"बंदी प्रत्यक्षीकरण याचिका में रिमांड आदेश की वैधता तय नहीं कर सकते": दिल्ली हाईकोर्ट ने दंगे की आरोपी गुलफिशा फातिमा की रिहाई की याचिका खारिज की
दिल्ली हाईकोर्ट ने शुक्रवार को दिल्ली दंगे की आरोपी गुलफिशा फातिमा द्वारा दायर याचिका को खारिज कर दिया। इसमें कहा गया था कि अदालत बंदी प्रत्यक्षीकरण याचिका (Habeas Corpus Plea) में रिमांड आदेश की वैधता तय नहीं कर सकती है।
न्यायमूर्ति विपिन सांघी और न्यायमूर्ति जसमीत सिंह की खंडपीठ ने राज्य की ओर से पेश अधिवक्ता जतिन भट्ट और अतिरिक्त सरकारी वकील अमित महाजन की सुनवाई के बाद याचिका खारिज कर दी।
कथित बड़ी साजिश से संबंधित एक आरोप पर गुलफिशा के खिलाफ गैरकानूनी गतिविधि (रोकथाम) अधिनियम (यूएपीए) के तहत मामला दर्ज किया गया है। इसी के खिलाफ गुलफिशा ने अदालत से अपनी रिहाई की मांग की थी। इसी कथित बड़ी साजिश के कारण पिछले साल फरवरी में उत्तर-पूर्वी दिल्ली दंगे हुए थे।
सुनवाई के दौरान गुलफिशा की ओर से पेश हुए वकील जतिन भट्ट ने कहा कि अभियोजन पक्ष को रिमांड आदेश को रिकॉर्ड में रखना चाहिए, क्योंकि उनके पास इसकी कोई प्रति नहीं है।
भट्ट ने तर्क दिया,
"वह अभी भी अवैध हिरासत में है... एक सत्र न्यायाधीश द्वारा रिमांड आदेश पारित किया गया था, जो अवैध है।"
दूसरी ओर राज्य की ओर से पेश महाजन ने अदालत के समक्ष तर्क दिया कि बंदी प्रत्यक्षीकरण याचिका ने इसी तरह के आधार उठाए हैं, जो पहले ही गुलफिशा के भाई द्वारा दायर याचिका में अदालत द्वारा तय किए जा चुके हैं।
सांप्रदायिक हिंसा से जुड़े एक मामले की आरोपी फातिमा को इस मामले में 11 अप्रैल को गिरफ्तार किया गया था और फिलहाल वह न्यायिक हिरासत में है। उसने दावा किया कि न्यायिक हिरासत में उसकी हिरासत "अवैध" है।
याचिका का विरोध करते हुए पुलिस ने पहले तर्क दिया था कि फातिमा द्वारा दायर बंदी प्रत्यक्षीकरण याचिका न केवल सुनवाई योग्य है, बल्कि यह "कानून की प्रक्रिया का घोर दुरुपयोग है और जुर्माना के साथ खारिज करने योग्य है।"
फातिमा के इस आरोप का जवाब देते हुए कि हिरासत अवैध है, पुलिस ने जवाब दिया कि मामले में पिछले साल 16 सितंबर को निचली अदालत में आरोप पत्र दायर किया गया था और अगले दिन इस पर संज्ञान लिया गया था। यह भी कहा गया था कि फातिमा को केवल निचली अदालत के आदेश के अनुसार न्यायिक हिरासत में रखा गया था। इसलिए न्यायिक हिरासत में फातिमा की हिरासत "वैध है।"
उनका यह भी मामला था कि फातिमा ने वही आधार उठाए थे जिन पर हाईकोर्ट पहले ही अपने भाई द्वारा दायर बंदी प्रत्यक्षीकरण याचिका में फैसला सुना चुका था। आधार एक ही होने के कारण पुलिस ने तर्क दिया कि याचिका को न्यायालय को गुमराह करने के प्रयास के साथ विचार किए जाने के अलावा, न्यायिक, रचनात्मक निर्णय और मुद्दे को रोकने के सिद्धांतों द्वारा वर्जित किया गया है।