ट्रांसजेंडर आरक्षण के खिलाफ NLSIU की याचिका पर सुनवाई से अलग हुए एक्टिंग चीफ जस्टिस
कर्नाटक हाईकोर्ट के एक्टिंग चीफ जस्टिस वी. कामेश्वर राव ने गुरुवार को नेशनल लॉ स्कूल ऑफ इंडिया यूनिवर्सिटी (NLSIU) की उस अपील पर सुनवाई से खुद को अलग कर लिया, जिसमें यूनिवर्सिटी ने ट्रांसजेंडर व्यक्तियों को दाखिले में 0.5% आरक्षण देने के एकल पीठ के आदेश को चुनौती दी थी।
चीफ जस्टिस राव की अध्यक्षता वाली पीठ ने कुछ देर सुनवाई के बाद यह पाया कि यूनिवर्सिटी की शासी परिषद में हाईकोर्ट के चीफ जस्टिस सदस्य होते हैं।
एक्टिंग चीफ जस्टिस होने के नाते जस्टिस राव उस परिषद का हिस्सा होते हैं। इस स्थिति को देखते हुए उन्होंने खुद को इस मामले से अलग करने का निर्णय लिया।
खंडपीठ में शामिल जस्टिस सीएम जोशी के साथ यह आदेश पारित करते हुए कहा गया,
"यह मामला कल (शुक्रवार) पुनः सूचीबद्ध किया जाएगा उस पीठ के समक्ष जिसमें एक्टिंग चीफ जस्टिस सदस्य नहीं हैं।"
NLSIU की दलीलें
NLSIU की ओर से सीनियर एडवोकेट के. जी. राघवन ने कहा कि एकल पीठ द्वारा ट्रांसजेंडर व्यक्तियों को आरक्षण देने का आदेश गंभीर त्रुटि है।
उन्होंने बताया कि 3-वर्षीय LLB (ऑनर्स) प्रोग्राम में एडमिशन के लिए 16 जनवरी 2023 को अधिसूचना जारी की गई और कक्षाएं जुलाई में शुरू हुईं। कुल सीटें 120 थीं और आरक्षण नीति पहले ही सार्वजनिक की जा चुकी थी।
उन्होंने कहा कि उत्तरदाता (ट्रांसजेंडर उम्मीदवार) ने उसी अधिसूचना के आधार पर आवेदन किया और सामान्य श्रेणी में चयन न होने के बाद अब आरक्षण की मांग कर रहे हैं।
राघवन ने कहा कि एकल पीठ के आदेश के अनुसार यह वर्टिकल आरक्षण (अलग श्रेणी) है, जबकि संविधानिक ढांचे में चार प्रमुख आरक्षण श्रेणियां ही मान्य हैं। ट्रांसजेंडर को पांचवीं श्रेणी के रूप में जोड़ना क्या न्यायालय द्वारा संभव है? क्या यह आरक्षण ओबीसी के भीतर आना चाहिए? यदि हां, तो उसका प्रतिशत कितना होगा?
उन्होंने कहा कि NALSA मामले में सुप्रीम कोर्ट ने केवल पहचान और अधिकार देने की बात की थी आरक्षण देने का निर्देश नहीं दिया। वह राज्य सरकार का कार्यक्षेत्र है। इस मामले में तो राज्य की भी कोई भूमिका नहीं है, क्योंकि NLSIU एक स्वतंत्र संस्थान है।
न्यायालय की टिप्पणी
कोर्ट ने पूछा कि यदि ट्रांसजेंडर के लिए आरक्षण दिया गया तो क्या इससे अन्य वर्ग प्रभावित होंगे?
राघवन ने उत्तर दिया कि यह हॉरिजॉन्टल नहीं बल्कि वर्टिकल आरक्षण है। इसका कोई वैज्ञानिक या सांख्यिकीय आधार नहीं दिया गया।
कहा गया,
"0.5% क्यों? 1% क्यों नहीं? यह कैसे तय किया गया?"
उन्होंने कहा कि आरक्षण नीति तय करने से पहले एक व्यापक अध्ययन आवश्यक होता है।
उन्होंने यह भी कहा कि याचिकाकर्ता (ट्रांसजेंडर स्टूडेंट) ने आवेदन के समय किसी आरक्षित श्रेणी का उल्लेख नहीं किया। बाद में वित्तीय सहायता मांगी थी जिसे यूनिवर्सिटी ने अंतरिम आदेश के तहत दिया।
राघवन ने अदालत से कहा कि यह मामला नीतिगत है व्यक्तिगत लाभ या हानि से जुड़ा नहीं है। “क्या अदालत ऐसी नीतियों में हस्तक्षेप कर सकती है? क्या यह संविधान की सीमाओं को पार नहीं करता?”
उन्होंने कहा कि इस प्रकार का निर्देश संविधान के अनुच्छेद 226 के अंतर्गत नहीं दिया जा सकता।
उन्होंने यह भी तर्क दिया कि यह याचिका व्यक्तिगत हित से जुड़ी थी, जिसे बीच में ही जनहित याचिका (PIL) में बदल दिया गया जो कि प्रक्रियात्मक रूप से गलत है।
निष्कर्ष
राघवन ने कहा कि यूनिवर्सिटी ने एकल पीठ के आदेश के अनुसार प्रवेश की पेशकश की, लेकिन स्टूडेंट ने वह स्वीकार नहीं किया।
“हमने अपनी नीति के अनुसार वित्तीय सहायता भी दी। बैंक लोन की भी व्यवस्था थी। लेकिन छात्र ने दाखिला नहीं लिया और अब पूरी नीति को चुनौती दी जा रही है।”
अंततः उन्होंने तर्क दिया कि एकल पीठ का आदेश अपने अधिकार क्षेत्र से बाहर जाकर दिया गया और यह न्यायालय द्वारा विधायी कार्य करने जैसा है।