गुजरात हाईकोर्ट ने अज़ान के लिए इस्तेमाल किए जाने वाले लाउडस्पीकर पर प्रतिबंध लगाने की मांग वाली याचिका खारिज की, कहा- यह 'आस्था और प्रथा वर्षों से चली आ रही है'
गुजरात हाईकोर्ट ने उस जनहित याचिका (पीआईएल) खारिज कर दी, जिसमें मस्जिदों में अज़ान के लिए लाउडस्पीकर के इस्तेमाल पर प्रतिबंध लगाने की मांग की गई थी। हाईकोर्ट ने उक्त याचिका को "पूरी तरह से गलत जनहित याचिका" करार दिया।
याचिकाकर्ता ने नमाज़ के लिए इस्लामी पुकार के लिए दिन के विभिन्न समय में लाउडस्पीकर के उपयोग पर प्रतिबंध लगाने का अनुरोध किया था।
चीफ जस्टिस सुनीता अग्रवाल ने ध्वनि प्रदूषण के कारण अशांति के याचिकाकर्ता के दावे पर सवाल उठाया और पूछा कि क्या अन्य धार्मिक प्रथाओं, जैसे कि पूजा के दौरान संगीत बजाना या मंदिरों में भजन बजाना, इसी तरह की सार्वजनिक अशांति का कारण नहीं है।
चीफ जस्टिस ने इस बात पर जोर दिया कि ध्वनि प्रदूषण वैज्ञानिक मुद्दा है और याचिकाकर्ता के वकील पर अज़ान के कारण होने वाले कथित ध्वनि प्रदूषण का सबूत देने के लिए दबाव डाला, जिसमें डेसीबल स्तर का विवरण भी शामिल हो।
कोर्ट ने कहा,
"कितने मिनट तक अजान चलती है? 5 मिनट से कम नहीं, ध्वनि प्रदूषण का सवाल कहां है? हमें डेसीबल दिखाएं। तकनीकी रूप से अज़ान के कारण कितने डेसिबल का शोर होता है?"
जवाब में वकील ने कहा कि यह डेसिबल सीमा से अधिक हो गया।
सीजे ने जवाब दिया,
“आपका डीजे बहुत प्रदूषण फैलाता है। हम इस तरह की जनहित याचिका पर विचार नहीं कर रहे हैं। यह वर्षों से चला आ रहा विश्वास और अभ्यास है और यह केवल 5-10 मिनट का वक्त है। अज़ान 10 मिनट से भी कम समय तक चलती है।”
याचिकाकर्ता के वकील ने यह तर्क देकर अपने मामले को मजबूत करने का प्रयास किया कि अजान दिन के दौरान और सुबह के समय भी होती है, लेकिन चीफ जस्टिस ने इसे खारिज कर दिया। उन्होंने कहा कि मंदिरों में भी "सुबह की आरती ढोल और संगीत के साथ जल्दी शुरू होती है।"
चीफ जस्टिस ने पूछा,
इससे किसी को शोर नहीं होता? क्या आप कह सकते हैं कि घंटे और घड़ियाल का शोर सिर्फ मंदिर परिसर में ही रहता है? यह परिसर से बाहर नहीं फैलता है?
उन्होंने आगे कहा,
“मि. वकील, 10 मिनट में शख्स अजान कर रहा है। उस 10 मिनट में कितना प्रदूषण हुआ कृपया हमें बताएं। ध्वनि प्रदूषण एक वैज्ञानिक मुद्दा है। चूंकि आप ध्वनि प्रदूषण कहते हैं, अगर इसे वैज्ञानिक रूप से अदालत के सामने रखा जाए तो कितने डेसिबल बढ़ते हैं? यदि ध्वनि प्रदूषण के आकलन का कोई वैज्ञानिक तरीका है तो क्या आप उस वैज्ञानिक आकलन के अनुसार तर्क दे सकते हैं कि इस 10 मिनट की अज़ान से ध्वनि प्रदूषण हो रहा है?''
न्यायालय ने इस तथ्य पर निराशा व्यक्त की कि रिट याचिका जिसमें अज़ान के कारण ध्वनि प्रदूषण का दावा किया गया, वह इस बात का वैज्ञानिक आकलन करने में विफल रही कि प्रार्थना के दौरान कितना ध्वनि प्रदूषण हो रहा है।
इसमें आगे कहा गया,
“यदि आप इस पर बहस कर सकते हैं तो हम आपको अनुमति देंगे। लेकिन आप इस पर बहस नहीं कर रहे हैं। आपने रिट याचिका में कोई आधार नहीं बनाया है। डेसिबल के संबंध में दलील कहां है? क्षेत्र में ध्वनि प्रदूषण के आकलन की वैज्ञानिक पद्धति के संबंध में दलील कहां है?"
आदेश सुनाते हुए बेंच ने कहा,
“हम यह समझने में विफल हैं कि सुबह लाउडस्पीकर के माध्यम से अज़ान देने वाली मानव आवाज ध्वनि प्रदूषण पैदा करने की हद तक डेसीबल [स्तर] कैसे प्राप्त कर सकती है, जिससे बड़े पैमाने पर जनता के स्वास्थ्य को खतरा हो सकता है। ध्वनि के डेसीबल को बढ़ाने के साथ ध्वनि प्रदूषण की माप/आकलन एक वैज्ञानिक विधि है, जिसमें किसी विशेष उपकरण आदि द्वारा उत्पन्न ध्वनि को मापकर देखा जा सकता है कि उसके कारण होने वाली साउंड डेसीबल की स्वीकार्य सीमा से परे पहुंच रही है। याचिका में ऐसा कोई आधार नहीं रखा गया, जिससे यह प्रदर्शित किया जा सके कि दिन के अलग-अलग घंटों में मिनटों तक अज़ान से पैदा होने वाले शोर से ध्वनि का स्तर बढ़ जाएगा, जिससे ध्वनि प्रदूषण होगा। इसलिए हमें कोई आधार नहीं मिल रहा है..”
चीफ जस्टिस ने कहा कि शेष याचिकाओं में रिकॉर्ड में मौजूद सामग्री के आधार पर पुष्टि का अभाव है।
जब चीफ जस्टिस आदेश सुना रहे थे, वकील ने हस्तक्षेप करते हुए इलाहाबाद हाईकोर्ट के एक फैसले का हवाला देते हुए पुलिस अधिकारियों से अनुमति की आवश्यकता पर जोर दिया। हालांकि, चीफ जस्टिस ने तुरंत हस्तक्षेप किया, यह देखते हुए कि इलाहाबाद हाईकोर्ट के निर्णय कानूनी रूप से उनके अधिकार क्षेत्र पर बाध्यकारी नहीं हैं।