अपवाद के रूप में मध्य प्रदेश हाईकोर्ट ने की ओपन कोर्ट में सुनवाई, बच्चे के लगाव को देखते हुए उसकी मां को कस्टडी सौंपी
अपवाद के रूप में एक मामले की ओपन कोर्ट में सुनवाई करते हुए मध्य प्रदेश हाईकोर्ट ने बुधवार को एक अधीनस्थ अदालत के उस फैसले को खारिज कर दिया है ,जिसमें एक तीन साल के बच्चे की कस्टडी उसके पिता को सौंपने की अनुमति दे दी गई थी। न्यायालय ने कहा कि बच्चे का वात्सल्य व लगाव अपनी मां से ज्यादा है।
न्यायमूर्ति एससी शर्मा की पीठ ने कहा, ''हालांकि, यह अदालत केवल वीडियो कांफ्रेंसिंग के माध्यम से मामलों की सुनवाई कर रही है,परंतु इस मामले को एक अपवाद के रूप में लेते हुए इसकी सुनवाई ओपन या खुली कोर्ट में की गई है।'' पीठ ने कहा कि ''जब बच्चे को उसकी मां के पास जाने की अनुमति दी गई तो उसने तुरंत अपनी मां के साथ खेलना शुरू कर दिया।''
एकल पीठ ने अपना विचार प्रकट करते हुए कहा कि-
''वह अपनी मां के साथ बहुत खुश हैऔर यह अदालत वास्तव में यह समझने में विफल रही है कि कैैसे इस मामले में यह टिप्पणी कर दी गई है कि अगर बच्चा अपनी मां के साथ रहता है तो यह बच्चे को भावनात्मक और मानसिक रूप से प्रभावित करेगा। वह बहुत कम उम्र का एक छोटा सा बच्चा है और वह अपनी मां के साथ खुश है।''
वर्तमान रिट याचिका 6 जनवरी 2020 को प्रधान न्यायाधीश, मंदसौर द्वारा पारित एक आदेश के खिलाफ दायर की गई थी। उस आदेश में हिंदू अप्राप्तवयता और संरक्षकता अधिनियम 1956 की धारा 12 के तहत दायर एक आवेदन पर विचार करते हुए पीठासीन अधिकारी ने एक तीन साल के बच्चे की कस्टडी उसके पिता को सौंप दी थी। 14 जनवरी 2020 को इस मामले में हाईकोट का रुख किया गया। मामले में नोटिस जारी किए गए थे, हालांकि, लॉकडाउन के कारण मामले की सुनवाई नहीं हुई। अंत में 25 जून 2020 को वीडियो कॉन्फ्रेंसिंग के माध्यम से इस मामले को सुना गया और न्यायालय ने पिता को बच्चे को उपस्थित रखने का निर्देश दिया।
सोमवार को दिए गए आदेश में एकल पीठ ने कहा कि प्रधान न्यायाधीश द्वारा छह जनवरी 2020 को पारित आदेश को देखने के बाद पाया गया है कि पिछले छह महीनों से बच्चा अपने पिता, दादा और दादी के साथ रह रहा था। सर्वोच्च न्यायालय के विभिन्न निर्णयों पर चर्चा करने के बाद पीठासीन अधिकारी ने कहा था कि ऐसी स्थिति में अगर बच्चे को उसके पिता से अलग कर दिया गया तो यह बच्चे की मानसिक स्थिति पर प्रतिकूल प्रभाव डाल सकता है।
एकल पीठ ने कहा कि-
''इस तरह की सामान्य या आकस्मिक टिप्पणियों को छोड़कर इस मामले में किसी तथ्य पर विचार नहीं किया गया,खासतौर पर हिंदू अप्राप्तवयता और संरक्षकता अधिनियम 1956 की धारा 6 के तहत बताए गए वैधानिक प्रावधानों पर।''
न्यायमूर्ति शर्मा ने आगे कहा कि ''यह सच है कि गार्जियन और वार्ड एक्ट 1890 की धारा 17 (2) को ध्यान में रखते हुए बच्चे का कल्याण सर्वोपरि है।''हालांकि ''अदालत इस बात के लिए भी बाध्य है कि वह निर्णय लेते समय उम्र,लिंग,धर्म और अन्य कारकों को भी ध्यान में रखे।''
वर्तमान मामले में अदालत ने इस बात की भी सराहना की है कि वह एक ऐसे नाबालिग बच्चे की कस्टडी के मामले की सुनवाई कर रही थी,जिसमें पत्नी भी एक अच्छे परिवार से संबंध रखती है। वह अपना खर्च उठाने में सक्षम है और ''यह किसी का मामला नहीं था कि पत्नी के पास बच्चे की देखभाल करने के लिए आय नहीं है।''
हाईकोर्ट ने निर्देश देते हुए कहा कि, '' बच्चा अपनी मां के साथ खुश है। इसलिए इस मामले को नियंत्रित करने वाले वैधानिक प्रावधानों को ध्यान में रखते हुए बच्चे की कस्टडी उसकी मां को सौंपी जा रही है।''
मिश्रित याचिका संख्या -274/2020
श्रीमती सोनू भाटी बनाम सूरज भाटी