जेलों में कानूनी सहायता प्रणाली अप्रभावी, कई लोग जेलों में इसी कारण सड़ रहेः एडवोकेट सुधा भारद्वाज
सिविल राइट्स लॉयर और एक्टिविस्ट सुधा भारद्वाज ने हाल ही में एक वेबिनार में जेलों में प्रभावी कानूनी सहायता प्रणाली की कमी के बारे में बात की।
उल्लेखनीय है कि सुश्री भारद्वाज को भीमा कोरगांव मामले में तीन साल से अधिक समय तक जेल में बंद रही थीं। दिसंबर 2021 में बॉम्बे हाईकोर्ट ने उन्हें जमानत दी थी। वेबिनार में उन्होंने अंडर ट्रायल के रूप में बिताये अपने अनुभवों को सुनाया।
उन्होंने बताया कई कैदी, विशेष रूप से हाशिए के लोग कानूनी उपायों का लाभ उठाने में सक्षम नहीं हैं। उन्होंने ऐसे कैदियों को पेश आने वाली कठिनाइयों का ब्यौरा दिया। उन्होंने बताया कि अपनी हिरासत के दरमियान उन्होंने साथी कैदियों के लिए सैकड़ों जमानत याचिकाएं लिखीं।
उन्होंने बताया,
"जब मुझे भायखला ले जाया गया, तो यह खबर चौतरफा फैल गई कि आंटी एक वकील हैं। वह बहुत बुद्धिमान हैं। कोई गपशप नहीं करतीं और आप जाकर उनसे अपनी चार्जशीट के बारे में चर्चा कर सकते हैं। वह आपके लिए आवेदन लिख देंगी और उसकी डुप्लीकेट कॉपी भी हिंदी में बना देंगी। उसके बाद जल्द ही मेरे पास ऐसे अनुरोधों की बाढ़ आ गई।"
वह ऑल इंडिया लॉयर्स एसोसिएशन फॉर जस्टिस (AILAJ) की ओर से आयोजित एक वेबिनार में भारतीय जेलों में कैदियों की स्थिति पर बोल रही थीं। राजनीतिक कैदियों के मुद्दे पर उन्होंने कहा कि कई राज्यों में राजनतिक कैदियों की परिभाषा तक तय नहीं है।
उन्होंने बताया,
"एकमात्र राज्य, मैं जानती हूं कि जिसने परिभाषा तय की है वह पश्चिम बंगाल है। आंध्र प्रदेश और तेलंगाना में हालांकि नियमों या जेल मैनुअल में नहीं लिखा गया है, व्यवहार में राजनीतिक कैदियों के साथ वैसा व्यवहार किया जाता है।
अन्य सभी राज्यों में, आप एक अपराधी हैं, राजनीतिक कैदी नहीं। एक व्यक्ति जेल मैनुअल में परिभाषा से नहीं बल्कि बाहरी समाज की धारणा से राजनीतिक कैदी बन जाता है। उसी यरवदा जेल में जब गांधी जी हुआ करते थे, उन्हें जवाहरलाल नेहरू और वल्लभभाई पटेल के साथ लंबी बैठकें करने की अनुमति होती थी और अंग्रेज उन्हें अनुमति देते थे।
हम इसकी कल्पना भी नहीं कर सकते। अलग-अलग लोगों की राजनीतिक बंदियों की अलग-अलग परिभाषाएं हैं। बहुत से लोग जिन्हें राजनीतिक कैदी कहा जा सकता है, वे 'राष्ट्र-विरोधी' श्रेणी में आते हैं।"
जेल मैं मौजूदा कानूनी सहायता प्रणाली पर उन्होंने बातया कि यह बिलकुल ही प्रभावी नहीं है।
उन्होंने बताया, "जब मैं जेल आई (भीमा कोरेगांव घटना के सिलसिले में), मुझे जल्दी ही पता चल गया कि वहां न केवल कानूनी सहायता की कमी है, बल्कि वह आपराधिक है..तब आपको एहसास होता है कि वास्तव में कितने लोग जेल में बंद इस कमी के कारण बंद हैं।"
उन्होंने बताया, यदि आप अनुच्छेद 21 और 39 ए को देखते हैं, तो प्रभावी कानूनी सहायता प्रदान करना राज्य का कर्तव्य है।"
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