दिल्ली हाईकोर्ट ने कैदियों के एकांत कारावास के खिलाफ जनहित याचिका पर केंद्र सरकार से जवाब मांगा
दिल्ली हाईकोर्ट ने मंगलवार को जेल के कैदियों को अलग या एकांत कारावास से संबंधित प्रावधानों को चुनौती देने वाली जनहित याचिका पर केंद्र सरकार से जवाब मांगा।
चीफ जस्टिस सतीश चंद्र शर्मा और जस्टिस सुब्रमणियम प्रसाद की खंडपीठ ने एडवोकेट हर्ष विभोर सिंघल द्वारा दायर याचिका पर नोटिस जारी किया, जो भारतीय दंड संहिता, 1860 और जेल अधिनियम, 1894 के तहत विभिन्न प्रावधानों की संवैधानिक वैधता को चुनौती देती है।
अदालत ने कहा,
"नोटिस जारी करो। भारत संघ को मामले में निर्देश लेने के लिए छह सप्ताह का समय दिया जाता है।”
याचिका में भारतीय दंड संहिता (आईपीसी) की धारा 73 और 74 और जेल अधिनियम की धारा 29, 30 (2), 46, 48 और 49 के साथ भारत के संविधान के अनुच्छेद 14, 19 (1) (ए), 20 ( 2) और 21 के प्रवाधानों का उल्लेख किया गया।
याचिका में कहा गया कि "एकान्त कारावास" शब्द को न तो परिभाषित प्रावधानों में परिभाषित किया गया और न ही इसकी शर्तों को निर्दिष्ट किया गया। हालांकि, इसकी विशेषताओं को "कैदी की शारीरिक और मानसिक कठिनाइयों को अनावश्यक रूप से बढ़ाने" के लिए निर्मित किया गया।
इसमें कहा गया कि इस तरह के कारावास द्वारा लगाई गई शर्तें "कैदियों के सुधार और पुनर्वास को अमानवीय, अपमानजनक और नष्ट कर देती हैं" और अनुचित अतिरिक्त सजा भी देती हैं।
याचिका में कहा गया,
“एकान्त कारावास एक विषैले बिच्छू के घातक डंक की तरह है; यह परपीड़क, बर्बर और अमानवीय सजा है, जो कैदियों को जेल अधिकारियों से गाली-गलौज करने, जबरदस्ती और हठधर्मी से मनमानी करने, भोजन या शौचालय के लिए झगड़ा करने, यहां तक कि जेल अधिकारियों को जवाब देने के परिणाम के रूप में जेल के मामूली उल्लंघन पर घिनौनी, बदबूदार कालकोठरी में कैदियों को डालकर दी जाती है।
“यह प्रस्तुत किया गया कि एकांत कारावास, जो संवेदी, दृश्य और सामाजिक समाज से कैदी को काट देता है, अमानवीय है। साथ ही "अतिरिक्त सजा और कठोर कारावास की सजा" के रूप में काम करता है, जिससे मनमानी न्यायिक और पुलिस शक्ति होती है, जिसका कोई सांठगांठ नहीं होता है।
याचिका प्रस्तुत कहा गया,
“अधीक्षकों की ऐसी निरंकुश, मनमानी और तानाशाही शक्तियाँ उन्हें पहले से ही स्वतंत्रता से वंचित करने वाले असहाय दोषियों पर दमनकारी और दम घुटने वाली शक्तियों का प्रयोग करने में सक्षम बनाती हैं। इसलिए इन धाराओं के तहत अलग या एकांत कारावास बर्बर, क्रूर है और अत्यधिक दर्द और पीड़ा का कारण बनता है। साथ ही अनुच्छेद 14, 19, 20 (2) और 21 के तहत दिए गए मौलिक अधिकारों का उल्लंघन करता है।”
केस टाइटल: हर्ष विभोर सिंघल बनाम भारत संघ