'नियम ऐसी स्थिति को अनदेखा करते हैं, जहां रोगी गैर-सूचीबद्ध अस्पताल में आपातकालीन उपचार का लाभ उठाता है': केरल हाईकोर्ट ने लाइव ट्रांसप्लांट मामले में प्रतिपूर्ति के दावे पर
केरल हाईकोर्ट ने हाल ही में राज्य सरकार को उस मामले में अपने फैसले पर पुनर्विचार करने का निर्देश दिया, जहां मेडिकल खर्च की प्रतिपूर्ति का आवेदन खारिज कर दिया गया, क्योंकि अपोलो अस्पताल, जहां रोगी 2011 में इलाज के लिए गया था, मेडिकल प्रतिपूर्ति योजना के तहत गैर-मान्यता प्राप्त अस्पताल है और वहां इलाज का लाभ उठाने के लिए पूर्व अनुमति नहीं ली गई।
जस्टिस देवन रामचंद्रन ने कहा कि घटना 2011 में हुई "जब निश्चित रूप से हमारे सिस्टम आज के मुकाबले बहुत पीछे था।" अदालत ने कहा कि याचिकाकर्ता द्वारा किया गया इलाज नितांत आवश्यक है या उसके पास केरल में कोई विकल्प था या नहीं, इसकी उचित जांच किए बिना सरकार कोई निर्णय नहीं ले सकती।
सक्षम प्राधिकारी को याचिकाकर्ता को फिर से सुनने और आवेदन पर नया निर्णय लेने का निर्देश देते हुए अदालत ने यह पता लगाने के लिए कहा कि क्या 2011 में मेडिकल उपचार के लिए याचिकाकर्ता की तात्कालिकता इतनी गंभीर थी कि अपोलो अस्पताल से इलाज का लाभ उठाने के लिए पूर्व अनुमति प्राप्त करना असंभव नहीं तो कठिन था।
अदालत ने प्राधिकरण को तीन महीने का समय देते हुए कहा,
"चूंकि याचिकाकर्ता का दावा 10 साल से अधिक समय से लंबित है, मुझे यकीन है कि पुनर्विचार को तेजी से और सख्त समय सीमा के भीतर समाप्त करना होगा।"
याचिकाकर्ता 2011 में दुर्बल लीवर डिसीस से पीड़ित था और उसे इलाज के लिए सरकारी अस्पताल ले जाया गया। अस्पताल ने उसे एर्नाकुलम के अमृता इंस्टीट्यूट ऑफ मेडिकल साइंसेज रेफर कर दिया। चूंकि बाद में इलाज के लिए आवश्यक सुविधाएं नहीं थीं, इसलिए मरीज को वहां कुछ इलाज के बाद दूसरे अस्पताल जाने की सलाह दी गई।
इसके तहत याचिकाकर्ता दिल्ली के अपोलो अस्पताल गया, जहां उसका इलाज हुआ और वह ठीक हो गया। हालांकि, उसे मेडिकल खर्च पर करीब 20 लाख रुपये खर्च करने पड़े।
जब याचिकाकर्ता ने लागू नियमों के तहत प्रतिपूर्ति के लिए आवेदन किया तो इसे इस आधार पर खारिज कर दिया गया कि अपोलो अस्पताल मेडिकल प्रतिपूर्ति योजना के तहत मान्यता प्राप्त अस्पताल नहीं है और वहां इलाज का लाभ उठाने के लिए कोई पूर्व अनुमति नहीं ली गई।
एडवोकेट संजीव कुमार के गोपाल द्वारा प्रतिनिधित्व याचिकाकर्ता ने आयुष विभाग द्वारा जारी आदेश को चुनौती दी और प्रार्थना की कि सक्षम प्राधिकारी को निश्चित समय अवधि के भीतर दावा की गई राशि की प्रतिपूर्ति करने का निर्देश दिया जाए।
सरकारी वकील पार्वती के. ने तर्क दिया कि याचिकाकर्ता ने खुद स्वीकार किया कि उसने सरकारी अस्पताल या अमृता अस्पताल के संदर्भ के बिना अपोलो अस्पताल से संपर्क किया। उन्होंने कहा कि यह सवाल कि क्या इस तरह के कोर्स से उन्हें मेडिकल प्रतिपूर्ति मिल सकती है, संदिग्ध है।
कोर्ट ने कहा कि लागू नियम आपातकाल की स्थिति को नजरअंदाज करते हैं, जिसके तहत मरीज को गैर-मान्यता प्राप्त या गैर-रजिस्टर्ड अस्पताल में भी इलाज कराने के लिए मजबूर किया जाता है।
अदालत ने 2011 में स्वास्थ्य के बुनियादी ढांचे की स्थिति को ध्यान में रखते हुए पाया कि याचिकाकर्ता द्वारा दिए गए स्पष्टीकरण का इस्तेमाल उसके खिलाफ नहीं किया जा सकता, क्योंकि उसने ईमानदारी से स्वीकार किया, क्योंकि केरल में कोई भी अस्पताल 2011 में लीवर प्रत्यारोपण करने के लिए सुसज्जित नहीं है और उसके गंभीर निदान को देखते हुए उसे मजबूरन अपोलो अस्पताल जाना पड़ा।
अदालत ने निर्देश देते हुए कहा,
"इसका वास्तव में मतलब यह नहीं कि 'अपोलो अस्पताल' में जाने का विकल्प उसका अकेला का है और मुझे यकीन है कि यह केरल के अस्पतालों द्वारा दिए गए संदर्भों और सलाह से निर्देशित होता है। सक्षम प्राधिकारी बिना किसी और देरी के मामले पर पुनर्विचार करें।"
केस टाइटल: डॉ. आर. प्रकाश बनाम केरल राज्य और अन्य।
साइटेशन: लाइव लॉ (केरल) 538/2022
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