मद्रास हाईकोर्ट ने आपराधिक मामलों में सशस्त्र कर्मियों की हिरासत सौंपने पर आपराधिक अदालतों को दिशानिर्देश जारी किए

मद्रास हाईकोर्ट ने वायु सेना की महिला अधिकारी के यौन उत्पीड़न के मामले से निपटने के दौरान, सशस्त्र कर्मियों की हिरासत सौंपने के मामलों से निपटने के लिए आपराधिक अदालतों के लिए दिशानिर्देशों का सेट जारी किया।
जस्टिस आरएन मंजुला ने कहा कि जब भी सशस्त्र बलों के सक्षम प्राधिकारी द्वारा हिरासत के लिए अनुरोध किया जाता है तो मजिस्ट्रेट को सोम दत्ता बनाम भारत संघ में निर्धारित आदेश का पालन करना होता है। अदालत ने यह भी माना कि जब किसी जांच न्यायालय ने मामले की जांच की है तो यह वायु सेना अधिनियम की धारा 124 के तहत क्षेत्राधिकार की धारणा का संकेत है।
अदालत ने कहा,
“एक बार एक्ट की धारा 124 के तहत विकल्प का उपयोग करने के बाद पुलिस द्वारा जांच जारी रखने या पूरा करने की कोई आवश्यकता नहीं है। इसलिए पुलिस द्वारा आपराधिक न्यायालय के समक्ष आरोप पत्र पेश करने की आवश्यकता और संबंधित कोर्ट मार्शल (क्षेत्राधिकार का समायोजन) नियमों सपठित सीआरपीसी की धारा 475 को लागू करने की परिणामी आवश्यकता उत्पन्न नहीं होगी। इसलिए आदेश पारित किया जाना चाहिए कि पुलिस तब तक जांच जारी नहीं रखेगी जब तक कि सैन्य, नौसेना, वायु सेना, जैसा भी मामला हो, उसके सक्षम प्राधिकारी द्वारा स्पष्ट रूप से इसकी इच्छा न हो।”
इसमें आगे कहा गया,
"एक बार जब उपयुक्त प्राधिकारी द्वारा जांच की जाती है तो अपराध की जांच करने वाले प्राधिकारी या प्राधिकारियों की टीम को साक्ष्य देने के लिए मुकदमे के दौरान कोर्ट मार्शल के समक्ष उपस्थित होना पड़ता है, न कि पुलिस को। इसलिए यदि कोर्ट मार्शल द्वारा पुलिस की उपस्थिति के लिए मजिस्ट्रेट के माध्यम से कोई समन आदेश दिया जाता है तो उसे तामील करने से पहले, मजिस्ट्रेट स्पष्ट करेगा कि क्या यह पुलिस द्वारा की गई जांच के कारण हैं।"
हालांकि, अदालत ने स्पष्ट किया कि जब पुलिस ने जांच की है तो आरोपपत्र केवल मजिस्ट्रेट के समक्ष रखा जाना है, कोर्ट मार्शल के समक्ष नहीं। अदालत ने आगे कहा कि यदि जांच कोर्ट ऑफ इन्क्वायरी द्वारा की जाती है और यदि रिपोर्ट उपयुक्त प्राधिकारी द्वारा दायर की जाती है तो ऐसी रिपोर्ट सीधे कोर्ट मार्शल के समक्ष प्रस्तुत की जानी है।
अदालत ने कहा कि आरोप पत्र दाखिल होने के बाद ही आपराधिक अदालत क्षेत्राधिकार ग्रहण कर सकती है। इसमें आगे कहा गया कि जब आरोपपत्र दाखिल होने के बाद उपयुक्त प्राधिकारी द्वारा अनुरोध किया जाता है तो सीआरपीसी की धारा 475 और कोर्ट मार्शल (क्षेत्राधिकार का समायोजन) नियम 1978 के तहत अपेक्षित उचित प्रक्रिया का पालन किया जाएगा।
अदालत ने यह भी कहा कि जब किसी आरोपी को अधिनियम की धारा 105 के तहत गिरफ्तार किया जाता है और मजिस्ट्रेट के सामने लाया जाता है तो हिरासत के लिए अनुरोध किए जाने पर मजिस्ट्रेट उसकी हिरासत सशस्त्र बलों को सौंप देगा। अदालत ने कहा कि जब ऐसा कोई अनुरोध नहीं किया जाता है तो मजिस्ट्रेट उपयुक्त प्राधिकारी को सूचित करने के बाद सीआरपीसी की धारा 167 के तहत आरोपी को रिमांड पर लेगा, जब अपराध ऐसा हो जहां आपराधिक अदालतों का अधिकार क्षेत्र हो।
अदालत ने कहा कि जब अपराध ऐसा हो जहां आपराधिक अदालतों के पास अधिकार क्षेत्र नहीं है तो आरोपी को लिखित अनुरोध के अभाव में भी सशस्त्र बल को सौंप दिया जाना चाहिए।
वर्तमान मामले में अदालत को सूचित किया गया कि वायु सेना में फ्लाइट लेफ्टिनेंट महिला अधिकारी के साथ उसके पुरुष सहकर्मी फ्लाइट लेफ्टिनेंट ने एयर फोर्स एडमिनिस्ट्रेशन कॉलेज में सात सप्ताह के लिए प्रोफेशनल नॉलेज कोर्स के दौरान बलात्कार किया। महिला अधिकारी ने अपने अधिकारियों को शिकायत दी और कोर्ट ऑफ इंक्वायरी का गठन किया गया।
हालांकि, यह भी बताया गया कि जिस तरह से मामले को संभाला जा रहा है, उससे असंतुष्ट होकर महिला अधिकारी ने पुलिस में शिकायत दी, जिसके आधार पर ऑल वुमन पुलिस स्टेशन सेंट्रल, कोयंबटूर में एफआईआर दर्ज की गई। पुलिस ने जांच शुरू की और आरोपी को एयरफोर्स कैंप से गिरफ्तार कर लिया।
जब आरोपी को मजिस्ट्रेट के सामने पेश किया गया तो वायु सेना अधिकारियों ने उसकी हिरासत की मांग करने का अनुरोध किया और उसी का आदेश दिया गया। इसके खिलाफ, पुलिस द्वारा सत्र न्यायालय के समक्ष पुनर्विचार याचिका दायर की गई, जिसने आदेश को संशोधित किया और पुलिस और वायु सेना दोनों अधिकारियों द्वारा जांच करने की अनुमति दी। इस प्रकार, वायु सेना को हिरासत की अनुमति देने के आदेश के खिलाफ पुलिस द्वारा वर्तमान मामला दायर किया गया।
अदालत ने कहा,
"सिविल अपराध अपने स्वभाव से ही नियमित आपराधिक न्यायालयों द्वारा सुनवाई योग्य होते हैं। हालांकि, सशस्त्र बलों के लिए विशेष रूप से ज्ञात परिस्थितियों और अत्यावश्यकताओं को ध्यान में रखते हुए नागरिक अपराधों की सुनवाई का अधिकार क्षेत्र कोर्ट मार्शल को भी प्रदान किया गया। राम सरूप बनाम भारत संघ और अन्य, एआईआर 1965 एससी 247 में माननीय सुप्रीम कोर्ट ने माना कि ऐसी कई परिस्थितियां हो सकती हैं, जो इस औचित्य को प्रभावित कर सकती हैं कि अपराधी पर कोर्ट मार्शल द्वारा मुकदमा चलाया जाएगा या नहीं। इसलिए यह अपरिहार्य हो जाता है कि इस तरह का विकल्प चुनने का विवेक सैन्य अधिकारियों पर छोड़ दिया जाए।
अदालत ने आगे कहा,
सैन्य अधिकारी को सेवा की अनिवार्यताओं, सेना में अनुशासन बनाए रखने, त्वरित सुनवाई, अपराध की प्रकृति और जिन व्यक्तियों के खिलाफ अपराध किया गया, उसको ध्यान में रखकर निर्देशित किया जाना चाहिए।
हालांकि, यह भी कहा गया कि इस तरह की विशेष व्यवस्था के उद्देश्य को गलत तरीके से नहीं समझा जा सकता कि बलात्कार जैसे जघन्य अपराध के अपराधी के साथ विशेषाधिकार प्राप्त व्यक्ति की तरह व्यवहार किया जाना चाहिए और उसके अधिकारियों को पीड़िता के हित को ताक पर रखकर उसके अभिभावकों की तरह काम करना चाहिए।
अदालत ने कहा,
"हालांकि कोर्ट मार्शल की प्रणाली आंतरिक तंत्र प्रतीत होती है, कोर्ट मार्शल के समक्ष ऐसी कार्यवाही केवल अनुशासनात्मक कार्यवाही नहीं है, बल्कि वे नियमित आपराधिक न्यायालय के समक्ष आपराधिक कार्यवाही के समान हैं। इसलिए कोर्ट मार्शल को सत्र न्यायाधीश की शक्ति प्रदान की गई।"
केस टाइटल: राज्य बनाम कमांडेंट, वायु सेना प्रशासनिक कॉलेज
याचिकाकर्ता के वकील: ए.गोपीनाथ, सरकारी वकील (सीआरपी पक्ष) और प्रतिवादी के वकील: आर.राजेश विवेकानन्दन
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