'यौन पीड़िता के सबूतों को वैसे संदेह के साथ परीक्षण की जरूरत नहीं, जैसे कि किसी सह-अपराधी के सबूतों के: कलकत्ता हाईकोर्ट ने पॉक्सो मामले में दोषसिद्धि को बरकरार रखा

Update: 2022-03-27 10:21 GMT

कलकत्ता हाईकोर्ट 

कलकत्ता हाईकोर्ट ने यह मानते हुए कि यौन पीड़िता का एक ही सबूत दोषसिद्धि के लिए पर्याप्त है, कहा कि पीड़िता के सबूतों को वैसे ही संदेह के साथ परीक्षण करने की जरूरत नहीं है, जैसे कि किसी सह-अपराधी के। जस्टिस शेखर बी. सराफ और जस्टिस केसांग डोमा भूटिया की पीठ ने कहा कि सुप्रीम कोर्ट ने विभिन्न फैसलों में कहा है कि गंभीर अपवादों को छोड़कर, यौन पीड़िता का सबूत सजा के लिए पर्याप्त है।

कोर्ट ने कहा, 

"एक लड़की, जो यौन उत्पीड़न की शिकार है, अपराध की सहभागी नहीं है, बल्कि किसी अन्य व्यक्ति की वासना की शिकार है और इसलिए उसके सबूतों को एक सह-अपराधी के रूप संदेह के साथ परीक्षण करने की जरूरत नहीं है। एक यौन पीड़ित एक महिला का एकमात्र और भरोसेमंद सबूत उसके हमलावर को दोषी ठहराने के लिए पर्याप्त है। बलात्कार के अपराध के आरोपी को दोषी साबित करने के लिए अभियोजन पक्ष का एकमात्र सबूत पर्याप्त है, बशर्ते वह आत्मविश्वास को प्रेरित करता हो, बिल्कुल भरोसेमंद, बेदाग और उत्कृष्ट गुणवत्ता का हो।"

अदालत ने कहा कि मामले के तथ्यों और परिस्थितियों को ध्यान में रखते हुए नाबालिग यौन पीड़िता की गवाही की सराहना की जानी चाहिए। यह भी नोट किया गया कि भले ही पीड़िता की मां मुकर जाए, यदि विश्वसनीय पाया जाता है तो पीड़ित का एकमात्र साक्ष्य दोषसिद्धि के लिए पर्याप्त हो सकता है।

पृष्ठभूमि

सत्र न्यायालय की ओर से छह नवंबर, 2017 के फैसले के खिलाफ मौजूदा अपील दायर की गई थी, जिसमें अपीलकर्ता को पोक्सो एक्ट की धारा 6 सहपठित धारा 376 आईपीसी के तहत दंडनीय अपराध के लिए दोषी ठहराया गया।

अपीलकर्ता पीड़िता का सौतेला पिता है। जुलाई, 2016 से जब तक कि पीड़िता ने अपनी मां को पीरियड ना आने की जानकारी दी, उसके पिता ने उस अवधि में कई बार उसके साथ बलात्कार किया। जब भी उसकी मां और बहन घर से बाहर रहतीं, अपीलकर्ता नाबालिग पीड़िता के साथ दुष्कर्म करता था।

जानकारी होने पर नाबालिग पीड़िता की मां उसे अस्पताल ले गई, जहां चिकित्सकीय जांच में वह छह माह की गर्भवती पाई गई।

नतीजतन, सौतेले पिता के साथ मां ने नाबालिग पीड़िता को निर्मला शिशु भवन, पोर्ट ब्लेयर (परित्यक्त शिशुओं और बच्चों के लिए मिशनरीज ऑफ चैरिटी का ‌‌चिल्ड्रन होम या देखभाल और संरक्षण के जरूरतमंद नाबालिग बच्चों के लिए संस्था या आश्रय गृह) 8 जून, 2017 को भर्ती कराया और प्रसव के बाद उसे वापस लेने का आश्वासन दिया।

नाबालिग पीड़िता को गर्भवती होने पर और यह जानने पर कि उसे अपने ही सौतेले पिता ने गर्भवती किया है, बाल गृह की सिस्टर-इन-चार्ज ने संबंधित प्राधिकारी यानी समाज कल्याण के नोडल अधिकारी को जानकारी दी और मामले की कानूनी प्रक्रिया शुरु करवाई। नोडल अधिकारी ने बाद में जिला बाल संरक्षण इकाई (डीसीपीयू), पोर्ट ब्लेयर को मामले की जानकारी दी।

इसके बाद डीसीपीयू के सदस्यों और महिला पुलिस प्रकोष्ठ, पोर्ट ब्लेयर की एक महिला पुलिस अधिकारी ने पीड़ित लड़की से बात की, जिसने उन्हें बताया कि उसके सौतेले पिता ने उसके साथ यौन अपराध किया है।

फिर उन्हें पीड़िता द्वारा विधिवत हस्ताक्षरित एक लिखित शिकायत प्राप्त हुई और जिस पर डीसीपीयू के सदस्यों ने भी हस्ताक्षर किए थे और बाद में उसे आवश्यक कानूनी कार्रवाई के लिए संबंधित पुलिस थाने में भेज दिया।

इसके बाद, 5 जून, 2017 को पोक्सो अधिनियम की धारा 5(j)(ii)/6 सहपठित धारा 376 आईपीसी (बलात्कार) के तहत शून्य एफआईआर दर्ज की गई।

टिप्पणियां

अदालत ने शुरुआत में नाबालिग पीड़िता की जैविक मां को कड़ी फटकार लगाई।

कोर्ट ने कहा,

"पीड़िता की जैविक मां का असामान्य आचरण इस धारणा को जन्म देता है कि वह अपराध में अपने दूसरे पति की संलिप्तता के बारे में बहुत अच्छी तरह से जानती थी। वह जानती थी कि वही असली अपराधी है और इसलिए अपने परिवार को स्थानीय समुदाय में बहिष्कृत होने से बचाने के लिए और/या अपनी दूसरी शादी को बचाने के लिए एफआईआर दर्ज करने या असली अपराधी के बारे में पता लगाने की जहमत नहीं उठाई।"

नाबालिग पीड़िता के सबूतों की जांच के बाद कोर्ट ने कहा कि पीड़िता द्वारा दिए गए सबूतों पर अविश्वास करने के लिए रिकॉर्ड में कुछ भी नहीं है। अदालत ने कहा कि पीड़िता ने अपने मुख्य साक्ष्य में स्पष्ट रूप से वही दोहराया, जो उसने अपनी एफआईआर में और सीआरपीसी की धारा 164 के तहत संबंधित न्यायिक मजिस्ट्रेट द्वारा दर्ज बयान में आरोप लगाया था। कोर्ट ने यह भी नोट किया कि नाबालिग ने अपनी जिरह में स्पष्ट रूप से इनकार किया था कि उसने कथित तौर पर एक प्रेमी के साथ शारीरिक संबंध बनाए थे, इसलिए वह गर्भवती हो गई थी।

अदालत ने यह भी रेखांकित किया कि यह मायने नहीं रखता कि नाबालिग पीड़िता ने धारा 376 आईपीसी के खंड 6 के मद्देनजर संभोग के लिए सहमति दी या नहीं दी। उल्लेखनीय कि उक्त धाराओं में कहा गया है कि 16 साल से कम उम्र की लड़की, यदि वह पत्नी नहीं है, के साथ किया गया संभोग बलात्कार है। यह कानून का स्थापित सिद्धांत है कि बलात्कार के मामलों में नाबालिग की सहमति कानून की नजर में सहमति नहीं है।

कोर्ट ने कहा कि मौजूदा मामले में नाबालिग पीड़िता का जन्म 18 दिसंबर 2001 को हुआ था और जब कथित घटना जुलाई, 2016 से 2017 की शुरुआत के बीच हुई थी तो पीड़िता 16 साल से कम उम्र की एक नाबालिग लड़की थी।

तदनुसार, न्यायालय ने अपीलकर्ता की पॉक्सो अधिनियम, 2012 की धारा 5 के तहत दोषसिद्धी, धारा 4 के तहत दंडनीय, को बरकरार रखा।

हालांकि, अदालत ने पाया कि चूंकि कथित अपराध जुलाई, 2016 से अप्रैल, 2017 के बीच हुआ था, इसलिए आरोपी को पोक्सो एक्ट की धारा 6 के मूल प्रावधान के अनुसार सजा सुनाई जा सकती है, न कि अधिनियम की धारा 6 के संशोधित प्रावधानों के अनुसार, जो 16 अगस्त, 2019 से लागू हुआ।

मामले में संविधान के अनुच्छेद 20 पर भरोसा रखा गया, जो यह निर्धारित करता है कि किसी को भी अपराध के लिए उससे अधिक दंड नहीं दिया जाएगा, जिसका उस समय लागू कानून के तहत प्रावधान है।

केस शीर्षक: राम सेवक लोहार बनाम राज्य

केस उद्धरण: 2022 लाइव लॉ (Cal) 92

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