वाणिज्यिक लेनदेन से पैदा हुए मध्यस्थ अवॉर्ड के प्रवर्तन के खिलाफ विदेशी राज्य संप्रभु प्रतिरक्षा का दावा नहीं कर सकते: दिल्ली उच्च न्यायालय

Update: 2021-06-23 09:47 GMT

Delhi High Court

दिल्ली उच्च न्यायालय ने माना है कि एक विदेशी राज्य एक वाणिज्यिक लेनदेन से पैदा हुए एक मध्यस्थ अवॉर्ड के प्रवर्तन के खिलाफ नागरिक प्रक्रिया संहिता की धारा 86 के तहत संप्रभु प्रतिरक्षा का दावा नहीं कर सकता है।

जस्टिस जेआर मिधा की सिंगल जज बेंच ने कहा, "एक वाणिज्यिक लेनदेन से पैदा होने वाले अनुबंध में, जैसे कि मौजूदा याचिकाओं में शामिल लेनदेन में हैं, एक विदेशी राज्य अपने खिलाफ दिए गए मध्यस्थ  अवॉर्ड के निष्पादन को रोकने के लिए संप्रभु प्रतिरक्षा की मांग नहीं कर सकता है। एक बार एक विदेशी राज्य एक वाणिज्यिक इकाई बनता है, तो यह वाणिज्यिक कानूनी पारिस्थितिकी तंत्र के नियमों से बाध्य होगा और किसी भी प्रतिरक्षा की मांग करने की अनुमति नहीं दी जा सकती है, जो अन्यथा केवल तभी उपलब्ध है जब वह अपनी संप्रभु क्षमता में कार्य कर रहा हो।"

उन्होंने आगे कहा, "हालांकि, अगर विदेशी राज्यों को मध्यस्थ अवॉर्डके प्रवर्तन को रोकने की अनुमति दी जाती है, जो कि उपरोक्त सहमति प्रक्रिया के अंतिम फल हैं, इस विशिष्ट आधार पर कि वे विशुद्ध रूप से विदेशी राज्य होने के कारण विशेष उपचार के हकदार हैं, तो अंतर्राष्ट्रीय वाणिज्यिक मध्यस्थता के महत्वपूर्ण आधार का पतन हो जाएगा। विदेशी राज्यों को मध्यस्थता की कार्यवाही में प्रति-पक्ष की गंभीर हानि के संबंध में दंडमुक्ति के साथ कार्य करने की अनुमति नहीं दी जा सकती है।"

मौजूदा मामले के तहत विदेशी राज्यों के खिलाफ मध्यस्थ अवॉर्ड को लागू करने की मांग करने वाली दो याचिकाओं पर बेंच विचार कर रही। याचिकाएं अफगानिस्तान के के दूतावास और इथियोपिया के शिक्षा मंत्रालय की हैं।

न्यायालय के विचार के लिए उठे कानून के दो महत्वपूर्ण प्रश्न थे:

I. क्या किसी विदेशी राज्य के खिलाफ मध्यस्थ निर्णय लागू करने के लिए नागरिक प्रक्रिया संहिता की धारा 86(3) के तहत केंद्र सरकार की पूर्व सहमति आवश्यक है?

II. क्या एक विदेशी राज्य एक वाणिज्यिक लेनदेन से उत्पन्न होने वाले मध्यस्थ अवॉर्ड के प्रवर्तन के खिलाफ संप्रभु प्रतिरक्षा का दावा कर सकता है?

पक्षों की प्रस्तुतियों, इस विषय पर प्रासंगिक प्रावधानों सहित मध्यस्थता और सुलह अधिनियम और धारा के 35 और धारा 36, नागरिक प्रक्रिया संहिता की धारा 86 और इस मुद्दे पर कई निर्णयों को देखने के बाद न्यायालय का विचार था कि एक विदेशी राज्य के खिलाफ एक मध्यस्थ अवॉर्ड लागू करने के लिए नागरिक प्रक्रिया संहिता की धारा 86 (3) के तहत केंद्र सरकार की पूर्व सहमति आवश्यक नहीं है।

कोर्ट ने कहा, "मध्यस्थता और सुलह अधिनियम की धारा 36 एक मध्यस्थ अवॉर्ड को नागरिक प्रक्रिया संहिता के तहत एक अवॉर्ड के प्रवर्तन के सीमित उद्देश्य के लिए न्यायालय के "डिक्री" के रूप में मानती है, जिसे इस तरह से नहीं पढ़ा जा सकता है कि वो मध्यस्थता और सुलह अधिनियम के बहुत अंतर्निहित तर्क अर्थात् पक्षों के बीच विवादों का त्वरित, बाध्यकारी और कानूनी रूप से लागू करने योग्य समाधान, को हरा दे।"

इसके आगे कोर्ट ने कहा, "नागरिक प्रक्रिया संहिता की धारा 86 सीमित प्रयोज्यता की है और इसके तहत सुरक्षा निहित छूट के मामलों पर लागू नहीं होगी। एक पार्टी और एक विदेशी राज्य के बीच एक वाणिज्यिक अनुबंध में एक मध्यस्थता समझौता विदेशी राज्य द्वारा एक निहित छूट है ताकि इसकी सॉवरेन इम्युनिटी के सिद्धांत पर आधारित एक प्रवर्तन कार्रवाई के खिलाफ बचाव किया जाए।"

इसे देखते हुए, न्यायालय ने माना कि मध्यस्थ अवॉर्ड को लागू करने की मांग करने वाली दोनों दलीलें विचारणीय थीं और दो विदेशी राज्यों को संबंधित अवॉर्ड राशि को उच्च न्यायालय के रजिस्ट्रार जनरल के पास चार सप्ताह के भीतर जमा करने का निर्देश दिया।

कोर्ट ने कहा, "यदि राशि चार सप्ताह के भीतर प्रतिवादियों द्वारा जमा नहीं की जाती है, तो याचिकाकर्ता प्रतिवादियों की संपत्ति की कुर्की की मांग करने के लिए स्वतंत्र होंगे।"

टाइटिल: केएलए कॉन्स्ट टेक्नोलॉजीज प्रा लिमिटेड बनाम अफगानिस्तान इस्लामी गणराज्य के दूतावास

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