केरल हाईकोर्ट ने मानसिक रूप से विकलांग बलात्कार पीड़िता के 15 सप्ताह से अधिक के गर्भ को समाप्त करने की अनुमति दी
माता-पिता की भूमिका निभाते हुए, केरल हाईकोर्ट ने सोमवार को मानसिक रूप से विकलांग बलात्कार पीड़िता के 15 सप्ताह से अधिक के गर्भ को समाप्त करने की अनुमति देते हुए कहा कि यह उसके सर्वोत्तम हित में है क्योंकि वह खुद से निर्णय लेने में असमर्थ है।
न्यायमूर्ति पी.बी सुरेश कुमार ने सरकारी मानसिक स्वास्थ्य केंद्र और श्री अवित्तम थिरुनल अस्पताल को गर्भावस्था के चिकित्सकीय गर्भपात की अनुमति दी है। अस्पतालों को भ्रूण के ऊतक लेने और डीएनए जांच के लिए इसे बनाए रखने का भी निर्देश दिया गया क्योंकि महिला बलात्कार पीड़िता है।
बिहार की रहने वाली पीड़िता जब पुलिस को मिली तो वह सड़कों पर घूम रही थी। मेडिकल जांच में पता चला कि वह गर्भवती है। चूंकि उसके रिश्तेदारों का पता नहीं चल सका था, इसलिए जिला कानूनी सेवा प्राधिकरण से सहायता मांगी गई।
उस संदर्भ में, केरल राज्य विधिक सेवा प्राधिकरण ने याचिका दायर कर पीड़िता के गर्भ को चिकित्सकीय रूप से समाप्त करने की अनुमति देने का आदेश देने की मांग करते हुए आरोप लगाया कि मेडिकल टर्मिनेशन ऑफ प्रेग्नेंसी एक्ट, 1971 की धारा 3(4)(ए) के अनुसार पीड़िता के बालिग होने के कारण, गर्भावस्था को समाप्त करने के लिए उसकी सहमति आवश्यक है,परंतु पीड़िता गर्भावस्था को समाप्त करने के लिए सहमति देने की स्थिति में नहीं है।
याचिकाकर्ता की ओर से अधिवक्ता केपी प्रदीप पेश हुए। एएसजी एपी विजयकुमार और सरकारी वकील विनीथा बी ने मामले में प्रतिवादियों का प्रतिनिधित्व किया।
सिंगल बेंच ने एक मेडिकल बोर्ड की रिपोर्ट के आधार पर यह निर्णय लिया, जिसने महिला की जांच के बाद कहा था कि हालांकि गर्भावस्था जारी रखने से पीड़िता के जीवन को खतरा नहीं होगा, लेकिन इससे मां और बच्चे के लिए उच्च जोखिम रहेगा क्योंकि वह कई एंटीसाइकोटिक दवाएं ले रही है।
अदालत ने अपने आदेश में कहा कि मानसिक स्वास्थ्य केंद्र से जुड़े मेडिकल बोर्ड द्वारा जारी एक प्रमाण पत्र में यह भी संकेत दिया गया है कि पीड़िता मानसिक मंदता से पीड़ित है और निर्णय लेने या अपनी राय बताने में असमर्थ है।
अदालत ने कहा कि,''इस तथ्य को ध्यान में रखते हुए कि मामले में शामिल व्यक्ति एक बलात्कार पीड़िता है और मेडिकल बोर्ड की राय पर विचार करते हुए, मेरा विचार है कि इस प्रकार के मामले में उसकी गर्भावस्था को समाप्त करने की अनुमति देना संबंधित व्यक्ति के सर्वोत्तम हित में है।''
बेंच ने कहा कि तत्काल मामले में गर्भावस्था एक ऐसी स्थिति में है जिसे एक पंजीकृत चिकित्सक की इस राय के आधार पर समाप्त किया जा सकता है कि गर्भावस्था को जारी रखने से उसके मानसिक स्वास्थ्य को गंभीर चोट लगेगी क्योंकि गर्भावस्था की अवधि बीस सप्ताह से अधिक नहीं है।
अदालत ने कहा कि ऐसी गर्भावस्था को उपरोक्त तर्ज पर दो चिकित्सकों की राय के आधार पर समाप्त किया जा सकता है, परंतु इस मामले में एकमात्र बाधा यह है कि पीड़िता इसके लिए सहमति देने की स्थिति में नहीं है।
इसके बाद, अदालत ने 'पैरेंस पैट्रिया' के सिद्धांत को लागू किया, एक ऐसी अवधारणा जो सामान्य कानून में विकसित हुई है और इसे उन स्थितियों पर लागू किया जा सकता है, जहां राज्य को उन व्यक्तियों के हितों की रक्षा के लिए निर्णय लेना चाहिए जो स्वयं की देखभाल करने में असमर्थ हैं।
सिंगल बेंच ने कहा कि, ''यह सिद्धांत नाबालिगों और उन व्यक्तियों के अधिकारों से जुड़े मामलों में लागू किया जाता है जो मानसिक रूप से अपने लिए सही निर्णय लेने में अक्षम पाए गए हैं।''
बेंच ने आगे कहा कि भारत में अदालतों ने मानसिक रूप से बीमार व्यक्तियों की ओर से प्रजनन संबंधी निर्णय लेने के उद्देश्य से 'पैरेंस पैट्रिया' क्षेत्राधिकार का प्रयोग करते हुए विभिन्न परीक्षण/टेस्ट विकसित किए हैं।
यह भी कहा कि,''उक्त परीक्षणों में से एक 'सर्वोत्तम हितों' की परीक्षा है, जिसके लिए अदालत को कार्रवाई के पाठ्यक्रम का पता लगाने की आवश्यकता होती है जो व्यक्ति के सर्वोत्तम हितों में होनी चाहिए।''
केस का शीर्षकः केरल राज्य विधिक सेवा प्राधिकरण बनाम भारत संघ व अन्य
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