दोषपूर्ण प्रारंभिक जांच, अकुशल अभियोजन पक्ष और ट्रायल जज की निष्क्रिय भागीदारी के कारण सभी अभियुक्त बरी हो गएः वालयार बलात्कार-मौत मामले में केरल हाईकोर्ट की टिप्पणी
वालयार के बलात्कार के बाद मौत के मामलों में दोबार मुकदमे का आदेश देते हुए, केरल हाईकोर्ट ने कहा है कि प्रारंभिक जांच में दोष, अकुशल अभियोजन पक्ष और ट्रायल जज की निष्क्रिय भागीदारी के कारण सभी अभियुक्त बरी हो गए।
हाईकोर्ट ने यहां तक कहा है कि इन खामियों ने कुल मिलाकर ट्रायल को एक "मॉक ट्रायल" बना दिया।
"... हम पूरी तरह से आश्वस्त हैं कि मुकदमे की असावधानी भरी प्रारंभिक जांच और सरसरी, बेमेल और अकुशल अभियोजन पक्ष, साथ में ट्रायल जज की निष्क्रिय भागीदारी का नतीजा न्याय का गर्भपात रहा है, और सभी मामलों में आरोपी बरी हो गए हैं। निश्चित रूप से, तथ्य इन मामलों की आसाधारण स्थितियों का खुलासा करते हैं, जिन्हें असाधारण उपचार की आवश्यकता है। इसलिए, हमें उपरोक्त सभी सत्र मामलों में मुकदमे को रोकने में कोई झिझक नहीं है, जिन्हें मॉक ट्रायल के स्तर पर उतार दिया गया है।"
2017 में केरल के वालयार में 13 और 9 साल की उम्र की दो बहनों के साथ बलात्कार किया गया था, और उन्हें मार दिया गया था। 13 साल की बड़ी बहन, 13 जनवरी, 2017 को घर में फांसी पर लटकी हुई पाई गई थी। दो महीने बाद ही, छोटी बहन, जिसकी उम्र 9 साल थी, 4 मार्च, 2017 को घर में फांसी पर लटकी हुई पाई गई थी। लड़कियां अनुसूचित जाति की थीं। पोस्टमॉर्टम रिपोर्ट के अनुसार, दोनों लड़कियों पर यौन हमला किया गया था। छोटी बहन के मामले में शव परीक्षण रिपोर्ट में हत्या के बाद फांसी पर लटकाए जाने की आशंका जताई गई थी।
हालांकि, पुलिस ने हत्या के कोण की जांच नहीं की, और चार आरोपियों- वी मधु, एम मधु, शिबू और प्रदीप कुमार के खिलाफ आत्महत्या के लिए उकसाने, बलात्कार और अप्राकृतिक यौन संबंध और पोक्सो अधिनियम के तहत यौन हमले के आरोपों के साथ अंतिम रिपोर्ट पेश कर दी।
पुलिस के अनुसार, आरोपियों द्वारा असहनीय यौन हमले के कारण लड़कियों ने आत्महत्या कर ली। आरोपियों से एक प्रदीप कुमार की नवंबर में संदिग्ध आत्महत्या के कारण मौत हो गई। मामले में एक अन्य आरोपी किशोर है और किशोर न्याय बोर्ड के समक्ष मुकदमे का सामना कर रहा है।
जांच में कमियां
जस्टिस हरिप्रसाद ने कहा, "हम यह कहने के लिए विवश हैं कि इन मामलों में जांच का प्रारंभिक हिस्सा पूर्णतया घृणित था।"
न्यायालय ने कहा कि जांच में प्रारंभिक खामियों ने मामले को बिल्कुल कमजोर कर दिया। डिप्टी एसपी, जिन्हें छोटी लड़की की मौत के एक सप्ताह बाद इन मामलों की जांच करने की जिम्मेदारी सौंपी गई थी, अच्छे काम के बावजूद, कोई उचित वैज्ञानिक साक्ष्य नहीं जुटा सके।
"महिलाओं और बच्चों के खिलाफ अपराधों की जांच कर रहे पुलिस अधिकारियों, विशेष रूप से पोक्सो अधिनियम के तहत जांच कर रहे, पुलिस अधिकारियों की ईमानदारी और क्षमता का स्तर बहुत अधिक होता है। उन्हें कानून की बारीकियों को समझने के लिए उचित कानूनी प्रशिक्षण प्राप्त करना चाहिए। इसके अलावा, उन्हें ऐसे मामलों में वैज्ञानिक सबूत जुटाने के लिए उचित तरीके से निर्देश दिए जाने चाहिए। इससे भी महत्वपूर्ण यह है कि इस प्रकार के गंभीर अपराधों की जांच करते समय उन्हें पीड़ितों, उनके परिवार और समाज की भावनाओं के प्रति संवेदनशील होना चाहिए।
अभियोजक बुरी तरह से विफल रहे
उच्च न्यायालय ने उल्लेख किया कि जो महत्वपूर्ण गवाह, जो अपने पिछले बयानों से पलट गए, उनके साथ प्रभावी ढंग से जिरह नहीं की गई।
हाईकोर्ट ने कहा, "हालांकि कुछ मामलों में अभियोजक ने अदालत की अनुमति के साथ साक्ष्य अधिनियम की धारा 154 के तहत कुछ अस्पष्ट सवाल रखे थे, लेकिन हम पाते हैं कि अभियोजक गवाहों से उनके पिछले बयानों पर जिरह करने में बुरी तरह विफल रहे।"
अभियोजक ट्रायल कोर्ट के समक्ष सभी सबूतों को वैध तरीके से रखने में विफल रहे। अदालत ने कहा कि अभियोजन पक्ष का चयन योग्यता के बजाए अक्सर राजनीतिक आधार पर किया जाता है।
ट्रायल जज मूक दर्शक बने रहे
कोर्ट ने यह भी कहा कि ट्रायल जज ने मामले में सक्रिय भागीदारी नहीं दिखाई। इसलिए, हाईकोर्ट ने केरल न्यायिक अकादमी के निदेशक को निर्देश दिया कि पोक्से मामलों को संभालने वाले अतिरिक्त सत्र जजों के लिए समय-समय पर विशेष प्रशिक्षण कार्यक्रम की व्यवस्था करें, ताकि उन्हें ऐसे मामलों में शामिल कानूनी, सामाजिक और मनोवैज्ञानिक पहलुओं पर संवेदनशील बनाया जा सके।
फैसले में कहा गया है, "जिस तरह से विद्वान जज ने मुकदमा चलाया है, उससे हम बहुत निराश हैं। साक्ष्य लेने के समय वह सक्रिय भूमिका निभाने में नाकाम रहे।"
फैसले में साक्ष्य अधिनियम की धारा 165 का उल्लेख किया गया है, जो एक जज को गवाहों से सवाल करने में सक्षम बनाता है। एक ट्रायल जज, प्रासंगिक तथ्यों का उचित प्रमाण खोजने या प्राप्त करने के लिए, व्यापक शक्तियों का प्रयोग कर सकता है।
वह किसी भी दृष्टिकोण से मामले की सुनवाई कर सकता है और पार्टियों की ओर से दिए गए तथ्यों से बंधा नहीं है। वह पूछ सकता है (1) किसी भी प्रश्न को जो उसे उचित लगे, (2) किसी भी रूप में, (3) किसी भी गवाह से, (5) या पक्षकारों से (6) और किसी भी तथ्य को, वह प्रासंगिक हो या अप्रासंगिक।
धारा 165 का उद्देश्य न्यायाधीश को सच्चाई को पाने के लिए व्यापक शक्ति प्रदान करना है। इस धारा का प्रभाव यह है कि न्यायाधीश मामले की तह तक जाने के लिए सभी तथ्यों की जांच कर सकता है, पूछताछ कर सकता है। फैसले ने भारतीय साक्ष्य अधिनियम के मसौदाकार सर जेम्स स्टीफन का भी हवाला दिया।
अदालत ने कहा कि इस मामले में विद्वान न्यायाधीश साक्ष्य अधिनियम की धारा 165 के तहत अपनी शक्तियों का इस्तेमाल करने में पूरी तरह से विफल रहे। कोर्ट ने कहा कि मामले में उचित सुनवाई नहीं हुई। इसलिए, मामले को खारिज करने के लिए अपीलीय अदालत के संकीर्ण दायरे के बारे में अभियुक्तों के तर्क मामले में प्रासंगिक नहीं हैं।
अदालत ने कहा, "बरी होने के खिलाफ अपील में अपीलीय शक्तियों के प्रयोग को नियंत्रित करने वाले सिद्धांत तभी लागू होंगे, जब कानूनी अर्थों में उचित सुनवाई हो।"
राज्य सरकार की अपील को स्वीकार करते हुए, डिवीजन बेंच ने आरोपियों को बरी करने के फैसले को रद्द कर दिया। आरोपियों को 20 जनवरी को ट्रायल कोर्ट के समक्ष आत्मसमर्पण करने के लिए कहा गया है। कोर्ट ने मामले में आगे की जांच के लिए अभियोजन पक्ष को भी स्वतंत्रता दी है।
चार आरोपियों में से एक प्रदीप कुमार की पिछले साल मौत हो गई थी। वालिया मधु, कुट्टी मधु और शिबू अन्य तीन आरोपी हैं। कोर्ट ने ट्रायल जज को निर्देश दिया कि वे अतिरिक्त साक्ष्य जोड़ने के लिए पक्षकारों को अनुमति दें।
ट्रायल कोर्ट के फैसले के बारे में विस्तृत रिपोर्ट यहां, यहां और यहां पढ़ी जा सकती है।
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