आरोपियों को समन करते समय आरोपों की सत्यता का निर्धारण नहीं किया जा सकता, इलाहाबाद हाईकोर्ट ने दोहराया

इलाहाबाद हाईकोर्ट
इलाहाबाद हाईकोर्ट ने दोहराया कि आरोपों की सत्यता या अन्यथा का निर्धारण आरोपी को तलब करने के स्तर पर नहीं किया जा सकता है। जस्टिस संजय कुमार सिंह की खंडपीठ ने मजिस्ट्रेट के समन आदेश के खिलाफ दायर 482 सीआरपीसी आवेदन को खारिज करते हुए यह टिप्पणी की।
मामला
दरअसल, धारा 156(3) सीआरपीसी के तहत पीड़िता ने सितंबर 2014 में न्यायिक मजिस्ट्रेट-III, मेरठ के समक्ष दायर एक आवेदन में आरोप लगाया था कि 27 अगस्त 2014 को जब वह अपने कमरे में सो रही थी, तब लगभग 11.00 बजे आरोपी ने उसके कमरे में घुसकर उस पर टूट पड़ा था और जबरन उसके साथ दुष्कर्म करने का प्रयास किया था।
आगे आरोप लगाया गया कि पीड़िता के चीखने-चिल्लाने पर उसकी मां जाग गई और आरोपी को पकड़ लिया। हालांकि वह बल प्रयोग, गाली-गलौज कर और मां से मारपीट कर फरार हो गया। उसने भागते हुए यह धमकी दी कि यदि पीड़िता ने यौन संबंध नहीं बनाया तो उस पर तेजाब से हमला कर देगा।
आवेदन को न्यायिक मजिस्ट्रेट-III, मेरठ ने स्वीकार कर लिया और संबंधित थाना प्रभारी को एफआईआर दर्ज कर मामले की जांच करने का निर्देश दिया गया। मजिस्ट्रेट के आदेश के अनुसरण में आईपीसी की धारा 354, 376, 511, 504, 506, 323, 452 के तहत एफआईआर दर्ज की गई।
जांच अधिकारी ने आवेदक के खिलाफ आरोप पत्र प्रस्तुत किया, जिस पर संज्ञान लिया गया और आरोपित-आवेदक को तलब किया गया। जिसे मौजूदा आवेदन में चुनौती का विषय बनाया गया है।
अवलोकन
हाईकोर्ट ने सुप्रीम कोर्ट की ओर से दिए गए फैसलों की एक श्रृंखला को ध्यान में रखते हुए नोट किया कि रद्द करने की शक्ति का प्रयोग संयम से और सावधानी के साथ और दुर्लभ मामलों में किया जाना चाहिए और यह कि किसी एफआईआर/शिकायत की जांच करते समय, जिसे रद्द करने की मांग की गई है, अदालत एफआईआर/शिकायत में लगाए गए आरोपों की विश्वसनीयता या वास्तविकता के बारे में कोई जांच शुरू नहीं कर सकती है।
इस पृष्ठभूमि में कोर्ट ने निष्कर्ष निकाला कि मौजूदा मामला दुर्लभतम मामलों की श्रेणी में नहीं आता है कि इसे रद्द किया जा सके।
कोर्ट ने कहा, "न्यायालय का विचार है कि साक्ष्य की सराहना ट्रायल कोर्ट का एक कार्य है और यह न्यायालय धारा 482 सीआरपीसी के तहत शक्ति के प्रयोग में इस तरह के अधिकार क्षेत्र को ग्रहण नहीं कर सकता है और कानून के तहत प्रदान की गई परीक्षण की प्रक्रिया को समाप्त कर सकता है।
... यह सुप्रीम कोर्ट द्वारा अच्छी तरह से तय किया गया है ... कि प्री-ट्रायल चरण में धारा 482 सीआरपीसी के तहत शक्ति का उपयोग नियमित तरीके से नहीं किया जाना चाहिए, बल्कि इसे कम से कम इस्तेमाल किया जाना चाहिए...।
कोर्ट ने आगे कहा कि अपराध का संज्ञान लेना एक ऐसा क्षेत्र है जो विशेष रूप से मजिस्ट्रेट के अधिकार क्षेत्र में आता है और इस स्तर पर, मजिस्ट्रेट को मामले के गुण-दोष में जाने की आवश्यकता नहीं है।
अदालत ने जोर देकर कहा, "आरोपों की वास्तविकता या अन्यथा का निर्धारण आरोपी को तलब करने के स्तर पर भी नहीं किया जा सकता है।"
अदालत ने जोर देकर कहा कि आवेदक के खिलाफ प्रथम दृष्टया संज्ञेय अपराध बनाया गया था। इसे देखते हुए मौजूदा आवेदन खारिज कर दिया गया।
केस शीर्षकः पंकज त्यागी बनाम यूपी राज्य और अन्य।
केस सिटेशन: 2022 लाइव लॉ (एबी) 124