साझेघर में निवास के मामले में सास को मालकिन होने के नाते बहू के खिलाफ बेदखली का दावा करने से नहीं रोका गया : दिल्ली हाईकोर्ट

Update: 2021-12-15 02:00 GMT

संपत्ति पर कब्जे के एक मामले के तथ्यों पर दिल्ली हाईकोर्ट ने कहा है कि सास पर संपत्ति की मालकिन होने के नाते अपनी बहू के खिलाफ बेदखली का दावा करने के संबंध में कोई रोक नहीं है, भले ही निवास एक साझा घर है।

न्यायमूर्ति आशा मेनन ने कहा, '

'यहां एक निवास स्पष्ट रूप से एक साझा घर है, यह मालिक, वादी को अपनी बहू के खिलाफ बेदखली का दावा करने से नहीं रोकता है(अगर हालात ऐसे बन जाते हैं)।''

बेंच ने इस प्रकार एक सास के पक्ष में और बहू और उसकी मां के खिलाफ कब्जा करने का एक आदेश दिया है। जबकि बहू व उसकी मां को परिसर खाली करने के लिए तीन महीने का समय दिया गया है।

पृष्ठभूमि

यह मामला एक संपत्ति के संबंध में कब्जे, नुकसान और स्थायी निषेधाज्ञा की मांग के एक दीवानी मुकदमे से उत्पन्न हुआ है, जिसमें सास ने संपत्ति की एकमात्र और पूर्ण मालिक होने का दावा किया है।

सास ने बहू और उसकी मां के खिलाफ मुकदमा दायर किया था। वादी के बेटे की मृत्यु 29 सितंबर, 2020 को हो गई थी। बहू 27 अगस्त, 2014 को अपनी शादी के होने के बाद से वाद परिसर में रह रही है।

बहू का मामला यह है कि वाद की संपत्ति में सास का केवल जीवन भर का हित था। आगे यह भी कहा गया कि सास ने खुद 16 दिसंबर, 2019 को एक पंजीकृत वसीयतनामा किया, जिसमें यह स्वीकार किया गया था कि बहू अपने पति के साथ साझा घर में रह रही है, इसलिए संपत्ति की अपनी बेटी और अपने बेटे में समान हिस्सों में वसीयत कर रही हूं।

कोर्ट का निष्कर्ष

कोर्ट ने कहा कि भले ही बहू की मां, प्रतिवादी नंबर 2, अपनी बेटी को सहारा देने के लिए उसके साथ रहने के लिए आई थी,परंतु एक बार जब सास ने अपनी यह इच्छा व्यक्त कर दी है कि उसे यहां से चले जाना चाहिए तो प्रतिवादी नंबर दो को सूट परिसर में रहने का कोई अधिकार नहीं था।

न्यायालय का मानना है कि प्रतिवादी नंबर 2 को सास के अधिकार पर सवाल उठाने या सूट परिसर में निवास के अधिकार का दावा करने का कोई अधिकार नहीं था क्योंकि उसके पास परिसर में रहने का ऐसा कोई अधिकार नहीं है।

संपत्ति के अधिकार या टाइटल के मुद्दे पर, अदालत ने कहा कि बहू ने दो परस्पर विरोधी बयान दिए हैंः (1) कि सास ने अपनी संपत्ति की वसीयत करते हुए एक विल निष्पादित की, और (2) कि सास के पास सूट संपत्ति में केवल एक जीवन हित था।

कोर्ट ने कहा कि

''यहां, प्रतिवादियों ने वादी के पक्ष में निष्पादित परित्याग विलेख और हस्तांतरण विलेख के अस्तित्व को स्वीकार किया है। केवल एक जीवन हित का सवाल उठाने से उनके द्वारा स्वीकार किए गए तथ्यों पर कोई फर्क नहीं पड़ता है, इस प्रकार सूट संपत्ति में वादी के एकमात्र अधिकार को स्वीकार किया जाता है। जैसा कि देखा गया है कि इन दस्तावेजों को कभी भी चुनौती नहीं दी गई है,इसलिए मामले की सुनवाई में निष्फल जांच की ओर ले जाने वाली दलीलों को उठाने से बचना चाहिए।''

प्रतिवादियों का यह भी कहना था कि चूंकि वाद की संपत्ति बहू का साझाघर है, इसलिए इस वाद को दायर नहीं किया जा सकता है। हालांकि, वादी ने तर्क दिया कि सुप्रीम कोर्ट के फैसले के अनुसार, कब्जे के लिए दीवानी मुकदमा घरेलू हिंसा अधिनियम की धारा 17 के प्रावधानों के अनुरूप है।

इसलिए न्यायालय ने दोहराया कि केवल यह तथ्य कि परिसर साझा घर की प्रकृति पर आधारित है, संपत्ति के मालिक द्वारा दायर किए गए कब्जे के मामले में एक पूर्ण बचाव या डिफेंस नहीं होगा क्योंकि वह व्यथित व्यक्ति के सास/ससुर हैं और न ही ऐसा सूट वर्जित है।

अदालत ने कहा, '

'डीवी एक्ट के तहत पीड़ित/व्यथित व्यक्ति को साझा घर में निवास का आश्वासन देने वाला संरक्षण पीड़ित व्यक्ति पर कोई मालिकाना या अपरिहार्य अधिकार निहित नहीं करता है।''

कोर्ट ने यह भी कहा कि

''न ही पीड़ित व्यक्ति को निवास के अधिकार की अनुमति किसी विशेष परिसर में निवास के अधिकार पर जोर देने के लिए दी गई है। डीवी अधिनियम की धारा 19 में कुछ परिस्थितियों में समान स्तर पर पीड़ित व्यक्ति को वैकल्पिक आवास दिए जाने का प्रावधान है।''

''इस प्रकार, यह स्पष्ट है कि यहां तक ​कि जहां एक निवास स्पष्ट रूप से एक साझा घर है, यह मालिक, वादी को अपनी बहू के खिलाफ बेदखली का दावा करने से नहीं रोकता है (अगर परिस्थितियां ऐसी हो जाती हैं)।''

कोर्ट ने कहा कि अपनी मां और बहन को शामिल करके, बहू ने सूट की संपत्ति पर अपने अधिकारों का दावा करने का प्रयास किया है, जिससे स्पष्ट रूप से सास को परेशानी हुई है।

अदालत ने कहा, '

'स्पष्ट तथ्यों और परिस्थितियों के मद्देनजर, वादी स्पष्ट रूप से दोनों प्रतिवादियों से अपनी इस उम्र में अनावश्यक और लंबे समय तक चलने वाले मुकदमे की कठोरता के बिना सूट परिसर का कब्जा वापस लेने की हकदार है।''

तदनुसार, मामले का निपटारा करते हुए, न्यायालय ने इस प्रकार आदेश दियाः

''प्रतिवादियों को परिसर खाली करने के लिए तीन महीने का समय दिया जाता है, जो कोरोना महामारी की शर्तों के अधीन है, जिस स्थिति में, वे खाली करने के लिए और समय मांगने के लिए अदालत जा सकती हैं।''

केस का शीर्षक-मदालसा सूद बनाम मौनिका मक्कड़ व अन्य

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