'मुस्लिम कानून विवाह पूर्व यौन संबंध को मान्यता नहीं देता; कुरान के तहत व्यभिचार एक अपराध': इलाहाबाद हाईकोर्ट ने अंतरधार्मिक लिव-इन जोड़े को राहत देने से इनकार किया

Update: 2023-06-24 09:54 GMT

इलाहाबाद हाईकोर्ट ने अंतरधार्मिक लिव-इन जोड़े की एक याचिका, जिसमें उन्होंने पुलिस के हाथों हाथों कथित उत्पीड़न के खिलाफ सुरक्षा की मांग की थी, को खारिज़ कर दिया। हाईकोर्ट ने अपने फैसले में टिप्पणी की कि इस्लाम में विवाह से पहले किसी भी प्रकार का यौन, वासनापूर्ण, स्नेहपूर्ण कृत्य जैसे चुंबन, स्पर्श, घूरना आदि वर्जित है।

यह देखते हुए कि युगल/याचिकाकर्ताओं [29 वर्षीय हिंदू महिला और 30 वर्षीय मुस्लिम पुरुष] ने निकट भविष्य में शादी की इच्छा व्यक्त नहीं की है, जस्टिस संगीता चंद्रा और जस्टिस नरेंद्र कुमार जौहरी की पीठ ने कहा कि मुस्लिम कानून में विवाहेतर यौन संबंध को कोई मान्यता नहीं दी जा सकती।

"ज़िना, जिसे पति और पत्नी के बीच यौन संबंध से इतर, यौन संबंध के रूप में परिभा‌षित किया गया है, में विवाहेतर यौन संबंध और विवाह पूर्व यौन संबंध शामिल किया गया है, और इसे अक्सर अंग्रेजी में व्यभिचार के रूप में अनुवादित किया जाता है। इस्लाम में इस प्रकार के विवाह पूर्व यौन संबंध की अनुमति नहीं है। वास्तव में विवाह से पहले किसी भी प्रकार का यौन, वासनापूर्ण, स्नेहपूर्ण कार्य जैसे कि चुंबन, स्पर्श, घूरना आदि इस्लाम में "हराम" हैं, इन्हें 'ज़िना' का हिस्सा माना जाता है।"

पीठ ने कहा, "कुरान (अध्याय 24) के अनुसार व्यभिचार के लिए अविवाहित पुरुष और महिला के लिए सौ कोड़े की सजा है, साथ ही विवाहित पुरुष और महिला के लिए 'सुन्नत' के अनुसार पत्थर मारकर हत्या करने की सजा है।"

मामले में मुस्लिम महिला की मां, लिव इन रिलेशन से नाखुश है। जिसके बाद दोनों खिलाफ एफआईआर दर्ज की गई है।

याचिका में जोड़े ने अन्य बातों के साथ यह भी कहा ‌था कि पुलिस उनका उत्पीड़न कर रही है, इसलिए, उन्हें अदालत सुरक्षा प्रदान करने का निर्देश दे। उन्होंने कहा था कि उनका मामला लता सिंह बनाम उत्तर प्रदेश राज्य (2006) के मामले में सुप्रीम कोर्ट के फैसले के अनुरूप है।

इस बिंदु पर न्यायालय ने कहा कि सुप्रीम कोर्ट द्वारा 'लिव-इन' रिश्तों के संबंध में व्यक्त किए गए विचारों को "ऐसे रिश्तों को बढ़ावा देने वाला नहीं माना जा सकता"।

अन्‍य मामले [डी वेलुसामी बनाम डी पचैअम्माल (2010), नंदकुमार बनाम केरल राज्य (2018), धनु लाल बनाम गणेश राम (2015), आदि] में अन्य मामलों में सुप्रीम कोर्ट की टिप्पणियों का हवाला देते हुए, जिसमें सुप्रीम कोर्ट ने देश के कानून के आलोक में ‌लिव-इन संबंधों की प्रकृति की चर्चा की थी, हाईकोर्ट ने कहा,

"हालांकि सुप्रीम कोर्ट की उपरोक्त टिप्पणियों को ऐसे रिश्तों को बढ़ावा देने वाला नहीं माना जा सकता है। कानून परंपरागत रूप से विवाह के पक्ष में रहा है। यह विवाह की संस्था को संरक्षित और प्रोत्साहित करने के लिए विवाहित व्यक्तियों के लिए कई अधिकार और विशेषाधिकार सुरक्षित रखता है। सुप्रीम कोर्ट बस एक सामाजिक वास्तविकता को स्वीकार किया है और इसका भारतीय पारिवारिक जीवन के ताने-बाने को उजागर करने का कोई इरादा नहीं है।"

हाईकोर्ट ने अपने आदेश में लिव-इन संबंधों के कारण पैदा भावनात्मक और सामाजिक दबावों और कानूनी बाधाओं के बारे में युवा मन में जागरूकता पैदा करने की आवश्यकता पर भी जोर दिया।

न्यायालय ने यह मानते हुए कि याचिकाकर्ताओं का कहना है कि बालिग होने के कारण वे किसी के भी साथ रहने के हकदार हैं और याचिकाकर्ता एक की मां इस रिश्ते से नाखुश है, कहा,

"असाधारण क्षेत्राधिकार होने के कारण रिट क्षेत्राधिकार को दो निजी पक्षों के बीच इस प्रकार के विवाद को हल करने के लिए नहीं बनाया गया है। हमारा मानना है कि यह एक सामाजिक समस्या है्र जिसे सामाजिक रूप से उखाड़ा जा सकता है, न कि अनुच्छेद 21 के उल्लंघन की आड़ में रिट कोर्ट के हस्तक्षेप से, जब तक कि उत्पीड़न संदेह से परे साबित न हो जाए।"

न्यायालय ने कहा कि यदि किसी लिव-इन जोड़े की अपने माता-पिता या रिश्तेदारों के खिलाफ कोई वास्तविक शिकायत है, जो कथित तौर पर उनके लिव-इन स्टेटस में हस्तक्षेप कर रहे हैं, जो इस हद तक बढ़ जाता है कि जीवन को खतरा है, तो उन्हें धारा 154 (1) या धारा 154 (3) सीआरपीसी के तहत एफआईआर दर्ज करने, सक्षम न्यायालय के समक्ष धारा 156 (3) सीआरपीसी के तहत आवेदन दायर करने या धारा 200 सीआरपीसी के तहत शिकायत दर्ज करने की स्वतंत्रता है।

केस टाइटलः किरण रावत और अन्य बनाम यूपी राज्य Thru. Secy. Home, Lko. And Others 2023 LiveLaw (AB) 201 [CRIMINAL MISC. WRIT PETITION No. - 3310 of 2023]

केस सिटेशन: 2023 लाइव लॉ (एबी) 201

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