जल्द युवावस्था तक पहुंचने वाली बच्ची की देखभाल के लिए पिता की बजाय मां को प्राथमिकता मिलती हैः बॉम्बे हाईकोर्ट
बॉम्बे हाईकोर्ट ने यह देखते हुए कि एक लड़की के विकास के चरण के दौरान दादी या चाची मां का विकल्प नहीं हो सकती हैं, हाल ही में कहा है कि युवावस्था की उम्र प्राप्त करने वाली लड़की की कस्टडी का निर्णय करते समय उसके पिता की तुलना में उसकी मां को प्राथमिकता दी जाती है।
जस्टिस शर्मिला यू देशमुख की पीठ ने तलाक के एक मामले में फैमिली कोर्ट के उस आदेश को बरकरार रखा है, जिसमें 8 वर्षीय लड़की की अंतरिम कस्टडी उसकी मां, जो एक डॉक्टर भी है, को सौंप दी है और पिता को बच्ची से मुलाक़ात करने का अधिकार दिया गया है।
कोर्ट ने माना,“लगभग 8 वर्ष की आयु की लड़की में हार्माेनल परिवर्तन और शारीरिक परिवर्तन भी होंगे और लड़की के विकास के इस चरण के दौरान बहुत अधिक देखभाल की जानी होती है और दादी या चाची या बुआ उसकी मां का विकल्प नहीं हो सकती हैं, जो एक योग्य डॉक्टर भी है। जीवन के इस चरण के दौरान, लड़की को एक ऐसी महिला की देखभाल और ध्यान की आवश्यकता होती है जो लड़की के परिवर्तन की प्रक्रिया को बेहतर ढंग से समझ सके और इस प्रकार, इस चरण में मां को पिता के मुकाबले प्राथमिकता दी जाती है।’’
इस कपल की शादी फरवरी 2010 में हुई और जनवरी 2015 में उनकी एक बेटी हुई। पति ने आरोप लगाया कि उसने नवंबर 2019 में चैट देखी, जिसमें उसकी पत्नी के विवाहेतर संबंधों में शामिल होने का संकेत मिला, जिससे उनके बीच विवाद हुआ। इसके बाद, पत्नी ने नाबालिग बच्ची की अंतरिम कस्टडी के लिए आवेदन के साथ अपने पति के खिलाफ घरेलू हिंसा की शिकायत दर्ज कराई। जनवरी 2020 में पति ने फैमिली कोर्ट में तलाक के लिए अर्जी दायर की और अपनी नाबालिग बच्ची की स्थायी कस्टडी की मांग की।
फ़ैमिली कोर्ट, बांद्रा ने लड़की की अंतरिम कस्टडी उसकी मां को और मुलाक़ात का अधिकार पिता को दिया। इस प्रकार, पति ने फैमिली कोर्ट के आदेश को चुनौती देते हुए वर्तमान याचिका दायर की।
पति की ओर से वरिष्ठ अधिवक्ता राजीव पाटिल ने तर्क दिया कि नाबालिग बच्चे की आराम, सुरक्षा और सुविधा को प्राथमिकता दी जानी चाहिए। उन्होंने तर्क दिया कि संयुक्त परिवार के समर्थन को देखते हुए, यदि वह पिता के साथ रहेगी तो बच्ची का सर्वाेत्तम हित पूरा होगा। उन्होंने यह भी दावा किया कि बच्ची ने अपनी मां की कस्टडी में परेशानी और नाखुशी व्यक्त की थी, जैसा कि उसके पिता को लिखे नोट्स से पता चलता है।
पति ने आगे एक मनोचिकित्सक की रिपोर्ट पेश की जिसमें बच्ची की भावनात्मक परेशानी का संकेत दिया गया है। उसने व्यभिचार के आरोपों पर जोर दिया और तर्क दिया कि अगर बच्ची की कस्टडी उसकी मां को सौंप दी जाती है तो उसके नैतिक और नीतिपरक कल्याण की रक्षा नहीं की जा सकती है।
पत्नी के वकील आशुतोष कुलकर्णी ने तर्क दिया कि फैमिली कोर्ट द्वारा उसे अंतरिम कस्टडी देने का आदेश एकदम संतुलित था,जिसमें बच्ची की पिता के साथ पहुंच और मुलाक़ात के अधिकारों को ध्यान में रखा गया है। उन्होंने इस बात पर जोर दिया कि बच्ची युवावस्था से पहले की अवस्था में थी, उसे अपनी मां की देखभाल और ध्यान की आवश्यकता थी, जो एक डॉक्टर भी है। उन्होंने आगे आरोप लगाया कि पिता माता-पिता के अलगाव में लगे हुए थे, जिससे बच्चे के मन में मां के खिलाफ जहर भर रहा था।
जस्टिस देशमुख ने दर्ज किया कि चैंबर में बच्ची के साथ बातचीत करने के बाद उन्होंने पाया कि बच्ची प्रतिभाशाली है। अदालत ने दर्ज किया कि लड़की ने अपने पिता के साथ रहने की इच्छा व्यक्त की।
अदालत ने कहा, “...सवाल यह है कि क्या इस छोटी उम्र में बच्चे को परिपक्व सोच का आशीर्वाद दिया गया है ताकि वह अपने कल्याण के संबंध में एक बुद्धिमान प्राथमिकता बना सके। मेरे विचार में, उत्तर नकारात्मक है क्योंकि इस उम्र में, बच्चा आमतौर पर उसके तत्काल आराम से प्रेरित होता है। उसकी इच्छाएं उन कारकों में से एक हैं जिन्हें वर्तमान मुद्दे पर निर्णय लेते समय ध्यान में रखा जाना आवश्यक होगा।’’
कोर्ट ने कहा कि पति की तलाक याचिका में बताए गए तथ्यों से यह नहीं पता चलता है कि उसके परिवार का कोई भी सदस्य बच्ची की रोजमर्रा की जरूरतों की देखभाल में सक्रिय रूप से भाग लेता है। दूसरी ओर, मां के पास पार्ट-टाइम नौकरी है, और उसकी उपस्थिति बच्ची की दिन-प्रतिदिन की जरूरतों के साथ-साथ उसकी शैक्षणिक गतिविधियों का ख्याल रखने के लिए सुनिश्चित है।
अदालत ने कहा कि व्यभिचार के आरोप निर्णायक रूप से स्थापित नहीं हुए हैं, और इस स्तर पर पति यह प्रदर्शित करने में सक्षम नहीं है कि मां को बच्ची की कस्टडी सौंपना, बच्ची के नैतिक और नीतिपरक कल्याण के लिए हानिकारक है।
हाईकोर्ट ने कहा कि बच्ची दिसंबर 2019 से अपने पिता के पास थी और फरवरी 2023 में उसकी कस्टडी मां को दे दी गई। अदालत ने नई कस्टडी व्यवस्था के लिए बच्चे के अनुकूलन को मान्यता दी और कहा कि उसकी शिकायतें अनुशासन के प्रति बच्चे का प्रतिरोध हैं। अदालत ने माता-पिता के अलगाव को रोकने के लिए बच्ची और मां के बीच बंधन को बनाए रखने के महत्व पर जोर दिया।
अदालत ने दोहराया कि बच्चे के कल्याण में शारीरिक और मानसिक कल्याण, स्वास्थ्य, आराम और समग्र सामाजिक और नैतिक विकास शामिल है।
इस प्रकार, अदालत ने पाया कि बच्ची की उम्र, लिंग और एक डॉक्टर के रूप में मां की भूमिका पर विचार करते हुए, मां को अंतरिम कस्टडी सौंपकर बच्ची के कल्याण की सबसे अच्छी सेवा की गई है।
केस टाइटल - एबीसी बनाम एक्सवाईजेड
मामला संख्या- रिट याचिका संख्या 2048/2023
ऑर्डर पढ़ने/डाउनलोड करने के लिए यहां क्लिक करें