डीवी एक्ट | बेटियां केवल वयस्क होने तक भरण-पोषण की हकदार हैं, शादी तक नहीं: कर्नाटक हाईकोर्ट
कर्नाटक हाईकोर्ट ने स्पष्ट किया कि घरेलू हिंसा से महिलाओं का संरक्षण अधिनियम, 2005 (Protection of Women from Domestic Violence Act, 2005) के तहत पिता को अपनी बेटियों को केवल उनके वयस्क होने तक भरण-पोषण राशि का भुगतान करना होगा। उनकी शादी तक भरण-पोषण का भुगतान करने का आदेश नहीं दिया जा सकता।
जस्टिस राजेंद्र बदामीकर ने कहा कि वयस्क होने पर यदि बेटियां अपना भरण-पोषण करने में सक्षम नहीं हैं तो वे हिंदू दत्तक ग्रहण अधिनियम के प्रावधानों के तहत भरण-पोषण की मांग कर सकती हैं।
कोर्ट ने कहा,
“वर्तमान मामले में माना जाता है कि बालिग बेटियां पक्षकार नहीं हैं और उन्होंने स्वतंत्र रूप से कोई भरण-पोषण नहीं मांगा है। यदि वे अपना भरण-पोषण करने में असमर्थ हैं तो उन्हें हिंदू दत्तक ग्रहण अधिनियम के प्रावधानों के तहत वयस्क होने पर भरण-पोषण की मांग करने का उपाय मिला है। इसलिए घरेलू हिंसा अधिनियम के प्रावधानों के तहत बेटियों की शादी तक भरण-पोषण देने का सवाल ही नहीं उठता है। बच्चे के वयस्क होने तक भरण-पोषण दिया जा सकता है।”
इस जोड़े की शादी 1998 में हुई थी और उनकी दो बेटियां हैं। पत्नी ने एक्ट की धारा 12 के तहत आवेदन दायर किया, जिसमें प्रतिवादी-पति के खिलाफ किसी भी घरेलू हिंसा को करने से निषेधाज्ञा की मांग की गी थी। साथ ही अलग निवास के लिए राहत की मांग की थी और साथ ही भरण-पोषण के साथ-साथ 10,00,000 रुपये के मुआवजे की भी मांग की थी।
ट्रायल कोर्ट ने प्रकथनों पर विचार करने के बाद आंशिक रूप से पति को घरेलू हिंसा न करने का निर्देश देते हुए आवेदन स्वीकार कर लिया। कोर्ट ने निर्देश दिया कि याचिकाकर्ता और प्रतिवादी के बच्चे शादी होने तक 5,000 रुपये के मासिक भरण-पोषण के हकदार हैं। इसके अलावा, उन्होंने नुकसान के तौर पर 5,00,000 रुपये का मुआवजा भी दिया।
पति ने आदेश को सेशन कोर्ट में चुनौती दी, जिसने आदेश को संशोधित किया और उसे बेटियों को 4,000 रुपये देने का निर्देश दिया और हर्जाना/मुआवजा घटाकर 1 लाख रुपये कर दिया।
पत्नी के वकील ने तर्क दिया कि मजिस्ट्रेट द्वारा बेटियों को 5,000 रुपये का भरण-पोषण दिया गया, जिसे घटाकर 4,000 रुपये कर दिया गया और हर्जाना 5,00,000 रुपये से घटाकर 1,00,000 रुपये कर दिया गया। इस कटौती का कोई कारण नहीं है। भरण-पोषण के साथ-साथ क्षति भी है। पिता होने के नाते प्रतिवादी ने नाबालिग बच्चों के भरण-पोषण के लिए कोई प्रावधान नहीं किया और यह पिता का कर्तव्य है कि वह अपने बच्चों का भरण-पोषण करे।
पति ने याचिका का विरोध करते हुए तर्क दिया कि याचिकाकर्ता और प्रतिवादी दोनों सरकारी शिक्षक हैं और उनके पास पर्याप्त साधन हैं। याचिकाकर्ता (पत्नी) भी बच्चों के भरण-पोषण के लिए समान रूप से जिम्मेदार है और बच्चे की परिभाषा 18 वर्ष से कम आयु का व्यक्ति है। इसलिए इस एक्ट के प्रावधानों के तहत वयस्क होने के बाद उन्हें भरण-पोषण नहीं दिया जा सकता। बेटियां हिंदू दत्तक ग्रहण और भरण-पोषण अधिनियम, 1956 के प्रावधानों के तहत भरण-पोषण का दावा करते हुए स्वतंत्र याचिका दायर करने के लिए स्वतंत्र हैं, क्योंकि अब वे वयस्क हो गई हैं।
जांच - परिणाम:
रिकॉर्ड देखने पर पीठ ने कहा कि माना कि बच्चों का जन्म क्रमशः 1999 और 2001 में हुआ था और अब तक वे वयस्क हो चुके हैं।
पीड़ित व्यक्ति के साथ-साथ बच्चों को भी भरण-पोषण देने का प्रावधान करने वाली एक्ट की धारा 20(1)(डी) का हवाला देते हुए कहा गया,
“बच्चे की परिभाषा एक्ट की धारा 2 (डी) में दी गई है, जिसमें बच्चे को 18 वर्ष से कम उम्र के किसी भी व्यक्ति के रूप में वर्णित किया गया है। इसमें गोद लिया हुआ, सौतेला या पालक बच्चा शामिल है। इसलिए एक्ट की धारा 20 के प्रावधानों के तहत भरण-पोषण केवल पीड़ित व्यक्ति और बच्चों को ही दिया जा सकता है।
तब यह माना गया कि घरेलू हिंसा अधिनियम के प्रावधानों के तहत बच्चों को वयस्क होने तक भरण-पोषण दिया जा सकता है। साक्ष्य से पता चलता है कि बच्चों को प्रति माह 5,000 रुपये से 6,000 रुपये के भरण-पोषण की आवश्यकता होती है। हालांकि, यह माना गया कि यह प्रतिवादी की एकमात्र ज़िम्मेदारी नहीं है और बच्चों का भरण-पोषण करना मां की भी ज़िम्मेदारी है।
इसमें जोड़ा गया,
“चूंकि दोनों शिक्षक हैं, इसलिए मजिस्ट्रेट द्वारा प्रति माह 5,000 रुपये का गुजारा भत्ता दिया जाना थोड़ा अधिक मालूम होता है। सेशन कोर्ट ने इसे घटाकर 4,000 रुपये कर दिया, जो उचित है। यदि प्रतिवादी-पति द्वारा 4,000 रुपये का भुगतान किया जाता है तो शेष राशि याचिकाकर्ता-पत्नी/मां द्वारा योगदान की जा सकती है।”
इस प्रकार, यह पाया गया कि सेशन जज के आदेश में किसी हस्तक्षेप की आवश्यकता नहीं है। हालांकि, दोनों निचली अदालतों ने याचिका की तारीख से बेटियों की शादी तक भरण-पोषण का फैसला सुनाया, जिसे अनुचित पाया गया। कहा गया कि बच्चे वयस्क होने की तारीख तक भरण-पोषण के हकदार हैं।
मुआवजा राशि में कटौती के मुद्दे पर विचार करते हुए पीठ ने कहा,
“वर्तमान मामले में सबूत स्पष्ट रूप से स्थापित करते हैं कि याचिकाकर्ता-पत्नी घरेलू हिंसा का शिकार है। इस साक्ष्य की पुष्टि संरक्षण अधिकारी की रिपोर्ट से भी होती है। इसके अलावा, नाबालिग बच्चों के भरण-पोषण के लिए कोई प्रावधान न करना भी घरेलू हिंसा कहा जा सकता है, क्योंकि बच्चे के भरण-पोषण की जिम्मेदारी अकेले मां की नहीं है। इसलिए यह साबित करने के लिए फिजिकल एविडेंस हैं कि याचिकाकर्ता के खिलाफ प्रतिवादी-पति ने घरेलू हिंसा की है।''
हालांकि, यह व्यक्त किया गया कि मुआवजे की गणना के लिए कोई प्रावधान नहीं है। यह केवल 'अनुमान' है। अदालत ने कहा कि नुकसान या मुआवजे को पैसे के रूप में बराबर या गिना नहीं जा सकता, क्योंकि यह पीड़ित व्यक्ति को हुई मानसिक या शारीरिक चोटों के लिए दी गई सांत्वना है।
तदनुसार, यह निम्नानुसार है,
“माना कि दोनों शिक्षक हैं और दोनों ही देश के भावी जिम्मेदार नागरिकों को तैयार करने के लिए जिम्मेदार हैं। लेकिन मौजूदा मामले में उनके अपने बच्चे ही पीड़ित हैं। मजिस्ट्रेट ने 5,00,000 रुपये का मुआवजा/क्षतिपूर्ति देने का कोई कारण नहीं बताया, लेकिन सेशन कोर्ट ने इसे घटाकर 1,00,000 रुपये कर दिया। यह केवल दोनों पक्षकारों के रोजगार पर विचार करने वाला विवेक है। मेरी सुविचारित राय में सेशन कोर्ट द्वारा 1,00,000/- रुपये का हर्जाना दिया जाना उचित प्रतीत होता है। इसमें किसी हस्तक्षेप की आवश्यकता नहीं है।''
इस प्रकार अदालत ने पति की याचिका को आंशिक रूप से स्वीकार कर लिया। साथ ही पत्नी द्वारा दायर याचिका खारिज कर दी।
केस टाइटल: XYZ और ABC