दिल्ली दंगे : दिल्ली हाईकोर्ट ने कहा, "हिंदुओं में आक्रोश" वाला दिल्ली पुलिस का आदेश पूर्वाग्रह से ग्रस्त नहीं, मीडिया से तथ्यों को सत्यापित करने को कहा
दिल्ली हाईकोर्ट ने 8 जुलाई की तारीख को जारी किए गए विशेष पुलिस आयुक्त के आदेश को रद्द करने से इनकार कर दिया है, जिसमें दिल्ली के दंगों के मामलों में गिरफ्तारी के मद्देनजर 'हिंदू समुदाय के बीच नाराजगी' का हवाला दिया गया था और पुलिस अधिकारियों को सलाह दी गई कि वे गिरफ्तारी करते समय सावधानी बरतें।
न्यायमूर्ति सुरेश कुमार कैत की एकल पीठ ने कहा कि उक्त निर्देश मेंं "कोई पूर्वाग्रह नहीं है" क्योंकि आरोपी व्यक्तियों द्वारा आरोप पत्र जारी किए जाने के बाद यह जारी किया गया।
अदालत साहिल परवेज और मोहम्मद सईद सलमान द्वारा दायर एक रिट याचिका पर विचार कर रही थी, जिनके पिता और मां फरवरी 2020 के अंतिम सप्ताह में दिल्ली के उत्तर पूर्व भागों में हुए दंगों में मारे गए थे।
न्यायालय ने उल्लेख किया कि दिल्ली दंगों से संबंधित मामले 8 जुलाई को जारी गए पत्र से पहले दर्ज किए गए थे। यह भी उल्लेख किया गया है कि कई मामलों में आरोप पत्र दायर किए गए हैं और अब तक 535 हिंदुओं और 513 मुसलमानों पर सभी मामलों में आरोप-पत्र दाखिल किए गए हैं।
इस पृष्ठभूमि में, न्यायालय ने देखा कि पत्र के कारण कोई पूर्वाग्रह उत्पन्न नहीं हुआ है।
अदालत ने कहा,
"आरोपी व्यक्तियों को दिनांक 08.07.2020 को पत्र जारी करने से पहले ही आरोपपत्र दे दिया गया है, कोई पूर्वाग्रह नहीं है।"
मीडिया रिपोर्ट पत्र की भावना के खिलाफ
न्यायालय ने आगे कहा कि पत्र के बारे में मीडिया की रिपोर्ट इसकी भावना के विपरीत है।
अदालत ने कहा,
"इसलिए, यह सुझाव दिया जाता है कि लोकतंत्र का चौथा स्तंभ होने के नाते मीडिया को समाचार के तथ्यों को सत्यापित करने के बाद प्रकाशित करना चाहिए ताकि किसी को कोई पूर्वाग्रह न हो या इस देश में समुदायों के बीच नफरत न फैले।"
यह पत्र 'द इंडियन एक्सप्रेस' में प्रकाशित एक रिपोर्ट के बाद चर्चा में आया जिसका शीर्षक "Resentment in Hindus on arrests, take care: Special CP to probe teams" (गिरफ्तारी पर हिंदुओं में आक्रोश) था।
इस रिपोर्ट के बाद हंगामा मच गया, दिल्ली पुलिस ने 15 जुलाई को ट्विटर में एक स्पष्टीकरण प्रकाशित किया।
याचिकाकर्ताओं ने इस आधार पर आदेश को रद्द करने की मांग की कि यह पुलिस की ओर से पूर्वाग्रह को दर्शाता है। याचिकाकर्ताओं का प्रतिनिधित्व कर रहे एडवोकेट महमूद प्राचा ने दावा किया कि 8 जुलाई का आदेश पुलिस अधिकारियों द्वारा जांच कार्यों में गैरकानूनी और अवैध हस्तक्षेप है।
31 जुलाई को हुई पिछली सुनवाई में न्यायमूर्ति कैत ने मौखिक रूप से कहा था कि यह आदेश "शरारतपूर्ण " है और पूछा कि इसे जारी करने की क्या आवश्यकता थी।
न्यायाधीश ने तब पूछा था कि "मुझे बताएं कि इस पत्र को जारी करने की क्या आवश्यकताथी ? "
इसके बाद दिल्ली पुलिस की प्रतिक्रिया के लिए सुनवाई को 7 अगस्त तक के लिए स्थगित कर दिया था।
7 अगस्त को श्री अमित महाजन ने दिल्ली पुलिस की ओर से पेश होकर अदालत को सूचित किया कि अब तक 535 हिंदुओं और 513 मुसलमानों को सभी मामलों में आरोप-पत्र दिया गया है। यह कहा गया कि आदेश का पहला पैराग्राफ लिखित रूप में खुफिया जानकारी प्राप्त इनपुट पर आधारित था और दूसरा पैराग्राफ अधीनस्थ अधिकारियों को निर्देश था कि किसी भी व्यक्ति को गिरफ्तार करते समय उचित सावधानी बरती जाए।
हालांकि अदालत ने आदेश को रद्द करने से इनकार कर दिया, लेकिन यह स्पष्ट किया कि जांच अधिकारियों को इस दिशा में विचार नहीं करना चाहिए कि प्रत्येक मामले को सौंपे गए विशेष पीपी के साथ सबूतों पर चर्चा की जानी चाहिए।
श्री चेतन शर्मा, एडिशनल सॉलिसिटर जनरल और श्री महाजन के बाद, SPP ने माना कि न तो Cr.P.C. न ही कानून के किसी अन्य प्रावधान के तहत जांच के चरण में अभियोजकों के साथ साक्ष्य की चर्चा के लिए आवश्यकता का कोई उल्लेख है।
अदालत ने आगे स्पष्ट किया कि अधीनस्थ अदालतें वर्तमान याचिका के निपटारे में इस अदालत द्वारा की गई टिप्पणियों से प्रभावित नहीं होंगी।