गोगोई बहुत नीचे गिर गए हैं : पूर्व मुख्य न्यायाधीश द्वारा कुछ जजों की आलोचना पर वरिष्ठ वक़ील राकेश द्विवेदी ने कहा
वरिष्ठ वक़ील राकेश द्विवेदी ने एक पत्र जारी करके देश के पूर्व मुख्य न्यायाधीश और हाल ही में राज्य सभा सदस्य बने रंजन गोगोई के एक वेबिनार में शामिल होने की आलोचना की है। इस वेबिनार में न्यायपालिका की स्वतंत्रता की चर्चा होनी थी। द्विवेदी ने कहा कि राज्य सभा में उनका मनोयन शक्तियों के बंटवारे की विभाजक रेखा को धुंधला कर दिया है और इस विषय पर बोलने की उनकी विश्वसनीयता का क्षरण हुआ है।
देश के मुख्य न्यायाधीश के पद से सेवानिवृत्ति के कुछ ही महीनों के बाद ही गोगोई का राज्य सभा में मनोनयन की काफ़ी आलोचना हुई थी और शक्तियों के विभाजन और न्यायपालिका की स्वतंत्रता को लेकर सवाल खड़े हुए थे, इसलिए न्यायपालिका की स्वतंत्रता के सामने चुनौतियों पर चर्चा के लिए आयोजित वेबिनार में उनकी भागीदारी ने इसे पाखंड बताया और इसकी आलोचना की।
इस बारे में वरिष्ठ वक़ील राकेश द्विवेदी ने इस वेबिनार में उनकी भागीदारी की आलोचना करते हुए लिखा है -
"रंजन गोगोई, राज्य सभा के सांसद का यह बेशर्मी से पेश आने का तरीक़ा है। चाहे वह महिलाकर्मी के आरोप हों या पूर्व मुख्य न्यायधीश दीपक मिश्रा के ख़िलाफ़ चार जजों की बैठक या फिर राज्य सभा का नामांकन स्वीकार करना, वे अपने दोष को बड़ी चालाकी से बेझिझक छिपा लेते हैं; जस्टिस दीपक गुप्ता जैसे ईमानदार जज की आलोचना कर सकते हैं।
उनके (जस्टिस दीपक गुप्ता) पास वकीलों की लॉबी नहीं थी और न ही उन्होंने ज़रूरत से ज़्यादा सक्रियता दिखाई। वे एक ईमानदार और उत्कृष्ट जज हैं। लेकिन गोगोई ने यह सवाल उठाया है कि जज लोग तब क्यों नहीं बोलते हैं, जब वे अपने पद पर होते हैं।
जस्टिस दीपक गुप्ता ने पद रहते हुए नहीं बोलकर सही किया क्योंकि यह अनुशासन का तक़ाज़ा था, जिस बात को गोगोई भूल गए थे जब वह जस्टिस दीपक मिश्रा के ख़िलाफ़ बोलने के लिए बगीचे में जमा हुए थे और एक महिला कर्मचारी के आरोपों के ख़िलाफ़ अपने बचाव में न्यायमूर्ति अरुण मिश्रा के ख़िलाफ़ कुछ कहा और फिर उससे पलट गए।
हम अभी भी इस बात को भूले नहीं हैं कि आरोप लगाने की वजह से उसके परिवार के सदस्यों को कैसी-कैसी यातनाएं दी गईं। गोगोई इतने नीचे गिर गए हैं कि उनके लिए अब एक ही काम बचा रह गया है कि वे अपने ख़िलाफ़ कपोलकल्पित महान षड्यंत्र की बात सब को बताते फिरें या फिर ऐसे व्यक्ति की आलोचना करें जो उनके विचारों से इत्तिफ़ाक़ नहीं रखते हैं।
वैसे, गोगोई जी, हम आज भी उस व्यापक षड्यंत्र के खुलासे की प्रतीक्षा कर रहे हैं जिसका आरोप आपने उस निस्सहाय कर्मचारी पर लागाया था जिसे अब उसकी नौकरी पर बहाल कर दिया गया है। क्या उसको दुबारा नौकरी पर बहाल करना इस बात की तस्दीक़ नहीं करता कि आपने दुनिया से झूठ बोला था? आप पूरी तरह बेनक़ाब हो चुके हैं। आपके लिए बेहतर है कि आप अपना मुंह बंद रखें और एक सांसद के रूप में अपने नए जीवन का आनंद उठाएं।"
पूर्व मुख्य न्यायाधीश गोगोई का राज्य सभा में नामांकन नायपालिका में लोगों के विश्वास को हिला दिया है
वेबिनार में सांसद गोगोई की आलोचना हुई पर ऐसा लगा कि उनकी जितनी ही आलोचना हुई, वे बोलने के लिए उतने ही दृढ़प्रतिज्ञ दिखे। उन्होंने अपने भाषण की शुरुआत कॉलेजियम से की और कहा कि यह व्यवस्था निर्णय लेने की प्रक्रिया से कार्यपालिका को दूर रखने के लिए है जबकि कार्यपालिका को इसमें "समान भूमिका" का निर्वाह करना है। यह व्यवस्था ठीक है पर समस्या यह है कि इसको कोई व्यक्ति चलाता है और इसको कुछ अनुशासन के साथ ठीक किया जा सकता है।
उन्होंने अपने ख़िलाफ़ लगे उस यौन उत्पीड़न के आरोपों की भी चर्चा की जिसके ख़िलाफ़ उन्होंने इन-हाउस जांच प्रक्रिया अपनाई और इसकी अध्यक्षता खुद ही की। इस मामले को जिस तरह निपटाया गया उसकी वजह से इसकी काफ़ी आलोचना हुई और यहाँ तक कि सुप्रीम कोर्ट परिसर के बाहर लोगों ने इसके ख़िलाफ़ विरोध भी किया।
वेबिनार के दौरान, सांसद गोगोई ने कहा कि जजों के ख़िलाफ़ कई आरोप निराधार थे और उन सभी आरोपों पर ध्यान नहीं दिया जा सकता। इन पर तभी ग़ौर किया जा सकता है अगर इनमें कोई गंभीरता है, और उन मामलों में इन-हाउस प्रक्रिया/जांच कराई गई और इन्हें ऑनलाइन पढ़ा जा सकता है। उन्होंने इस मामले की अंतिम रिपोर्ट को सार्वजनिक नहीं करने की बात को सही ठहराते हुए कहा कि "इस बात के पर्याप्त कारण हैं कि इससे जज असमंजस में पड़ जाते"। इस संदर्भ में, जजों की सुरक्षा को लेकर संवैधानिक व्यवस्था को और मज़बूत बनाए जाने की ज़रूरत है।
उन्होंने कुछ विशेष लोगों के समूह पर हमला किया जिन्होंने "स्वतंत्र जज" कौन है इस बारे में जजों की "पहचान कर" उन पर अपेक्षाओं का बोझ लादकर न्यायपालिका का अपहरण कर लिया है।
सेवानिवृत्ति के बाद जजों के कार्य के बारे में पूछे जाने पर सांसद गोगोई ने कहा कि अवकाश लेने वाले जजों को तीन श्रेणियों में बांटा जा सकता है :
1. अवकाश प्राप्त एक्टिविस्ट जज, जो अवकाश लेने के तुरंत बाद ही बोलने की आज़ादी, न्यायिक व्यवस्था आदि के बारे में बोलने लगते हैं पर जब पद पर होते हैं तो उनका मुंह नहीं खुलता है।
2. वे जो स्वतंत्र रूप से पेशेवर और वाणिज्यिक काम करते हैं।
3. ऐसे जज जो रिटायर होने के बाद काम में लगे रहते हैं।
हाल ही में रिटायर हुए जस्टिस दीपक गुप्ता की ओर संभावित रूप से संकेत करे हुए सांसद ने एक्टिविस्ट जज की निष्ठा पर सवाल उठाया और अवकाश प्राप्त करने वाले ऐसे जजों की चर्चा की जो वकीलों से जान पहचान बनाकर वाणिज्यिक काम करते हैं। रिटायरमेंट-बाद के इंगेजमेंट के बारे में उन्होंने 2016 के विधि रिपोर्ट का हवाला दिया जिसमें कहा गया है कि अवकाश लेने वाले 100 जजों में से 70 ने पोस्ट-रिटायरमेंट इगेज्मेंट को स्वीकार किया और उन्होंने कहा कि इसका यह मतलब नहीं है कि इससे न्यायपालिका की आज़ादी को नुक़सान पहुंचा है।
इस वेबिनार का समापन पूर्व मुख्य न्यायाधीश ने यह कहते हुए किया कि किसी मामले में फ़ैसला किस जज ने लिखा है इस बात का खुलासा किए जाने की ज़रूरत नहीं है। उनका आशय पांच जजों की उस पीठ से था जिसने राम जन्मभूमि मामले में फ़ैसला दिया है। इस फ़ैसले में परंपरा से हटते हुए यह नहीं बताया गया है कि फ़ैसला किस जज ने लिखा है।