व्यक्तिगत बॉन्ड पेश किए जाने के बावजूद किसी व्यक्ति की हिरासत अनुच्छेद 21 का उल्लंघन: इलाहाबाद उच्च न्यायालय

Update: 2021-02-20 05:55 GMT

इलाहाबाद हाईकोर्ट ने माना है कि किसी व्यक्ति को आवश्यक निजी बांड प्रस्तुत करने के बाद भी हिरासत में रखना, संविधान के अनुच्छेद 21 के तहत दिए गए निजी स्वतंत्रता के अधिकार का उल्लंघन है।

जस्टिस सूर्य प्रकाश केसरवानी और जस्टिस शमीम अहमद की डिवीजन बेंच ने दो व्यक्तियों को, आवश्यक कागजात पेश करने के बावजूद, रिहा करने में विफल रहने पर कार्यकारी मजिस्ट्रेट की आलोचना की। उन दो व्यक्तियों को सार्वजनिक शांति भंग करने की आशंका में किया गया था।

फैसले में यह देखा गया है कि धारा 107 सीआरपीसी के तहत एक व्यक्ति को शंति बनाए रखने के लिए सिक्योरिटी प्रदान करने/ एक बांड निष्पादित करने की आवश्यकता होती है। इस प्रकार यह माना गया कि सीआरपीसी में निहित शर्तों को पूरा करने के बावजूद किसी व्यक्ति को हिरासत में रखना संविधान के अनुच्छेद 14 और 21 का उल्लंघन है।

कोर्ट ने कहा, "अपने काउंटर हलफनामे में, प्रतिवादी नंबर 3 (मजिस्ट्रेट) ने अपने मनमाने कृत्य और उन पर लगाए गए वैधानिक कर्तव्य और संविधान के अनुच्छेद 14 और 21 के तहत गारंटीकृत अधिकारों के स्पष्ट उल्लंघन को सही ठहराने की कोशिश की है।"

पृष्ठभूमि

उल्लेखनीय है कि धारा 107 सीआरपीसी के तहत मजिस्ट्रेट को यह आवश्यकता होती है कि, यह जानकारी प्राप्त होने के बाद कि किसी व्यक्ति से शांति भंग होने की आशंका है और उसकी राय है कि कार्यवाही के लिए पर्याप्त आधार है, वह ऐसे व्यक्ति को यह आदेश दे सकता है कि वह बताए कि क्यों ना उसे शांति बनाए रखने के लिए, जिसकी अवधि एक साल से अध‌िक ना हो, एक बांड को निष्पादित करने का आदेश नहीं दिया जाना चाहिए।

मौजूदा मामले में, याचिकाकर्ताओं को 8 अक्टूबर, 2020 को धारा 151 सीआरपीसी के तहत गिरफ्तार किया गया था। पुलिस द्वारा उसी दिन उप प्रभागीय मजिस्ट्रेट, वाराणसी को धारा 151 (संज्ञेय अपराधों को होने से को रोकने के लिए गिरफ्तारी ), 107 (शांति बनाए रखने के लिए सुरक्षा) और 116 (सूचना की सच्चाई के रूप में जांच) सीआरपीसी के तहत एक चालान रिपोर्ट सौंपी गई थी

याचिकाकर्ताओं ने 12 अक्टूबर, 2020 को व्यक्तिगत बांड और अन्य कागजात प्रस्तुत किए, लेकिन मजिस्ट्रेट ने उन्हें र‌िहा नहीं किया और इसके बजाय, सत्यापन के बहाने 21 अक्टूबर, 2020 को फाइल पेश करने का निर्देश दिया।

मजिस्ट्रेट ने संबंधित तहसीलदार को निर्देश दिया कि वह जमानतदारों के राजस्व रिकॉर्ड का सत्यापन करें। इसके बाद, याचिकाकर्ताओं को 21 अक्टूबर को रिहा किया गया, जिसके बाद उन्होंने 12 अक्टूबर से 21 अक्टूबर के बीच कथित मनमानी और अवैध हिरासत के खिलाफ उच्च न्यायालय का दरवाजा खटखटाया।

न्यायालय के समक्ष दो मुद्दे थे:

1) क्या व्यक्तिगत बॉन्डों को प्रस्तुत करने के बाद उपरोक्त अवधि की हिरासत उचित थी?

शुरुआत में, खंडपीठ ने पाया कि मजिस्ट्रेट के सामने याचिकाकर्ताओं द्वारा व्यक्तिगत बांड और अन्य कागजात प्रस्तुत करने के बावजूद, उन्हें रिहा नहीं किया गया और यह मजिस्ट्रेट के खुद के आदेश के खिलाफ है कि याचिकाकर्ताओं को "व्यक्तिगत बांड की प्रस्तुति तक" हिरासत में रखा जाएगा।

इस प्रकार यह आयोजित किया गया कि, "व्यक्तिगत बॉन्ड / बॉन्ड और अन्य कागजात प्रस्तुत करने के बाद भी प्रतिवादी नंबर 3 द्वारा याचिकाकर्ताओं को रिहा नहीं करना , प्रतिवादी नंबर 3 द्वारा संविधान के अनुच्छेद 21 का स्पष्ट उल्लंघन है, जिसके परिणामस्वरूप याचिकाकर्ता कम से कम 12.10.2020 से 21.10.2020 तक अवैध हिरासत में लिया गया था।"

खंडपीठ ने आगे पाया कि जवाबी हलफनामे में, मजिस्ट्रेट ने अपनी मनमानी कार्रवाई और उस पर लगाए गए सांविधिक कर्तव्य के स्पष्ट उल्लंघन के आरोपों का औचित्य साबित करने की कोशिश की थी।

यह देखा गया कि विवादित आदेश में, मजिस्ट्रेट धारा 107 का पालन करने में विफल रहा क्योंकि उसने शांति स्‍थापना के लिए बांड लेने के लिए पर्याप्त आधार होने पर अपनी संतुष्टि दर्ज नहीं की।

कोर्ट ने कहा, "8.10.2020 के पूर्वोक्त आदेश से यह पता चलता है कि प्रतिवादी नंबर 3 ने याचिकाकर्ताओं से यह पूछने की आवश्यकता पूरी नहीं कि क्यों उन्हें जमानत के साथ या बिना जमानत के बांड निष्पादित करने का आदेश नहीं दिया जाना चाहिए। इस प्रकार, प्रतिवादी नंबर 3 धारा 107 सीआरपीसी का स्पष्ट उल्लंघन किया।"

इसके अलावा, यह नोट किया गया कि मजिस्ट्रेट ने सीआरपीसी की धारा 111 का भी उल्लंघन किया, जिसके तहत एक मजिस्ट्रेट को आवश्यकता होती है, जो धारा 107 के तहत कार्य कर रहा है, कि वह आदेख लिखित में दे, जिसमें शामिल हो, (i) प्राप्त जानकारी, (ii) निष्पादित किए जाने वाले बांड की राशि, (iii) वह अव‌ध‌ि, जिसके लिए यह लागू होना है, और (iv) जमानतदार की संख्या, क्लास और कैरेक्टर।

बेंच ने कहा , "सेक्‍शन 111 सीआरपीसी की आवश्यक सामग्री प्रतिवादी संख्या 3 द्वारा पारित आदेश में पूरी तरह अनुपस्थित है। इस प्रकार, यह रिकॉर्ड पर स्पष्ट है कि प्रतिवादी संख्या 3 ने मनमाने ढंग से और अवैध रूप से काम किया है।"

2) क्या चालानी रिपोर्ट मुद्रित रूप में हो सकती है?

पुलिस द्वारा प्रस्तुत चालानी रिपोर्ट मुद्रित प्रोफार्मा पर थी, और केवल याचिकाकर्ताओं और अन्य लोगों के नाम, गांव का नाम और "भूमि विवाद" स्याही से लिखा गया था।

न्यायालय ने पुलिस अधिकारियों से एक हलफनामा दाखिल करने के ‌लिए कहा था, जिसमें यह बताने के लिए कहा गया था कि किसी विशेष कारणों का खुलासा किए बिना, मुद्रित प्रोफार्मा पर किन परिस्थितियों में रिपोर्ट जारी की गई थी।

अदालत ने 13 जनवरी को दिए अपने आदेश में कहा, "वे अमित जानी बनाम स्टेट ऑफ यूपी और अन्य, 2020 (112) एसीसी 574 के मामले में इस न्यायालय द्वारा निर्धारित कानून का पालन नहीं करने का कारण भी देंगे।"

जब मामला 27 जनवरी को आया, तो कोर्ट ने पुलिस अधिकारियों को जवाबी हलफनामा दाखिल करने में असफल रहने पर कड़ फटकार लगाई।

कोर्ट ने कहा, "हमारे पास प्रतिवादी नंबर एक को व्यक्तिगत रूप से उपस्थिति के लिए कहने के अलावा कोई विकल्प नहीं है। उसे यह बताने की आवश्यकता है कि क्यों काउंटर-एफिडेविट दाखिल नहीं करने के लिए उस पर अनुकरणीय जुर्माना ना लगाया जाए, खासकर जब याचिकाकर्ताओं को 12.10.2020 से 21.10.2020 तक अवैध रूप से हिरासत में रखा गया।"

दो फरवरी, 2021 को, अदालत को एक हलफनामे के माध्यम से सूचित किया गया कि राज्य सरकार ने मामले में सुधारात्मक कार्रवाई की है और मजिस्ट्रेटों को मुद्रित प्रोफार्मा का उपयोग करने से रोकने के लिए परिपत्र जारी किया है।

इस पृष्ठभूमि में, कोर्ट ने कहा, "ऊपर दिए गए तथ्यों और प्रतिवादी नंबर एक के जवाबी हलफनामे से, यह स्वीकार किया गया है कि पुलिस अधिकारी मनमाने ढंग से और अवैध तरीके से धारा 107/116 सीआरपीसी के तहत चलानी रिपोर्ट जमा कर रहे हैं। चूंकि प्रतिवादी नंबर 1 गलतियों और अवैध कृत्यों को सही करने के ल‌िए कदम उठाएं हैं, इसलिए, हम उस संबंध में कोई और दिशानिर्देश जारी करने का प्रस्ताव नहीं करते हैं। ' 

क्या है कानून

चालान पेश करने, अभियुक्तों को बुलाने आदि के लिए मुद्रित प्रोफार्मा का उपयोग अदालतों द्वारा हतोत्साहित किया गया है।

मुद्रित प्रोफार्मा पर पारित संज्ञान / सम्मन आदेश को इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने विष्णु कुमार गुप्ता और अन्य बनाम उत्तर प्रदेश राज्य और अन्य में रद्द कर दिया था। कई उच्च न्यायालयों की विभिन्न पीठों ने भी अधीनस्थ न्यायालयों को निर्देश दिया कि वे संतोषजनक कारण देते हुए, दीमाग के इस्तेमाल के साथ संज्ञान / आदेशों को पारित करने का निर्देश दें।

प्रशासनिक पक्ष में भी, उच्च न्यायालय ने समय-समय पर अधीनस्थ न्यायालयों को परिपत्र जारी किया है, उन्हें बिना किसी मन के आवेदन के एक मुद्रित प्रोफार्मा पर संज्ञान / आदेश पारित करने से रोक दिया है।

इसी प्रकार, अमित जानी बनाम उत्तर प्रदेश और अन्य (सुप्रा), इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने मुद्रित प्रोफार्मा / साइक्लोस्टाइल्ड प्रारूप में आदेश पारित करने को हतोत्साहित किया है। इस मामले में भी, आरोपियों को मुद्रित प्रोफार्मा से पीसकीपिंग बांड प्रस्तुत करने के लिए बुलाया गया था।

केस टा‌इटिल: शिव कुमार वर्मा और अन्य बनाम उत्तर प्रदेश राज्य और अन्य।

आदेश डाउनलोड करने के लिए क्लिक करें



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