हिरासत में मौत के लिए थाने के भीतर चोट लगना जरूरी नहीं, बॉम्बे हाईकोर्ट ने पुलिस क्रूरता मामले में पीड़ित की मां को 15 लाख रुपये का मुआवजा दिया

Update: 2023-01-21 09:07 GMT

Bombay High Court

बॉम्बे हाईकोर्ट ने बुधवार को कहा कि हिरासत में हुई मौत के मामले में इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि चोटें पुलिस स्टेशन के अंदर लगी थीं या चौकी पर, जब तक कि चोटें तब लगीं, जब मृतक किसी भी तरह से था पुलिस की हिरासत में था।

औरंगाबाद स्थित ज‌स्टिस विभा कंकनवाड़ी और जस्टिस अभय एस वाघवासे की खंडपीठ ने एक 23 वर्षीय व्यक्ति की मां को मुआवजे के रूप में 15,29,600 रुपये देने का निर्देश दिया, जिसकी 2018 में दो पुलिस अधिकारियों द्वारा मारपीट के बाद मृत्यु हो गई थी। कोर्ट ने कहा, राज्य जिम्मेदार अधिकारियों से राशि की वसूली कर सकता है।

कोर्ट ने डीके बसु बनाम पश्चिम बंगाल राज्य का उल्लेख किया और सुप्रीम कोर्ट की टिप्पणी को दोहराया कि हिरासत में मौत सभ्य समाज में सबसे खराब अपराधों में से एक है।

कोर्ट ने कहा,

“हालांकि पुलिस के पास लोगों की गतिविधियों और अपराध को नियंत्रित करने की शक्तियां हैं; फिर भी, पुलिस उक्त शक्ति के प्रयोग की आड़ में मुक्त नहीं है, वे किसी नागरिक के साथ अमानवीय तरीके से अत्याचार या व्यवहार नहीं कर सकते।

राज्य अपने नागरिकों के जीवन का रक्षक है, यदि उसका कर्मचारी शक्ति की आड़ में अत्याचार करता है, तो उसे ऐसे नागरिक या ऐसे नागरिक के कानूनी प्रतिनिधि को मुआवजा देना होगा।"

याचिकाकर्ता के अनुसार, वह अपने बेटे, उसकी पत्नी और उसके चचेरे भाई के साथ ट्रैक्टर पर गन्ना ले जा रहे थे। पुलिस ने ट्रैक्टर को कथित तौर पर इस आधार पर रोका कि "वह स्पीकर के जर‌िए टेप रिकॉर्डर से गाना बजा रहा था" और आवाज तेज थी। इसके बाद आरोपी ने पीड़ित पर हमला कर दिया और मौके पर ही उसकी मौत हो गई। इसलिए याचिकाकर्ता ने हाईकोर्ट का दरवाजा खटखटाया।

मौत का कारण दोनों फेफड़ों में चोट के साथ गर्दन के संपीड़न के साथ सिर की चोटें थीं। दोनों पुलिस अधिकारियों के खिलाफ आईपीसी की धारा 302 (हत्या का अपराध) के तहत अपराध दर्ज किया गया था।

चश्मदीदों के बयानों से पता चला कि मृतक पर तब हमला किया गया जब वह ट्रैक्टर की स्टेयरिंग पर बैठा ही था कि एक पुलिस हेड कांस्टेबल ने 3-4 फीट लंबी छड़ी से हमला किया। एक अन्य पुलिस कांस्टेबल ने उसके साथ हाथापाई की। इसके बाद वे उसे घसीटते हुए चौकी ले गए। कुछ देर बाद उन्हें अस्पताल ले जाया गया, जहां उन्हें मृत घोषित कर दिया गया।

न्यायिक मजिस्ट्रेट प्रथम श्रेणी ने जांच की और निष्कर्ष निकाला कि मौत मानव हत्या थी और तब हुई जब वह पुलिस हिरासत में था।

कोर्ट ने डीके बसु पर भरोसा किया और कहा कि यह लंबित मुकदमे और आरोपी अधिकारियों के दोष साबित नहीं होने के बावजूद याचिका पर विचार कर सकता है।

कोर्ट ने कहा कि याचिकाकर्ता, मृतक और ट्रैक्टर में यात्रा कर रहे अन्य लोग अधिकारियों को नहीं जानते थे और इसलिए उन्हें फंसाने का सवाल ही नहीं उठता। चश्मदीदों का कहना है कि हमला लात, घूंसों और डंडे से किया गया था।

आरोपी अधिकारियों ने चिकित्सा अधिकारियों के बयानों पर भरोसा किया कि मृतक पर कोई बाहरी चोट और मारपीट के निशान नहीं थे। हालांकि, कोर्ट ने कहा कि जब मृतक को अस्पताल ले जाया गया, तो परिवार के साथ अन्य लोग भी थे और इसलिए बाद में चोट लगने का कोई सवाल ही नहीं था। इसके अलावा, पोस्टमार्टम रिपोर्ट में मौत से पहले 43 बाहरी चोटों का सुझाव दिया गया है।

कोर्ट ने कहा,

"इसलिए, यह सबूत इस निष्कर्ष पर पहुंचने के लिए पर्याप्त है कि वे चोटें प्रतिवादी संख्या 4 और 5 ने लगाई गई थीं। वे चोटें तब लगी थीं जब प्रदीप ट्रैक्टर पर बैठा था, फिर उसे आउट पोस्ट के अंदर ले जाया गया और इसलिए यह हिरासत में मौत के बराबर है।”

कोर्ट ने यह भी कहा कि आरोपी अधिकारियों द्वारा ट्रैक्टर को रोकने का कोई कारण नहीं था। “जब अवरोधन का कोई कारण नहीं था, तब पुलिस अत्याचार का कोई कारण नहीं था, इस प्रकार मृतक के मौलिक अधिकारों का उल्लंघन होता है

कोर्ट ने मोटर वाहन दुर्घटना के मामलों में मुआवजे के निर्धारण की विधि का उपयोग करते हुए मुआवजे का फैसला किया। आय और निर्भरता की हानि की एवज में 13,29,600 रुपये और 2,00,00 रुपये पुलिस अत्याचार और मौलिक अधिकारों के उल्लंघन के लिए दिए गए।

केस टाइटलः सुनीता पत्नी कल्याण कुटे बनाम महाराष्ट्र राज्य और अन्य।

केस नंबरः क्रिमिनल रिट पीटिशन नंबर 1647 ऑफ 2019

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