति ने कहा,
"ट्रायल कोर्ट द्वारा कहा गया है कि आरोप तय करते समय केवल रिकॉर्ड पर उपलब्ध सामग्री पर ही विचार किया जाना चाहिए ताकि यह पता लगाया जा सके कि आरोप तय करने का कोई मामला है या नहीं। यह अदालत के लिए विचार करना आवश्यक नहीं है कि क्या आरोपी को दोषी ठहराया जा रहा है या नहीं और इस तरह का निष्कर्ष मुकदमा चलाने के बाद ही निकाला जा सकता है।''
इसके अलावा, ट्रायल कोर्ट ने कुछ अधिकारियों को संदर्भित किया है कि याचिकाकर्ताओं ने अब सीआरपीसी की धारा 227 के तहत अपने आवेदनों को खारिज करने के लिए भरोसा जताया है। आदेश में कोई खामियां नहीं हैं।
कोर्ट के निष्कर्ष:
सबसे पहले अदालत ने कहा,
"इसमें कोई विवाद नहीं है कि ये जाति प्रमाण पत्र 1977 और 1983 में जारी किए गए थे। इसलिए यह बहुत स्पष्ट हो जाता है कि जब जाति प्रमाण पत्र जारी किए गए थे, तब अधिनियम बिल्कुल भी लागू नहीं किया गया था, यह 30.1.1990 से लागू हुआ था।"
भारत के संविधान के अनुच्छेद 20(1) का उल्लेख करते हुए, जो इस प्रकार कहता है,
अपराध के रूप में आरोपित अधिनियम के शुरू होने के समय लागू कानून के उल्लंघन के अलावा किसी भी व्यक्ति को किसी भी अपराध के लिए दोषी नहीं ठहराया जाएगा, और न ही उससे अधिक दंड के अधीन किया जाएगा जो अपराध किये जाने के समय लागू कानून के तहत लगाया गया हो सकता है।
कोर्ट ने कहा, "याचिकाकर्ताओं को अधिनियम की धारा 3(1)(ix) के तहत अपराध के लिए चार्जशीट किया गया है। भारत के संविधान के अनुच्छेद 20(1) के मद्देनजर, उन पर धारा 3(1)(ix) के तहत अपराध के लिए मुकदमा नहीं चलाया जा सकता है, क्योंकि अधिनियम के रूप में कानून उस दिन मौजूद नहीं था जब प्रमाण पत्र जारी किए गए थे।"
इसके अलावा, कोर्ट ने स्पष्ट किया कि आरोप तय करते समय ट्रायल कोर्ट को यह जांचना चाहिए कि आरोप पत्र में कोई अपराध बताया गया है या नहीं। जब सीआरपीसी की धारा 227 के तहत एक अर्जी दी जाती है, तो ट्रायल कोर्ट के पास एक आरोपी को आरोपमुक्त करने की सभी शक्तियाँ होती हैं यदि चार्जशीट में कोई अपराध किए जाने का संकेत नहीं होता है। आरोप तय करने के समय भी, ट्रायल कोर्ट के पास यह जांचने की पर्याप्त शक्ति है कि क्या अपराध किया गया है या नहीं, और यदि चार्जशीट से कोई अपराध सामने नहीं आता है, तो सीआरपीसी की धारा 227 के तहत अधिकार क्षेत्र का इस्तेमाल अभियुक्त को आरोपमुक्त करने के लिए किया जा सकता है।
कोर्ट ने इसके बाद कहा,
"इस मामले में, जाहिर तौर पर ट्रायल कोर्ट ने सीआरपीसी की धारा 227 के तहत इस गलत धारणा के तहत अधिकार क्षेत्र का प्रयोग नहीं किया है कि केवल हाईकोर्ट ही चार्जशीट को रद्द कर सकता है। वास्तव में हाईकोर्ट चार्जशीट को रद्द कर सकता है, और साथ ही यदि सीआरपीसी की धारा 227 के तहत आरोपमुक्त करने की मांग की जाती है, तो सत्र न्यायालय या विशेष अदालत आरोपी को आरोप मुक्त कर सकती है, यदि कोई अपराध नहीं बनता है तो।"
तदनुसार, इसने याचिकाओं को स्वीकार किया और अभियुक्तों को बरी कर दिया।
केस टाइटल: यमुना एंड द स्टेट
मामला संख्या: सीआरएल.आरपी.सं.989/2012
साइटेशन : 2022 लाइव लॉ (कर्नाटक) 25
आदेश की तिथि: 11 जनवरी, 2022
पेशी: याचिकाकर्ता के लिए एडवोकेट नटराज बल्लाल और एडवोकेट सुयोग हेरेले ए/डब्ल्यू एडवोकेट अरुणा श्याम और प्रतिवादी के लिए एडवोकेट विश्व मूर्ति।
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