अयोध्या मामले में समझौते की संभावना होने पर भी सुप्रीम कोर्ट ने मध्यस्थता नहीं: एस. मुरलीधर

Update: 2025-09-10 10:41 GMT

सीनियर एडवोकेट और हाईकोर्ट के पूर्व चीफ़ जस्टिस डॉ. एस. मुरलीधर ने हाल ही में अयोध्या-बाबरी मस्जिद विवाद में सुप्रीम कोर्ट द्वारा बातचीत के जरिए समझौते का विकल्प आगे न बढ़ाने पर निराशा जताई।

उन्होंने कहा कि जिस दिन फैसला सुरक्षित रखा गया, उस दिन कोर्ट द्वारा नियुक्त मध्यस्थता पैनल (जस्टिस इब्राहिम कलीफुल्ला, श्री श्री रविशंकर और सीनियर एडवोकेट श्रीराम पंचु) ने बताया था कि कुछ पक्षों के बीच समझौता हो गया है और सुन्नी वक्फ बोर्ड कुछ शर्तों के आधार पर अपने दावे छोड़ने को तैयार है। लेकिन कोर्ट ने यह कहते हुए समझौते को अस्वीकार कर दिया कि सभी पक्षों ने उस पर हस्ताक्षर नहीं किए।

मुरलीधर ने कहा कि आमतौर पर जब पक्ष समझौते की संभावना जताते हैं तो न्यायाधीश उन्हें प्रोत्साहित करते हैं, लेकिन अयोध्या मामले में ऐसा रवैया नहीं दिखा।

उन्होंने कहा “ऐसा लगता है कि जानबूझकर इस प्रक्रिया को आगे नहीं बढ़ाया गया। अगर जजों ने पक्षों के साथ बैठकर बात की होती तो शायद कोई नेगोशिएटेड सेटलमेंट हो सकता था।”

ए.जी. नूरानी मेमोरियल लेक्चर में बोलते हुए उन्होंने याद दिलाया कि इस्माइल फारूकी केस में सुप्रीम कोर्ट ने समझौते की उम्मीद जताई थी, लेकिन 2019 में पांच जजों की बेंच ने इसे गंभीरता से नहीं लिया। उन्होंने पूछा – “इतनी जल्दीबाजी क्यों? थोड़ा इंतजार क्यों नहीं किया गया? शायद इसकी वजह यह थी कि फैसला 9 नवंबर 2019 को आया, जो जस्टिस गोगोई के रिटायरमेंट से सिर्फ 10 दिन पहले था।”

उन्होंने यह भी सवाल उठाया कि क्या जजों ने हजारों पन्नों का ड्राफ्ट जजमेंट पढ़ने का समय पाया, क्योंकि फैसला रिजर्व करने के सिर्फ एक महीने बाद सुना दिया गया। उन्होंने कहा – “मैं निराश हूं कि मध्यस्थता का विकल्प उस समय नहीं अपनाया गया जब इसकी संभावना थी।”

मुरलीधर ने सुप्रीम कोर्ट की आलोचना की कि उसने यूपी के तत्कालीन मुख्यमंत्री कल्याण सिंह और अधिकारियों के खिलाफ सुओ मोटो शुरू की गई अवमानना कार्रवाई को आगे नहीं बढ़ाया। यह मामला 30 साल बाद 2022 में उठाया गया और कहा गया – “मरे हुए घोड़े को क्यों पीटना?” उन्होंने इसे “संस्थागत भूल” बताया।

उन्होंने कहा कि बाबरी मस्जिद का ध्वंस हमारी राजनीतिक और कानूनी इतिहास की धारा को बदलने वाला मोड़ था और इसने न्यायपालिका के सामने धर्मनिरपेक्षता की असली परीक्षा खड़ी की।

2019 के फैसले की कानूनी नींव पर सवाल उठाते हुए उन्होंने कहा कि इसमें निष्कर्ष और तथ्यों का मेल नहीं बैठता और फैसले का “कोई तार्किक आधार” नहीं था।

उन्होंने Places of Worship Act को लेकर सुप्रीम कोर्ट की असंगतता पर भी चिंता जताई। उन्होंने कहा – “फैसले में एक्ट को uphold किया गया, लेकिन बाद में ग्यानवापी केस में सर्वे की अनुमति देकर इसे कमजोर किया गया। नतीजा यह हुआ कि आज देशभर में 17 मुकदमे चल रहे हैं।”

उन्होंने जस्टिस संजीव खन्ना की सराहना की जिन्होंने दिसंबर 2023 में ऐसे मामलों पर अस्थायी रोक लगाई।

उन्होंने इस बात पर भी आपत्ति जताई कि कोर्ट ने केंद्र सरकार को मंदिर निर्माण की स्कीम बनाने का निर्देश दिया, जबकि ऐसी कोई मांग किसी पक्ष ने नहीं की थी।

फैसले में आए “ऐडेंडम” पर भी सवाल उठाते हुए उन्होंने कहा कि इसमें भक्तों की आस्था से जुड़ी टिप्पणियां मुख्य फैसले के निष्कर्षों से टकराती हैं और फैसले को “लेखकविहीन (authorless)” कहा। उन्होंने तंज कसते हुए कहा – “फैसले के लेखक ने खुद कहा कि उन्होंने इसे देवता से बात करके लिखा, तो इसमें कोई दिक्कत नहीं।”

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