किसी आरोपी द्वारा अपराध स्वीकार करने पर अदालतों द्वारा कार्रवाई करने के संदर्भ में केरल हाईकोर्ट ने गाइड लाइन जारी की

Update: 2021-06-09 09:45 GMT

केरल हाईकोर्ट

केरल हाईकोर्ट की एकल पीठ ने मंगलवार को एक याचिकाकर्ता को दी गई सजा को रद्द करते हुए दिशानिर्देशों का एक सेट जारी किया है,जिनका पालन एक आरोपी द्वारा उसके खिलाफ लगाए गए आरोपों को स्वीकार करने(प्लीडिंग गिल्टी) के मामले में करना होगा।

यह आपराधिक रिविजन याचिका रासीन बाबू केएम द्वारा दायर की गई थी, जिसका प्रतिनिधित्व अधिवक्ता डी. अनिल कुमार ने किया। याचिका न्यायिक प्रथम श्रेणी मजिस्ट्रेट कोर्ट -1, परप्पनगडी के आदेश के खिलाफ दायर की गई थी,जिसके तहत याचिकाकर्ता को केरल प्रीवेंशन ऑफ डिस्टर्बन्स ऑफ पब्लिक मीटिंग एक्ट की धारा 35 के तहत स्कूल प्रवेश उत्सव के जुलूस में बाधा डालने और कुछ स्वयंसेवकों पर हमला करने के लिए दोषी ठहराया गया था।

याचिका में तर्क दिया गया कि निचली अदालत ने याचिकाकर्ता को उपरोक्त अपराधों के लिए सिर्फ प्लीडिंग गिल्टी के आधार पर दोषी ठहराया था। आरोप है कि मजिस्ट्रेट द्वारा अपनाई गई यह प्रक्रिया पूरी तरह से अवैध थी। सीआरपीसी की धारा 240 और 241 में निर्धारित विस्तृत प्रक्रिया यह स्पष्ट करती है कि प्ली आॅफ गिल्टी के आधार पर किसी आरोपी को दोषी ठहराना मात्र एक औपचारिकता नहीं है।

नतीजतन, अदालतों के लिए एक आरोपी की प्ली ऑफ गिल्टी पर कार्रवाई करने से पहले निम्नलिखित आवश्यकताओं का पालन करना अनिवार्य कर दिया गया हैः

-मजिस्ट्रेट को आरोपी के खिलाफ आरोपित अपराधों को निर्दिष्ट करते हुए आरोप तय करना चाहिए।

-इस तरह के आरोपों को पढ़ा जाना चाहिए और आरोपी को समझाया जाना चाहिए।

-आरोपी से पूछा जाना चाहिए कि क्या वह अपने खिलाफ लगाए गए अपराधों के लिए खुद को दोषी (प्ली ऑफ गिल्टी) मानता है।

-आरोपों की गंभीरता और दोष स्वीकार करने के तात्पर्य को समझने के बाद आरोपी को अपना दोष स्वीकार करना चाहिए। इस तरह दोष स्वीकार करना स्वैच्छिक होना चाहिए और स्पष्ट व साफ शब्दों में व्यक्त किया जाना चाहिए।

-मजिस्ट्रेट को जहां तक संभव हो, आरोपी के शब्दों में प्ली ऑफ गिल्टी दर्ज करनी चाहिए।

-मजिस्ट्रेट को अपने विवेक का प्रयोग करना चाहिए और यह तय करना चाहिए कि सभी प्रासंगिक कारकों पर विचार करने के बाद प्ली ऑफ गिल्टी को स्वीकार करना है या नहीं।

-यदि प्ली स्वीकार कर ली जाती है, तो आरोपी को दोषी ठहराया जा सकता है और उचित सजा दी जा सकती है।

न्यायमूर्ति वी.जी. अरुण ने कहा कि प्ली काफी लापरवाही से दर्ज की गई थी। आरोपी द्वारा दिए गए उत्तरों की प्रश्नावली की जांच के बाद एक पेटेंट दोष सामने आया है। सीआरपीसी की धारा 243 में कहा गया है कि आरोपी की स्वीकृति को उसके द्वारा इस्तेमाल किए गए शब्दों में दर्ज किया जाना चाहिए। हालांकि, यह नोट किया गया है कि जब उनसे पूछा गया कि क्या उन्होंने कथित अपराध किए हैं, तो उन्होंने 'हां' में जवाब दिया, लेकिन याचिकाकर्ता का जवाब उक्त प्रश्नावली में दर्ज नहीं किया गया था।

एक एकाक्षरी 'हां' प्ली ऑफ गिल्टी के समान नहीं

इस निष्कर्ष पर पहुंचने के लिए, न्यायालय ने 'प्ली' और 'गिल्टी' शब्दों के कानूनी अर्थों पर विचार किया। 'प्लीड' का अर्थ माना जाता है अन्य बातों के साथ, 'कोई दलील देना, डिलिवर करना या दायर करना', जबकि 'गिल्टी' शब्द को अपराध या अपकृत्य करने के रूप में परिभाषित किया गया है।

तदनुसार, यह निर्णय लिया गया कि 'प्लीडिंग गिल्टी' के लिए अपराध के सभी तत्वों को स्वीकार करने के लिए सकारात्मक और सूचित कार्य की आवश्यकता है। इसका तात्पर्य यह है कि एक प्ली स्वैच्छिक, स्पष्ट और साफ होनी चाहिए और दोष स्वीकार करने के तात्पर्य को समझने के बाद ही आरोपी के द्वारा इसे स्वीकार किया जाना चाहिए।

अदालत द्वारा पूछे गए एक प्रश्न के उत्तर में केवल होंठों से बुदबुदाना या एकाक्षरी 'हां' को अभियुक्त द्वारा अपराध को स्वीकार नहीं माना जा सकता है,क्योंकि यह उपरोक्त आवश्यकताओं को पूरा नहीं करता है। इस तरह का अवलोकन इसलिए किया गया है क्योंकि एक अभियुक्त की दोषसिद्धि सिर्फ उसकी प्ली ऑफ गिल्टी पर आधारित होती है और इसके परिणामस्वरूप उसके खिलाफ मुकदमा चलाए बिना ही उसे सजा व दंड दे दिया जाता है।

एक आरोपी, जिसने आरोप तय करने के समय अपना अपराध स्वीकार नहीं किया था,क्या वह बाद के चरण प्लीड गिल्टी कर सकता है?

संतोष बनाम केरल राज्य (2003(2) क्रिमर्स 141) मामले में एक एकल न्यायाधीश ने कहा है कि आरोप तय करने के बाद मुकदमे के किसी भी चरण में एक आरोपी द्वारा प्ली ऑफ गिल्टी की दलील दी जा सकती है।

लेकिन इस मामले में न्यायमूर्ति वीजी अरुण ने कहा कि सन्तोष मामले में दिए गए फैसले पर 2006 के अधिनियम 2 के तहत संहिता में अध्याय XXIA (introduction of Chapter XXIA to the Code vide Act 2 of 2006) को जोड़े जाने के आलोक में पुनर्विचार की आवश्यकता है, जिसमें अदालत के समक्ष ट्रायल लंबित होने पर प्ली बार्गेनिंग का प्रावधान है।

कोर्ट ने कहा कि इस मामले में याचिकाकर्ता ने पहली बार में अपना आरोप स्वीकार नहीं किया था। मामले की सुनवाई कई बार टलने के बाद उससे फिर से पूछा गया कि क्या उसने कथित अपराध किए थे तो उसने अपना अपराध स्वीकार कर लिया। इसे याचिकाकर्ता द्वारा अपना अपराध स्वीका करना नहीं माना जा सकता है, और ट्रायल कोर्ट ने इस संबंध में उसे दोषी ठहराने में गलती की है।

इस प्रकार, याचिकाकर्ता को दोषी ठहराने और सजा सुनाने के फैसले को रद्द कर दिया गया।

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